इस शहरे नामुराद में मेरे घर का पता
घर का एक पता होता है। यह सबको पता है। जिसका घर लापता हो, उस आदमी का सबको पता होने पर भी, वह लापता ही होता है। वह लोगों की नज़र में 'न घर का होता न घाट का'। घाट भी तो अपना एक पता होता ही है जैसे असी घाट। असी घाट सबको पता है कहां है? राजघाट, शांतिघाट, विजयघाट वगैरह असी घाट की ही बिरादरी के पते हैं। जब कोई सामान्य या असमान्य आदमी उठता है तो इन्हीं घाटों में जाता है। आने वाले का पता चाहे कुछ भी हो, जाने का पता सबका एक ही होता है-श्मसान घाट। इसलिये लोग उसे कहते हैं सम-शान घाट। सबकी समान शान।
बालाघाट और बरघाट भी दो स्थान हैं, जो दक्षिण मध्यप्रदेश में हैं। संसद तक को इनका पता है। पर ये दोनों पहले चार घाटों की तरह सम-शान या श्मसान घाट नहीं हैं। इन दोनों से मेरे सम्बन्ध हैं मगर इनमें से पहला मेरा वर्तमान पता है। हालांकि यह अलग बात है कि इस बात का पता बहुत कम लोगों को है। लगभग लापता ही हूँ। पर फिर भी मेरा एक घर है, जहां में हमेशा लौटकर आता हूँ। इस पर एक मुहावरा भी है- लौटकर बुद्धू घर को आये। पर मेरा घर फिलहाल मुहावरा नहीं है, मुहावरों का घर ज़रूर है। सैकड़ों, हज़ारों मुहावरों का एक ही घर है -मेरा घर। सुबह का भूला शाम को इसी घर में आता है।
इस बात पर एक लापता शायर का सुना हुआ शेर याद आ गया-
आ अय ग़मे हयात तुझे घर ही ले चलें।
हालांकि इसी से मिलता-जुलता एक शेर और है- वह कहीं पढ़ा था। शेर यूं है...
आ अय शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें।
सब अपने अपने हिसाब से और मिज़ाज से शेर कहते, सुनते या याद रखते हैं। मुझे पहले शेर के मिज़ाज से वह याद है। मेरे लिए शहर नामुराद है, किसी के लिए वह बे-चराग़ है। इसमें इंसान का भी फ़र्क़ है और लोकेशन का भी। किसी को हयात के ग़म की चिंता है, किसी को अंधेरी रात की। कौन किस ख़्याल का है, वह इन दोनों शेरों (अशआर) से पता चलता है। दिल में किसके कौन सी बात घर कर जाए, बस उसी बात से शेर निकलते हैं।
देखिए, बात घर से शुरू हुई थी और कहां निकल आयी। बात का कोई ठिकाना नहीं है। ठिकाना यानी घर। बात भले ही ठिकाने की न हो, पर पते की हो सकती है। हालांकि कई बातें न पते की होतीं, न ठिकाने की। जैसे धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। पहली बात तो यही कि धोबी क्यों कुत्ता रखेगा? एक समय में उसके पास गधा होता था, जिस पर कपड़े लादकर वह धोबी घाट जाता था। जिस गंगा में असी-घाट होता है, उसी गंगा में धोबी-घाट भी होता है।
धोबी घाट में पछीटकर देखें, इस मुहावरे में जो पते की बात है, उसका रंग फीका पड़ जायेगा। पछीटने के बाद ही कच्चे पक्के रंगों का पता चलता है।
रंगों से याद आया, रंगों का भी एक घर होता है। उसे कोई रंगशाला कहता है, कोई रंगमंदिर तो कोई रंगभूमि। रंगों के घर होते हैं तो घरों के भी रंग होते हैं। किसी घर को पीला रंग पसंद है, तो किसी को हरा। किसी को गुलाबी तो किसी को सफ़ेद। घरों के रंग, घर में रहनेवालों के अंदर का बाहरी परिचय पत्र है। गहराई में क्या जाना।
घर लौटें? मैं अपने घर, आप अपने घर। अपना साथ यहीं तक था।
मन करे तो आप मेरे घर चलिये। संकोच मत करिए, अपना ही घर समझिए। हालांकि ऐसा कहने से घर आपका नहीं हो जाएगा, बस ज़रा सा दिल लग जायेगा, समय कट जाएगा। एक बात और... कोई घर आये तभी आदमी आदमी बनता है। नहीं तो सब अपने घर में शेर होते हैं। इन शेरों को आनेवाला .... अतिथि ही आदमी बनाता है। इसलिए अतिथि को देवता कहते हैं। अतिथि देवो भव।
ठहरिए, घरवाली से भी मिलवाते हैं। उसी से तो घर की शोभा है। उसी से घर मंदिर है। घरवाली नहीं तो घर भूतों का डेरा होता है मान्यवर! भूतों का डेरा यानी श्मसान घाट। अतिथि देवता आते हैं तो श्मसान भी मंदिर बन जाता है। जो लोग घरवाली को लक्ष्मी मानते हैं, उनका घर तो स्वर्ग होता है श्रीमान। जो उसे घर की मुर्ग़ी (दाल बराबर) समझते हैं, वह घर तो बूचड़ख़ाना होता है।
पानी पिलवायें आपको? आपको भी लगे कि कोई पानी पिलानेवाला मिला था। पानी पिलाना शब्द अच्छा नहीं? तो पानी देनेवाला समझ लीजिए। पानी पिलानेवाले को पानी पिलानेवाले मिलते हैं तो पानी देनेवाले को पानी देनेवाले होते हैं।
चाय पियेंगे? कैसी पियेंगे? शक्करवाली या बिना शक्कर की? आजकल लोग शककरवाली पसंद नहीं करते। नहीं शक्कर की बीमारी न हो तो भी। हां मान्यवर, शक्कर कई बीमारियों का घर है। मोटापा, शक्कर, रक्तचाप, अनिद्रा, वगैरह वगैरह।
अच्छा अब जाएंगे? घर ही जायेंगे? अपने घर ही जायेंगे ना? नहीं मतलब क्या होता है, बड़े लोगों के कई घर होते हैं। नहीं, वो नहीं कह रहे । कह रहे हैं कि नई दुनिया में एक ही शहर में ख़ुद यानी मियां बीवी कहीं रह रहे हैं, ख़ुद के माता पिता उसी शहर में कहीं और रह हैं। उसी शहर में बेटे बहू कहीं और रह रहे हैं। वक़्त का तकाज़ा है महोदय!
मगर समझदार आदमी सभी को मिलाकर चलता है। वह अलग-अलग रहने की मज़बूरी को समझता है। इसलिए उसका घर जाना, 'किसके घर जाना' यह सवाल खड़ा करता ही है। बिल्कुल बिल्कुल। यह तो घर घर की कहानी है।
माफ़ करें बहुत समय ले लिया। अच्छा नमस्ते! फिर आइयेगा समय निकालकर। नहीं वो तो है... घर की जिम्मेदारियों में समय ही नहीं निकलता। तो फिर ठीक है...
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@ अनंत पाठक 'अनंतानंद', 29.11.25, शुक्रवार।

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