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रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :

 रामरती का बायाँ पाँव और पुल पर खड़ा कवि :

   (संदर्भ : सुधांशु उपध्य्याय के दस नवगीत )

विशिष्ट वैचारिक संपन्नता के कवि सुधांशु जी के दस नवगीतों से गुजरते हुए उनके पत्रकार की समाज में फैली विद्रूपताओं पर गड़ी नज़रें हमें दिखाई देने लगती हैं। वे बने बनाये छंदों, बिंबों और रूपकों के शिकंजों से मुक्त होकर अपनी अलग लीक बनाते दिखते हैं। अपनी ही  इस मान्यता के साथ कि "समय को स्वर देने के लिए हर कविता अपना शिल्प और स्वाद स्वयं गढ़ती है। वह अपना एकांत खोने और सम्पर्क पाने के लिए छंद से बाहर आती है और नए छंद भी रचती है।"
अपने पहले ही गीत में छंदों के उस इंद्रजाल पर प्रहार करते हुए दिखाई देते हैं जो पिछले कुछ दशकों में मूल मुद्दों से भटकाने वाले छंद आंदोलन के रूप में उभरा है। वे कहते हैं
(1)
बंधु! तुम तो छंद में, उलझे रहे हो, जिंदगी की उलझनों को छोड़कर।
क्रांति कोई, महज इतने से नहीं होती, आस्तीनों को उलट कर- मोड़ कर!
+
एक मात्रा क्या गिरी कि....
गिर पड़ा ये आसमां
हम मिलेंगे कैसे
मुमकिन तुम कहांँ
औ' हम कहांँ?

उनकी बात यहीं ख़त्म नहीं होती। वे निष्कर्ष रूप में कहते कि पुनरोत्थानवादी प्रतिगामी शक्तियां पुनः अपने चक्र को चलाती
हुई, अपने इरादों को पकाने योग्य बर्तन बनाने में लग गयी है। उनके ही शब्दों में..
(1+)
चाक पर फिर
लौट आयी वही मिट्टी
जो घड़ा थी वह
घड़े को फोड़ कर!

उनकी दूसरी कविता सर्वाधिक क्रांतिकारी और उनकी प्रतिनिधि कविता में सर्वोपरि होने के दावे करती दिखाई देती है। वे स्पष्ट और एलानिया कहते हैं कि
 (2)
उस मंजर को
देख रहा हूँ
जो है होने वाला

और इस उद्घोषणा के ठीक बाद वे पुरानी मान्यताओं, रूढ़िवादिताओं पर नारी-मुक्ति के हैंड ग्रेनेड फेंकते हैं..
(2+)
खिड़की तोड़
नया अब सूरज
भीतर आएगा
बादल बंजर धरती पर आ
नदी बिछाएगा
रामरती ने
घर के बाहर
बायाँ पाँव निकाला।

रामरती का यह बायां पांव बाहर क्या निकला कि एक ज़लज़ला सा आ गया। इस बांए पांव को उन्होंने भी देखा जो इसकी ही प्रतीक्षा में थे और उन्होंने भी जो हमेशा इस पांव के बाहर जाने की आशंका से भयभीत थे। कवि को यह सब पता था इसीलिए वह हुंकार भरता हुआ कहता है...

उँगली होंठों पर
रखने से बातें
नहीं रुकेंगी
लोहे की छत
होगी, पर!
बरसातें नहीं रुकेंगी
पाजेबों के
दिन पूरे होते
अब बोलेगा छाला।

और इस गीत के अंत में बड़ी आश्वस्ति के साथ कवि जैसे कविता के सबसे बड़े मंच से साहित्य जगत को यह संदेश देता है:

आवाजों के भीतर से अब चुप्पी बोलेगी।
बहता हुआ पसीना यह पहचान बनाएगा।
आँखों में नमकीन नदी का पानी आएगा।
रामरती की लड़की ने है सूरज नया उछाला।

रामरती के बाएं पांव के बाहर निकलने से लेकर रामरती की लड़की का नया सूरज उछालना अपने आप में क्रांति के महाकाव्य का सृजन है।

तीसरे गीत में देह के चक्रव्यूह का, महाभारत का बुनाव कवि करता है। समकालीन भारत के पास, पासों की शक्ल में, शब्दों के झांसे हैं। कवि के अनुसार (3)
शब्दों से खेल करो भाई

लफ़्जों के कुछ लटके-झटके
धोओ उनको पटक- पटक के

सत्ता की मदान्धता की खिंचाई करते हुए कवि कहते हैं :
(3+)
घर में बिंदिया, काजल खोजो
अंधा सावन बादल खोजो
खोजो- खोजो मिल जायेंगे
मंद बुद्धि औ' पागल खोजो
भूख-प्यास औ' रेप से ज्यादा
चांप कमीशन आधा-आधा
तुमको इनसे क्या मतलब है
देखो कहीं देह गदराई!

