वंदे मातरम् : आज 27 जून है!
भारतीय साहित्य और राजनीति के इतिहास में राय बहादुर बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय का नाम भारतीय गणतंत्र के ध्वज के साथ गरिमापूर्वक फहरा रहा है। प्रत्येक राष्ट्रीय पर्व में सम्मानपूर्वक खड़े होकर हर भारतीय (?) उनका संस्कृत और बंगाली में विरचित राष्ट्रगीत 'वंदेमातरम' गाता है। यह राष्ट्र-गीत तब तक गाया जाता रहेगा जब तक प्रजातांत्रिक भारतीय गणराज्य बना रहेगा। लगभग प्रत्येक भारतीय नागरिक को भारत पर, भारत के राष्ट्र-गीत पर गर्व है।
हम भारत के लोग, जो भारत के प्रजातांत्रिक गणराज्य के अधिकांशतः जन्मजात नागरिक हैं। 'अधिकांशतः जन्मजात नागरिक' कहने का अर्थ यह है कि जो 26 जनवरी 1950 को भारत के स्वतंत्र सार्वभौमिक गणराज्य बनने के बाद पैदा हुए और जन्म से ही यहां के नागरिक कहलाने लगे। 15 अगस्त 1947 के पहले तो सभी ब्रिटिश भारत के वासिंदे थे, रियाया थे, अवाम थे। ब्रिटिश भारत को चलाने में लगान या क़र्ज़ देने के अलावा उनका कोई उपयोग नहीं था।
ऐसे ब्रिटिश-भारत में २७ जून १८३८ को बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय (বঙ্কিমচন্দ্র চট্টোপাধ্যায়) का जन्म उत्तरी चौबीस परगना के कन्थलपाड़ा में एक परंपरागत और समृद्ध बंगाली परिवार में हुआ। यही महापुरुष 'वंदे मातरम्' के रचनाकार है जो हमारे स्वातन्त्रयोत्तर भारत का राष्ट्रगीत बना।
प्रासंगिक बात यही है कि आज 27 जून है, उनका जन्म दिन है, उनकी 183 वीं जयंती है। उनके जन्मवर्ष 1838 का समय भारत ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (जॉन कंपनी) की मंडी था। सत्रहवीं शताब्दी के आरम्भ में अर्थात् 31 दिसम्बर 1600 को ब्रिटिश राजाज्ञा से 1 जनवरी 1601 को भारत पर व्यापारिक शिकंजा कसने ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के लिए कूच हुई। महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम द्वारा 15 सालों की घोषित व्यापारिक अनुज्ञा में आई कंपनी ने अगले 200-250 वर्षों में भारत के लगभग सभी क्षेत्रों पर अपना सैनिक तथा प्रशासनिक आधिपत्य जमा लिया। बंकिमचंद्र महोदय के जन्म के 20 वर्ष बाद ही 1858 में कंपनी महारानी विक्टोरिया की राजशाही के अधीन हो गयी और इसी वर्ष 20 साल की उम्र में बंकिम बाबू प्रथमश्रेणी में बीए पास कर ग्रेजुएट हो गए थे। चूंकि पिता राजकीय प्रशासनिक सेवा में थे अतः पिता की आज्ञा से बंकिमचंद्र भी राजकीय प्रशानिक सेवा में डिप्टी मजिस्ट्रेट हो गए। यह भी तब जबकि बंकिम बाबू ने 1857 का ग़दर देखा था। इस ग़दर के बाद ही भारत की स्वतंत्रता की लड़ाइयां लड़ी जाने लगीं। लंदन में बैठी महारानी के नुमाइंदे भारत सम्हाल रहे थे। अगले 19 वर्ष बाद ही 1876 में महारानी विक्टोरिया भारत की भी महारानी हो गईं। अब तक बंकिम बाबू भी 38 वर्ष के प्रौढ़ हो चुके थे।
