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जामुन का पेड़ निष्कासित

 1960 की कहानी 
#जामुन_का_पेड़ निष्कासित

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#कृश्नचंदर मेरे प्रिय लेखक रहे हैं। उनकी लेखन शैली, उनकी चुटकियां मुझे अंदर से गुदगुदाती थीं। 

हजारों दीवाने पाठकों की भीड़ में मैं भी दबा हुआ, अपने दुख दर्द, उनकी कहानियां और उपन्यास पढ़कर दूर किया करता था, अकेला होकर भी मुस्कुराता था। वे हमारे जैसों के, दीन, हीन, दुखी, पीड़ित, वंचक, उपेक्षितों के लेखक थे। यह तो बाद में पता चला कि वे एक डॉक्टर के बेटे थे और उस वर्ग के लोगों में वे भी पीड़ित और शोषित थे। 'सफेद मूठ वाला चाकू' उनकी यह पीड़ा बयान करती है। उनके पास अपने वर्ग का आत्मविश्वास था और हमारी यानी सर्वहारा वर्ग की कहानियां लिखकर वे अपनी और हमारी पीड़ा कम कर रहे थे। 

मैंने बचपन में ही उनकी दो बेहद दिल छू लेने वाली कहानियां पढ़ीं। एक 'जामुन का पेड़' और दूसरी 'गूंगे देवता'। दोनों कहानियां 'जामुन का पेड़' नामक कहानी संग्रह में थीं। और भी कहानियाँ थीं, पर ये दोनों मेरे अंदर किसी थक्के की तरह जम गईं थीं। न घुलती थीं न दिल को धड़धड़ाने से रोकतीं थीं। मेरे खून में उनके अंदर होने का अहसास हमेशा बना रहता था। जब भी कोई नाटक लिखता वे उसमें भी घुल जाती थीं। घबराकर मैंने गूंगे देवता और जामुन के पेड़ का नाट्य रूपांतरण किया। एक पंजाबी नाटककार ने भी उसकी तर्ज़ पर एक नुक्कड़ नाटक लिखा, जिसमें जामुन के पेड़ के स्थान पर 'गड्ढे में गिरा आदमी' दरसाया। अखिल भारतीय नुक्कड़ नाटक सम्मेलन भोपाल (1983) में इस नाटक को देखकर मैं इतना कांप गया कि इस नाटक का हिन्दीकरण 'गड्ढे में गिरा आदमी' शीर्षक से किया। विद्रूपताओं को अपनी तरह से इसमें शामिल किया और राजनांदगांव, दुर्ग, भिलाई, राजिम, वारासिवनी अनेक स्थानों में इसके प्रदर्शन बड़ी सफलता पूर्वक किये। महाविद्यालय में प्राध्यापकीय करते हुए इस नाटक को सागर विश्वविद्यालय की राज्य स्तरीय प्रतियोगिता के लिए भेजा। वहां से चिकित्सा महाविद्यालयों, इंजीनियरिंग महाविद्यालयों में तब से अब तक इसे हजारों बार मुझे बताए बिना, बिना मेरा नाम लिए खेला है और लोगों का दिल जीता है। मेरे दिल में जमा ख़ून का थक्का और नमकीन हुआ है। 

आज इसे ख़ून के थक्के को एक धक्का लगा है। पता चला है कि 'जामुन का पेड़' सत्ता संघर्ष में फिर काटकर गिरा दिया गया है। 1960 में लिखी इस कहानी ने सरकारी महकमों की कार्यप्रणाली पर तीख़ी यथार्थवादी चोट की है। वर्तमान समय में यथार्थ चित्रण को सत्ता-भक्त नकारात्मक कहकर नकार रहे हैं। नकारात्मकता के विरुद्ध नकारात्मक कार्यवाही कर रहे हैं। मुझे व्यक्तिगत आघात लगा है। 

जो लोग प्रगतिशील, वामपंथी, साम्यवादी, यथार्थवादी, सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था विरोधी, श्रमिकों और कृषकों के हितैषी, जन विरोधी गतिविधियों के विरोधी हैं, उनको भी इस बात का बुरा लगा होगा। लेकिन हर डरे हुए बुद्धिजीवी की भांति प्रतिक्रिया न करना उनका रक्षात्मक कवच हो सकता है। वे मेरी इस बात पर मौन सकते हैं। 

मुझे एक कविता याद आ रही है..

जब बस्ती में आग लगी 
मैं घर में चुप बैठा था। 

जब पड़ोस में आग लगी 
मैं घर में चुप बैठा था। 

अब मेरा घर जल रहा है
सब चुप बैठे हैं। 

मेरी दुआ है, बचकर चलनेवाले बचे रहें।

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