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Showing posts from March, 2023

नींद : पांच निराकारी दोहे

 नींद : ५ पांच निराकारी दोहे ० सोना जीवनदान है, सोना स्वास्थ्य-निदान। सात घड़ी जो सो सके, उसकी सोना-खान।।१                  नींद बहुत अनमोल है, बढ़ा विश्व बाजार। नींद प्रजा को मुफ़्त में, बांट रहीं सरकार।।२ नींद रोग है, योग है, नींद दवा, उपचार। नींद चैन की ले सकें, चाह रहा संसार।।३ रक्तचाप, अवसाद की, चोट, खोट की जान। क्षत-विक्षत को नींद ही, देती जीवन दान।।४ कुम्भकर्ण की नींद की, बढ़ी आजकल मांग।  शायद इससे छुप सकें, सोंगढ़ियों* के स्वांग।।५                                                     @रा. रामकुमार,              *सोंगढिया(मराठी)= स्वांग गढ़ने वाला,{स्वांग-गढ़िया (हिंदी, तत्सम) से सोंगढिया}, बहुरूपिया,रूप बदलकर आजीविका चलानेवाला,

तेरह दोहे (10+3)

  तेरह दोहे  (10+3) केवल अवगुण देखते, विश्व-गुरू विद्वान। घर-घर जाकर बांटते, जांघ ठोंककर ज्ञान।।१ कतर ब्यौन्त में कुतरता, पर विपक्ष के, पक्ष। विविध कैंचियों से भरा, उसका कुंठित-कक्ष।।२ अपनी जय-जयकार को, केवल, रखें सहेज। अन्यों के गुणगान से, करते हैं परहेज।।३ मार्ग-मरम्मत का लिया, ठेका अपने हाथ। केवल गड्ढे देखकर, मचलें उनके हाथ।।४ स्वयं प्रबंधक कर रहे, सब गड़बड़ियां, शोर। हंगामे का ठीकरा, किसी और की ओर।।५ बढ़ी विषम विद्रूपता, बने सहायक-न्यास। कौशल पर-उपदेश का, अब है सबके पास।।६ बहुत देर सच गोदकर, थका अचानक न्याय। विवश शासकाधीश ने, लिखा शेष-अध्याय।।७ शांत-शुद्ध-रस में मिला, घाल-मेल का घोल। गोल-मोल अनगढ़ हुए, बड़-बोले के बोल।।८ कुछ पूछो, कुछ बोलता, अपराधी चालाक। उड़ा-उड़ा सा तिर रहा, तालों पर तैराक।।९ उद्भट मल्लों को किया, बांध, धांध कर लुप्त। खुला-द्वंद्व घोषित हुआ, वह भी बिल्कुल गुप्त।। १०             @ रा. रामकुमार, १८.०३.२३ , ७.३०, कारागारों में गए, तथाकथित व्यवधान। आगे अगला साल है, सावधान! श्रीमान!!११...

रंग बिरंगी हम सब मछली

 रंग बिरंगी हम सब मछली ० ठहरे पानी, कृत्रिम ओषजन और रोशनी में रंग-बिरंगी हम सब मछली,  कैसी तैर रही हैं?   गिने-चुने पोषक दाने बस, हैं आहार हमारा।  हमें देख खुश होते बच्चे, ही अनमोल सहारा।  आज़ादी की सांसें हमसे,  अब तक ग़ैर रही हैं।  शाम-सुबह, दिन-रात, हमारी दुनिया में हैं कौतुक। आते जाते लोग और हम, दोनों दर्शक, उत्सुक।  नपे-तुले आयत में अपनी,  सारी सैर रही हैं।  बाज़ारों के कलपुर्ज़े हैं, आकर्षण, मन-रंजन। अभिनन्दन, सुस्वागत, वंदन, अंजन, मंडन, भंजन।  अधिकारों की सभी ऋचाएं,  गर्हित-वैर रही हैं। ० @रा. रामकुमार, १६.०३.२०२३, १०.१५,

फिर पलाश फूले हैं।

  फागुन राग सप्तक (परिमार्जित) फिर पलाश फूले हैं।                    (स्वतंत्र मत, जबलपुर, २३ मार्च १९९७) फिर पलाश फूले हैं, फिर फगुनाई है।                मस्ती कब किसके दबाव में आई है! नाज़ उठाती हवा चल रही मतवाली। इतराती है शाख़ नए फूलों वाली। कलियां कब अब संकोचों में आती हैं। गाती हैं विस्फोट का गाना गाती हैं।। पत्ते नए, नए तेवर दिखलाते हैं। पेड़ उन्हें अपने माथे बिठलाते हैं। धूप, ठीक नवयौवन का अभिमान लिए। चूम रही धरती को नए विहान लिए।।            जिधर देखिए उधर वही तो छाई है।।१।।                           मस्ती कब किसके दबाव में आई है! सिकुड़े बैठे शीत के मारे उठ धाये। खेतों की पेड़ों पर ठस के ठस आये। ख़ूब पकी है फसल पसीनावालों की। व्यर्थ गयी मंशा दुकाल की, पालों की।। भाग भाग कहने वाले शरमाये हैं। सिर्फ़ आग के रखवाले गरमाये हैं। गर्मी से जिनका रिश्ता है नेह भरा। खे...

रंगोत्सव_के_बाद

रंगोत्सव के बाद : 'आज का सच' 'कीचड़ होली' ० रंगों में रोगन मिले,   रोगी मिले रुझान। यंत्र-चलित उत्सव-मिलन, लवण रहित पकवान।। दोस्त हवा-आकाश हैं,    दुश्मन हैं चट्टान। हर संकट में हो रहा,   चोट सहित यह ज्ञान।। लज्जा, पश्चाताप, दुख, ग्लानि, खेद,विक्षोभ।  इन बोझों से दूर है,   आत्ममोह, मद, लोभ।। सकारात्मक सोच को,   किया समर्पित वर्ष। किंतु सरलता सूत-सुत, कुटिल-तनय है हर्ष।। रंग-पर्व पर सोमरस,    सुबह, दोपहर, शाम। स्वागत द्वारों पर हुआ,  पुनः अबीर अकाम।। ० @रा. रामकुमार, ०९.०३.२३, गुरुवार, ०९.३३,