विक्टोरिया के भारत की महारानी बनते ही सरकारी कार्यालयों में ब्रिटिश का राष्ट्रीय गीत "लांग लिव द क्वीन" गाना अनिवार्य कर दिया गया। पारम्परिक रूप से यह दुआ 1745 से तत्कालीन राजा के लिए राज्यकीय समारोहों में गाई जाती थी। 1745 में जेंटलेमेंस मैगज़ीन में प्रकाशित यह दुआ तत्कालीन सम्राट जॉर्ज के लिए की गई थी। इसके अनुसार 'हे ईश्वर, हमारे राजा महान जॉर्ज की रक्षा करो। हमारे दयालु राजा चिरंजीव हों। ईश्वर को सुरक्षित रखें, विजयी बनाएं, सुख और भव्यता प्रदान करें। चिरकाल तक हमारे शासक रहें। ईश्वर उनकी रक्षा करें।' इस गीत का आवश्यकतानुसार रानी के लिए अनुदित हो गया। दो रूप ही हैं 'ही ऑर शी' / किंग ऑर क्वीन।
भारतीय मूल के राजपुरुष बंकिमचन्द्र को भी यह आदेश इसलिये खटका क्योंकि यह उनकी जाति और समाज के पक्ष में नहीं था।
परिणामस्वरूप भारत की तत्कालीन सत्ता-माता (महारानी) के प्रच्छन्न विरोध में 1876 में 'मातृ-भक्ति' का यह गीत भारत की प्रतिष्ठित देवभाषा संस्कृत में दो पद में समाहित कर रचा गया.. 'वंदे मातरम्' अर्थात् 'मां की वंदना'।
इसके पहले दो पदों का हिंदी शब्दार्थ इस प्रकार है..
मां वंदन! सुजल, सुफल, सुगन्धित वायु और काली उर्वर भूमि युक्त मां वंदन!!
उज्ज्वल चांदनी से प्रसन्न रात्रि वाली, फूलों से भरे शोभायुक्त पेड़ोंवाली, खुली हंसी और मीठा बोलनेवाली, सुख देनेवाली, श्रेष्ठआनन्द(वर) प्रदान करनेवाली मां, वंदन!!
दूसरा पद बंकिम, जटिल और श्लिष्ट है। कवि कहते हैं कि सप्त कोटि (सात प्रकार, सात समुद्रों) या सात करोड़ कंठों से कल कल कराल निनाद करनेवाली, बहत्तर कोटि भुजाओं में पैने अस्त्र धारण करनेवाली मां! इतना बल पाकर तू किस प्रकार अबला है? बहुल बल धारण करनेवाली, नमन तारण करनेवाली, शत्रुदलों को वार देनेवाली मां वंदन !!२।।
बाद में 1982 में बंकिमचंद्र जी का उपन्यास छपा 'आनंद मठ', इस गीत को उन्होंने 'संन्यासी विद्रोह' के रूप में भूमिगत-गतिविधि करनेवाले संन्यासी-सैनिकों का आधार-गीत बनाया। 'आनन्द मठ' के पृष्ठ 12 में वे चित्रित करते हैं :
अचानक भवानंद ने भिन्न रूप धारण कर लिया।अब वे स्थित-मूर्ति, धीर-प्रवृत्ति संन्यासी न रहे- वह रण-निपुण वीर-मूर्त्ति, अंग्रेज सेनाध्यक्ष का सिर काटनेवाला रुद्र रूप अब न रहा।+++ भवानंद हँसमुख, मुखर, प्रियसंभाषी बन गए और बातचीत के लिए बहुत बेचैन हो उठे।++महेंद्र चुप ही रहे। तब निरुपाय होकर भवानंद ने गाना शुरू किया-
"वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलाम्
मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलाम्
मातरम्।"
महेंद्र गाना सुनकर कुछ आश्चर्य में आये। वे कुछ न समझ सके। +++ उन्होंने पूछा : "यह माता कौन है?"
