धोखा खाकर धूप से, लौटा मैं बीमार।
सींग कटा बछड़ा बना, बैल हुआ बेकार।। 1
सींग कटा बछड़ा बना, बैल हुआ बेकार।। 1
बहुत भरोसा स्वयं पर, दुर्घटना की मांग।
रखे सुरक्षित मनस ही, मन तुड़वाता टांग।। 2
बस्ती के विश्वास को, लोभ रहा है लील।
मुकर रहे मुखिया सभी, सुआ हो रहे चील।। 3
बकरी, मुर्ग़ी हो रही, अब घर-घर की लाज।
छूरी जिनके हाथ वे, कहलाते सरताज।। 4
खुले आम होने लगे, बलवे, दंगे, ख़ून।
संसद में हुड़दंग है, जख़्मी पड़ा सुकून।। 5
एक हाथ में सौंपकर, बहुमत का विश्वास।
संविधान ने ले लिया, तलघर में संन्यास।। 6
ईसाई, सिख, मुसलमां, हरिजन, आदिमजाति।
अगड़ों, पिछड़ों से मिली, इस भारत को ख्याति।। 7
गुण्डागर्दी साफ़ या, गुण्डागर्दी माफ़।
किन गुण्डों के वास्ते, यह झूठा इन्साफ़।। 8
पक्षहीनता ही खड़ी, पक्ष-विपक्षों बीच।
सब जन कचरा खींचकर, उस पर रहे उलीच।। 9
पक्ष एक निष्पक्ष है, पक्ष विपक्ष समक्ष।
अभिमन्यु सा वही घिरा, हो कितना भी दक्ष।। 10
पारस पत्थर काल्पनिक, करे लौह को स्वर्ण।
उस पाले में जो पड़े, बने कुवर्ण सुवर्ण।। 11
रखे सुरक्षित चील भी, चूजे पंखों बीच।
पक्षी मगर विपक्ष के, माने जाते नीच।। 12
किस-किस के ख़ातिर हुए, ख़ाली सब मैदान।
किन 'जयचंदों' से भरे, देखें 'रिक्त-स्थान'।। 13
सब रोड़े बन्दी हुए, सबकी एक कतार।
चुन-चुन सर से टोपियां, बन्दर रहे उतार।। 14
धारदार हथियार सब, हैं दुश्मन के पास।
नित्य निहत्था हो रहा, बस्ती का विश्वास।। 15
अब कुछ हो सकता नहीं, सबके सर तलवार।
जीना है तो चुप रहो, बोले बन्टाढार।। 16
पथ दुर्गम दुस्साध्य है, भीषण वन के बीच।
हिंसक पशु हर चरण पर, पत्थर, कंटक, कीच।। 17
अब बिल्कुल पचती नहीं, झटकेवाली सोच।
जन धन को ठग लूटते, रक्षक के पग मोच।। 18
लोकतंत्र में लोक का, करते हुए विलोप।
जनप्रतिनिधि बिकने लगे, यह संक्रमित प्रकोप।।19
एक हाथ में सौंपकर, बहुमत का विश्वास।
संविधान ने ले लिया, तलघर में संन्यास।। 20
0
@कुमार, 16.04.23
Comments