वज़्न : 2122 2122 2122 212
काफ़िया : अररदीफ़ : न बन
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रहगुज़र उलझी हुई हैं बेसबब रहबर न बन।
इन पहाड़ों पर बहुत पत्थर हैं' तू पत्थर न बन।
क्यों महज लटका हुआ फानूस बन छत पर रहे
रोशनी जब कर नहीं सकता तो फिर अख़्तर न बन।
ईंट सोने की बने बुनियाद मंदिर की तो' फिर,
उस नुमाइशगाह की दीवार का गौहर न बन।
पेट के भूगोल पर आकाश छूते बुत खड़े,
भूलकर भी इनके आगे जो झुके वो सर न बन।
नफ़रतों की, ख़ून की तारीख़ की तहरीर का,
पीढ़ियों की बेबसी का, बदनुमा आखर न बन।
सैंकड़ों मायूस मीलें रौंद घर आया मगर,
मौत के सन्नाटे की बस्ती में मुर्दाघर न बन।
क्यों दवाख़ाने यकायक आग में जलने लगे,
ये बिमारी भी है शैतानी तू चारागर न बन।
@कुमार ज़ाहिद,
०९.०८.२०२०, प्रातः ०९.३०
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