कोई उत्तर न देकर भवानंद गाते रहे।
"शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्
फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्॥"
महेंद्र बोले :यह तो देश है। यह तो मां नहीं है।
भवानंद ने कहा : हम लोग दूसरी किसी मां को नहीं मानते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। ++ जन्मभूमि ही हमारी जननी है।"
यहां श्री बंकिमचंद्र जी ने इस गीत की मां को भारत रहने दिया और इस बात को प्रमाणित किया कि "गॉड सेव अवर क्वीन" की दुआ (ब्रिटिश नेशनल एंथम) गाने के अध्यादेश के विरोध में रचा यह गीत अपनी जन्मभूमि के प्रति निष्ठा को अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार यह ब्रिटिश सत्ता का प्रतिगामी-गीत संन्यासियों और स्वतंत्रता के राष्ट्रवादियों का उत्प्रेरक गीत बन गया।
सांस्कृतिक या सामाजिक उपन्यास के स्थान पर अपने कथानक के आधार पर राजनैतिक उपन्यास के रूप में मान्यता-प्राप्त उपन्यास "आनन्द मठ" के 12 एवं 13 पृष्ठ में सम्मिलित वंदेमातरम गीत के आरम्भ और उपसंहार सहित 6 पद हैं। अंतर और परम दो पदों की रचना उपन्यास के पूर्व में ही संस्कृत में हो गयी थी और वह 'गॉड सेव अवर गॉड' गाने के ब्रिटिश आदेश के विरुद्ध की गई थी। 1876 में महारानी विक्टोरिया को भारत की भी महारानी घोषित किया गया था और उनके प्रति निष्ठा व्यक्त करना यहां के भी राज्यकर्मियों का दायित्व था। ब्रिटिश शासन में महारानियों की भूमिका 1553 से नौ दिनों की महारानी लेडी लेडी जेन ग्रे (लेडी जेन ग्रे (1536/1537–12 फ़रवरी 1554; शासन 10 जुलाई से 19 जुलाई 1553 ई॰ तक) से लेकर महारानी एल्ज़ाबेथ द्वितीय यानी आजतक बहुत अधिक महत्व की रही है। लेडी जेन ग्रे की राजनैतिक हत्या का बाद ख़ूनी रानी मैरी प्रथम (18 फरवरी 1516–17 नवंबर 1558; शासन 20 जुलाई 1553 से 17 नवंबर 1558 तक ) ने शासन किया। मैरी के बाद उनकी बहन एलिज़ाबेथ प्रथम उर्फ़ कुंवारी रानी या वर्जिन क्वीन, (जन्म: 7 सितम्बर 1533, मृत्यु: 24 मार्च 1603 ; शासन 17 नवम्बर 1558 से 24 मार्च 1603 तक) राज-शासन पर आरूढ़ रहीं। इनके लगभग 86 वर्षों के बाद मैरी द्वितीय (30 अप्रैल 1662 - 28 दिसंबर 1694) ने अपने पति के साथ (1689 से 28 दिसम्बर 1694 तक) सह-शासन किया। मैरी द्वितीय के लगभग सवा सौ साल बाद महारानी विक्टोरिया (अलेक्जेंड्रिना विक्टोरिया; 24 मई 1819 - 22 जनवरी 1901; 20 जून 1837 से 1901) ने अब तक की महारानियों में सबसे ज्यादा 63 वर्ष सात महीने का शासन काल रहा है। अपने किसी भी पूर्ववर्ती राजा या रानी की तुलना में यह 'यूनाइटेड किंगडम' के भीतर औद्योगिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक और सैन्य परिवर्तन का काल था और इसे ब्रिटिश साम्राज्य के एक महान विस्तार के काल के रूप में चिन्हित किया जाता है। अपनी साम्राज्यवादी विस्तार-नीति की योग्यता के कारण ही 1876 में, ब्रिटिश-संसद ने उन्हें 'भारत की महारानी' का अतिरिक्त खिताब दिया। इसीलिए भारत की महारानी के लिए निष्ठावान बनाने की कवायद के तौर पर 'ईश्वर हमारी महारानी की रक्षा करें' के गाने का अध्यादेश आया।
