एक_राष्ट्रीय_प्रेम_गीत
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#ज़िन्दगी_और_मुहब्बत
(चित्र देखें फिर पढ़ें तो गहराई में उतर जाएंगे)
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बांटने मुहब्बत हम, गांव-गांव जाते हैं।
चल कभी तेरे घर का, कार्यक्रम बनाते हैं।
नेवता नहीं लेते, हम कभी मुरीदों से।
बस पुकार सुनते ही, जा मिलें फ़रीदों से।
याद पांव खुजलाए, तब ही दौड़ जाते हैं।
मुश्किलों में अपने ही, काम आयें अपनों के।
खोल आशियां बैठे, हाट-हाट सपनों के।
दाम कुछ नहीं लेते, मुफ़्त बांट आते हैं।
मजहबों की दीवारें, ऊंच-नीच की खाई।
दूरियां बढ़ाने अब, इक नई वबा आई।
आ कहीं मिलें जाकर, योजना बनाते हैं।
हैं डरे हुए सारे, घर हुए हैं छावनियां।
नूपुरें हुईं बंदी, लापता हैं लावनियां।
अब बिना मिले मित्रगण, दर से लौट जाते हैं।
दर्दनाक क़िस्से भी, रोज़गार बन जाते।
संसदें उछल पड़तीं, मंत्रिपद निकल आते।
हादसों की क़ीमत हो, अधिनियम ये लाते हैं।
शोक पर गिरें आंसू, बाढ़ पर उड़ें आंखें।
आपदा प्रबंधन भी, खोलता नई शाखें।
फिर जघन्य कृत्यों की, जांच भी कराते हैं।
@कुमार, १६.०६.२१, बुधवार।
सरल शब्दों के सरलार्थ :
मुहब्बत مُحَبَّت (अरबी; संज्ञा, स्त्रीलिंग,): सामाजिकों का सामान्य मैत्री भाव, लगाव, प्रेम, ममता,
फ़रीद فرِید (अरबी, विशेषण) सबसे अलग, बेमिसाल, अनुपम, उत्कृष्ट, बेहतरीन, बेजोड़, एकाकी, अकेला, अद्वितीय; (संज्ञा, पुल्लिंग) शेख फरीदुद्दीन की उपाधि जो बच्चों में मिठाई बांटने थे।
आशियाँ آشِیاں (फ़ारसी, संज्ञा, पुल्लिंग) घोंसला, घर, नीड़, आश्रय
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