वज़्न : 2122 2122 2122 212
अरकान : फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
ख़्वाब टूटे, सामने लँगड़ी गृहस्थी आ गयी।
हाथ में सामान की बदहाल पर्ची आ गयी।
बाग़ से गुज़रे तो ख़ुशबू के बहाने रुक गए,
पर तभी चूल्हे की उड़कर राख ठंडी आ गयी।
शह्र के दंगे फ़सादों को न लेकर घर गए,
पर न जाने किस तरह घर में उदासी आ गयी।
फिर हमारे नाम पर उठने लगे तीखे सवाल्
फिर हमारे लब पै शायद बात सच्ची आ गयी।
मैं मुकर जाता सियासतदान हो जाता अगर,
क्या करूँ, आंखों के' आगे जलती' बस्ती आ गयी।
@कुमार,
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