यद्यपि भारत भी ब्रिटेन की भांति रानियों का देश रहा है किन्तु सम्पूर्ण भारत पर एक छत्र राज्य करनेवाली महारानी का अभाव ही था जिसके कारण भारत की भूमि को ही राष्ट्र-देवी बनाकर ही राष्ट्रीयता को जागृत किया गया। उसकी मूर्ति और छबि भी भारत की दिव्य देवियों दुर्गा, सरस्वती, कमला का मिश्रित रूप वर्णित हुआ और उसी की वन्दना भी की गई।
'आनन्दमठ' के प्रकाशन के बाद अर्थात 1882 में यह बात स्पष्ट हो गयी कि
1. संतानों के रूप में संन्यासियों का सैन्य संगठन किसी ऐसे महापुरुष के सूक्ष्म निर्देशन में हुआ जो हिंदुओं के उत्थान के लिए कंपनी के व्यापारी रूप के स्थान पर अंग्रेजी शासन को स्थापित करना चाहता था।
2. उस महापुरुष का मुख्य लक्ष्य मुस्लिमों को नष्ट करना था। बंकिम के महात्मा पृष्ठ 76 में कहते हैं-"तुम्हारा कार्य सिद्ध हो चुका, मुस्लिम राज्य ध्वंस हो गया। अब तुम्हारी यहां कोई ज़रूरत नहीं।"
सत्यानंद :"मुस्लिम राज्य ध्वंस अवश्य हुआ है, किन्तु अभी हिन्दू-राष्ट्र स्थापित हुआ नहीं है। अभी भी कलकत्ते में अंग्रेज प्रबल हैं।"
वे बोले :"अभी हिन्दु-राज्य स्थापित न होगा। तुम्हारे रहने से निरर्थक प्राणी हत्या होगी, अतएव चलो। यह सुनकर सत्यानंद तीव्र मर्म-पीड़ा से कातर हुए, बोले :"प्रभो! यदि हिन्दू राज्य स्थापित न होगा, तो कौन राज्य होगा? क्या फिर मुस्लिम राज्य होगा?
उन्होंने कहा : "नहीं, अब अंग्रेज राज्य होगा।"
2. अपना संगठन चलाने के लिए संतानों या संन्यासियों द्वारा लूटा जाने वाला धन अंग्रजों का राज्य-धन है, सन्यासी सैनानियों ने यह अपराध किया है। ऐसा तर्क देकर संन्यासी संघर्ष के महानिर्देशक महात्मा उन्हें अपराध भावना में डालकर हथियार डालने के लिए उकसाते हैं। महात्मा द्वारा अंग्रेज राज्य होने की घोषणा से सत्यानंद आहत हो जाते हैं। बंकिम पृष्ठ 77 में लिखते हैं " सत्यानंद की आंखों से जलधारा बहने लगी। उन्होंने सामने जननी-जन्मभूमि की प्रतिमा की तरफ देखकर हाथ जोड़कर कहा :" हाय माता! तुम्हारा उद्धार न कर सका। तू फिर म्लेच्छों के हाथों में पड़ेगी। संतानों के अपराधों को क्षमा कर दो मां। रणक्षेत्र में मेरी मृत्यु क्यों न हो गयी।"
महात्मा ने कहा :"सत्यानंद कातर न हो। तुमने बुद्धि विभ्रम में दस्युवृति द्वारा धन संचय कर युद्ध में विजय ली है। पाप का फल कभी अच्छा नहीं होता। अतएव तुम लोग देश का उद्धार नहीं कर सकोगे। और अब जो कुछ होगा, अच्छा होगा। अंग्रेजों के बिना राजा हुए सनातन धर्म का उद्धार नहीं हो सकेगा।
