मिट्टी मेरे गॉंव की
मचल रही है बहुत दिनों से पनहीँ मेरे पांव की।
शायद मुझको बुला रही है मिट्टी मेरे गॉंव की।।
शायद मुझको बुला रही है मिट्टी मेरे गॉंव की।।
आंगन में जलते दीपक का सुबह शाम यह काम था।
आये-जाये कोई सबसे लेता खरा प्रणाम था।
घर मेरा, आंगन मेरा था बेशक चौरा मेरा,
लेकिन सबकी अपनी थी वह तुलसी मेरे गाँव की।
नित सुख दुःख की सभा बनी थी, कड़ी धूप में ठाँव बनी।
आम, नीम, जामुन के नीचे, मौलशिरी की छांव घनी।
इन चारों से चौपालें अब पंचायत क्या बन पातीं,
बनी रसीली पंच पांचवीं इमली मेरे गाँव की।
अमराई की ठंडी-ठंडी याद बसी मन में अब भी।
रोक सकेंगे मुझको आख़िर नगरों के झंझट कब तक।
बुला रहीं हैं जाने कब से यादों की दादी नानी,
हाट, बाट, नदिया तट, पनघट, चक्की मेरे गॉंव की।
मन में बढ़ता सन्नाटा है, बाहर इतनी भीड़ बढ़ी।
तर्जन, वर्जन, धूल, धुआं की जाली मेरे नीड़ चढ़ी।
स्थगनों के अम्बारों में व्यस्त विवशता ढूंढ रही,
मिले कहीं निर्मल निर्झर-सी चिट्ठी मेरे गॉंव की।
@ रारा कुमार, ३-४.११.२५

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