Skip to main content

इक्तीस दोहे

प्रकृति और धूप के इकतीस दोहे

राजनीति उनके लिए, जिनके मन में खोट।

घटनाएं मुझको मगर, देतीं सदा कचोट।।31

                    @कुमार,८.१.२४, सोमवार, ११.००


मुझे देखकर खिल उठी, रुग्ण धूप की देह।

शक़्क़ी के मन से मिटे, जैसे सब सन्देह।।१            @कुमार,८.१.२४, सोमवार, ८.३०


जैसे फाइल में दबा, पड़ा हुआ था घाम।

सोमवार को बन गया, सूरज का यह काम।।२

               @कुमार,८.१.२४, सोमवार, ९.०६


हवा गुप्तचर हो गयी, ठहरी किरणें चोर।

अंधकार के दुर्ग में, शक़ में बंदी भोर।।३

                    @कुमार, 7.1.24,रविवार ६ बजे शाम,


आत्मकथा में झूठ की, बनावटी हर बात।

देशप्रेम, निष्ठा, प्रगति, भ्रष्ट-विरोधी घात।।४

              @कुमार,.८.१.२४, सोमवार, ९.३० 


अंदर जिसके विष भरा, धोखा उससे प्यार।

दूध पिलाकर देखिए, विषधर का व्यवहार।।५

                    @कुमार, 7.1.24,रविवार ६.१५ बजे, 

0

पांच दोहे :


सुंदर, आकर्षक, सुरम, प्रकृति बांटे स्नेह।

संकट कंटक से डरें, केवल कोमल देह।।१

                    @कुमार, 7.1.24,रविवार 12 बजे, 


पीली पीली रुग्ण है, मरी मरी सी धूप।

कुछ डीं पहले प्रखर थी, उज्ज्वल और अनूप।।२

                    @कुमार, 5.1.24, शुक्र 12 बजे, 


उन पर मरें रजाइयां, हम पर मरती धूप।

हम श्रमिकों से जब खुली,खिला धूप का रूप।।

                    @कुमार, 4.1.24, प्रातः 9.59,


सूरज प्रतिदिन शाम को, बैठा मिले अशांत।

समय यही विश्राम का, वह क्यों कातर क्लांत।।

                    @कुमार, 4.1.24, प्रातः 6.40


"अपनी 'सूरत' देख" सुन, वे पहुंचे गुजरात।

भौचक्के 'आनंद' की, 'भुच' पहुंची 'बारात'।।५

                    @कुमार, 4.1.24, प्रातः 7.50 

००

नया विहान : पांच दोहे

0

ज्ञान आजकल मौन है, मुखर बहुत अज्ञान।

खींचें वाद विवाद ही, सदा परस्पर कान।।१.


है तटस्थ जीना कठिन, कठिन सत्य का साथ।

संघर्षों की राह में, छुड़ा गए सब हाथ।।२.


सत्याग्रह का मार्ग है, कठिन कंटकाकीर्ण।

जीवन के सत्यार्थ को, करे असत्य विदीर्ण।।३.


गैलीलियो, मसीह हो, या गांधी, सुकरात।

सत्य-मार्ग पर जो चले, उस पर प्राणाघात।।४.


गया शाम के कान में, यह कहकर दिनमान।

'प्रिये रात के बाद में, होगा नया विहान।।'५.

                                @कुमार, 4.1.23, 4.30 

0

विषैले वंश 

पड़े पूंछ पर पांव तो, नाग मारते दंश। 

इसी उदाहरण पर करें, दम्भ विषैले-वंश।।१


सिर्फ़ कीट मूषक नहीं, निगलें व्याल भुजंग।

वह विष ही दंशित करें, घातक उनका संग।।२


बिच्छू, कर्कट, सर्प के, शस्त्र विषैले डंक।

जिसमें कटुता ही भरी, मधुरस निरा निरंक।।३


द्वेष, ईर्ष्या, दम्भ ही, जिनका नित-अभियान।

उत्तेजित व्याकुल फिरें, उनका नहीं निदान।।४


जनहित जिसका लक्ष्य है, होता हिंस्र न उग्र। 

छद्म-सद्गुणी में मिला, मिथ्याचरण समग्र।।५

@कुमार, 3.1.24, बुधवार, 5 बजे सायं। 

पांच दोहे :

1.

प्रगति-प्रमादों का मिला, काल-चक्र को दंड।

चक्र-वात बनकर उठा, गति का रोष प्रचंड।।3/1/24                       


शब्दार्थ :

प्रगति-प्रमाद = आगे निकलने की अहंकारयुक्त होड़,

काल-चक्र = समय के पहिये,

चक्र-वात = वायु का चक्करदार ज्वार, जल-अंधड़,

गति का रोष = क्रियाशीलता का क्रोध, प्रतिरोध,

प्रचंड = विकराल, भयंकर,

2.

कुल्हाड़ी ने मान ली, आख़िर अपनी हार।

जीवन पहियों पर कभी, नहीं करेगी वार।। 3/1/24

3.

गलती मद की, भांग की, सज़ा भोगते लोग। 

यदि विषाक्त वातावरण, राज करेगा रोग।। 3/1/24

4.

जन-जीवन ठहरा मिला, धूप पीलियाग्रस्त।

स्याह क़ानुनों से हुई, भोली जनता त्रस्त।।3/1/24

5.

संख्या-बल से दब गई, गुणवत्ता उत्कृष्ट।

राजमार्ग पर दौड़ते, सरपट सब पथभ्रष्ट।।3/1/24 

@कुमार,३.१.२४, बुध,नवेगांवबालाघाट,प्रातः९बजे। 


0

पांच दोहे : बून्द/जलकण 

अनुभव बूंद विशाल, लघु    पुस्तक-पारावार।  

बड़ी नाव को खे रही,     नन्हीं सी पतवार।।१


सागर, सीपी, झील सी, आंखों का क्या मेल। 

मोती, शतदल, प्रेम में, एक बून्द का खेल।।२


शस्त्रागारों के हुए, सारे व्यूह निरस्त।

अश्रु-बून्द ने दम्भ के, दुर्ग किये सब ध्वस्त।।३


बून्द-बून्द मकरंद चुन, मधु पागे मधु-कीट। 

मधु-पोषित वपु-राज में, अविजित स्वास्थ्य-किरीट।।४ 


सृष्टि सुंदरी सींचती, सुमन सुमन को नित्य।

सुरभित वन उपवन हुए, जलकण से कृतकृत्य।।५

 @डॉ.रा.रा.कुमार,29/12/23, शुक्र,बालाघाट.

 

@डॉ. रा. रामकुमार, ९ जनवरी २०२४, सोमवार।

   

Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ मरना तो है ही एक दिन इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं। मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं। माडर्न ...

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...