रोज-रोज ही बलात्कार है
आह, कराहें, चीत्कार है।
तुम शब्दों के चतुर खिलाड़ी
बन कर रहते बहुत अनाड़ी
ज्यों समुद्र के नीचे रहती
जल में भीगी हुई पहाड़ी
दो टांगों के बीच कबड्डी
टूटी गरदन, रीढ़ की हड्डी,
घास काट कर लौट रही थी
बहुत देर चीखी-चिल्लाई! 
     
अपने चौथे गीत  में  कवि आज के ताज़ा मुहावरे को कान से पकड़कर खींचते दिखाई देते हैं। 'सकारात्मक-सोच' का नारा आज वे दे रहे हैं जिनके मुंह से सदा विरोध और नकारात्मकता का विष निकलता रहा। ज़ाहिर है यह मुद्दों से भटकाने का एक और हथियार है। इस विद्रूपता पर कटाक्ष करते हुए कवि कहते हैं :-
(4)
कठिन समय है
अच्छा सोचें
*
नदी पार गिर रहीं पतंगें
भाग रहा है
बच्चा सोचें!
*
बदबूदार बदन क्यों इतना
पैंट, शर्ट औ'
कच्छा सोचें!       

नवगीतकार कवि सुधांशु के भीतर एक आग है, जिसकी लपटे हैं, जो लगभग सात गीतों में धधकती दिखाई देती हैं।  अपनी बात कहने के लिए कवि ने नए-नए प्रयोग किये हैं जो हर कविता में अलग दिखाई देते हैं।
जैसे  (5)
सच के घंटे
नहीं बोलते
सच की रेतघड़ी होती है!
*
फल के भीतर
पूरा वन है
*
कोलतार
साँसों में पिघले
सोई हुई
सड़क जलती है
*
वहाँ तोड़ कर
दूब निकलती
धरती जहाँ कड़ी होती है!
*
(6)नाखूनों पर पानी रक्खें
*
 (7) कैसे हैं? जैसे थे हम, वैसे हैं!
*
हम हैं चाँद-सफर पर निकले
जेब में फुटकर पैसे हैं!           
(8)
बंद माॅल के पास गुजरना
खालीपन दे जाता है
बिन पानी की नदी अगर हो
उसमें कौन नहाता है
*
जल्द मिलेंगे, ऐसा लगता
लेकिन थोड़ी दूरी से
वह मिलना कुछ ऐसा होगा
हिरन मिले कस्तूरी से

कुलमिलाकर कवि सुधांशु उपध्य्याय एक स्पष्ट मानसिकता, ठोस विचारधारा और नई क्रांतिकारी-दृष्टि के कवि हैं जो भाषा, शिल्प और रूपकों का निर्माण स्वयं करते हुए अपने ही हथियारों के साथ तैयार खड़े हैं। किंतु जैसा वे कहते हैं :"कविता अकेली, अनपढ़ी, अनसुनी होकर जी ही नहीं सकती और तब जीवित रहने के लिए उसे वर्तमान के चरित्र और भविष्य के तैयार हो रहे वितान से होकर गुज़रना होता है। नवगीत इस पुल पर है और आगे भी रहेगा।"

हम देख रहे हैं कि लश्कर चल पड़ा है। रामरती भी बायां पांव बाहर निकाल चुकी है। रामरती की लड़की तक ने नया सूरज उछाल दिया है। इंतज़ार है कुछ और लोगों के कारवां में आकर सम्मिलित होने का। नवगीत के नवनिर्मित पुल पर खड़ा नायक-कवि बस उनकी ही प्रतीक्षा में है।

@ डॉ. राकुमार रामरिया,
9893993403

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