महापुरुषों ने जिस प्रकार समझाया है, मैं उसी प्रकार समझाता हूं- ध्यान देकर सुनो। तैंतीस कोटि देवताओं का पूजन सनातन धर्म नहीं है। वह एक प्रकार का लौकिक निकृष्ट धर्म, म्लेच्छ जिसे हिन्दू धर्म कहते हैं, लुप्त हो गया। प्राकृतिक हिन्दू धर्म ज्ञानात्मक-कार्यात्मक नहीं। जो अंतर्विषयक ज्ञान है वही सनातन धर्म का प्रधान अंग है। लेकिन बिना पहले बहिर्विषयक ज्ञान हुए, अंतर्विषयक ज्ञान असम्भव है। स्थूल देखे बिना सूक्ष्म की पहचान हो ही नहीं सकती। बहुत दिनों से इस देश में बहिर्विषयक ज्ञान लुप्त हो गया है। इसलिए वास्तविक सनातन धर्म का भी लोप हो चुका है। सनातन धर्म के उद्धार के लिए पहले बहिर्विषयक ज्ञान प्रचार की आवश्यकता है। इस देश में इस समय वह बहिर्विषयक ज्ञान नहीं है- सिखानेवाला भी कोई नहीं। अतएव बाहरी देशों से बहिर्विषयक ज्ञान भारत में फिर लाना पड़ेगा। अंग्रेज उस ज्ञान के प्रकांड पंडित हैं- लोक शिक्षा में बड़े पटु हैं। अतः अंग्रेजों के राजा होने से, अंग्रेजी शिक्षा से वह ज्ञान स्वतः वह ज्ञान उत्पन्न होगा। जब तक उस ज्ञान से हिन्दु ज्ञानवान, गुणवान और बलवान न होंगे, अंग्रेज राज्य रहेगा। उस राज्य में प्रजा सुखी होगी, निष्कंटक धर्माचरण होंगे। अंग्रेजों बिना युद्ध किये ही, निरस्त्र होकर मेरे साथ चलो।"
3. सत्यानंद का तथाकथित विभ्रम दूर नहीं होता। अपनी असमर्थता के कारण वह वहीं माता की मूर्ति के सामने आत्मबलिदान करना चाहते हैं, तब सत्यानन्द के इस कथन को महापुरुष अज्ञान कहते हैं और कहते हैं :"चलो पहले ज्ञान-लाभ करो। हिमालय शिखर पर मातृ-मंदिर है। वहीं माता तुम्हें प्रत्यक्ष होगी।"
यह कहकर महापुरुष ने सत्यानंद का हाथ पकड़ लिया। कैसीअपूर्व शोभा थी। उस गंभीर निस्तब्ध रात्रि में विराट चतुर्भुज विष्णु प्रतिभा के सामने दोनों महापुरुष हाथ पकड़े खड़े थे। किसने किसको पकड़ा है? ज्ञान ने भक्ति का हाथ पकड़ा है, धर्म के हाथ में कर्म का हाथ है, विसर्जन ने प्रतिष्ठा का हाथ पकड़ा है। सत्यानंद शांति है- महापुरुष ही कल्याण है-सत्यानन्द प्रतिष्ठा है, महापुरुष विसर्जन है।
विसर्जन ने आकर प्रतिष्ठा का साथ ले लिया। इति// (आनन्दमठ, पृष्ठ 78)
साहित्य के समालोचकों के अनुसार "राष्ट्रीय दृष्टि से 'आनंदमठ' रॉय बहादुर बंकिमचंद्र चटर्जी का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है।"
अंग्रेजों के पक्ष में समाप्त इस उपन्यास पर समालोचक तो यह भी कहते हैं कि "ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बहुत योगदान दिया।"
यहां यह उल्लेखनीय है कि 1963 में बंकिम ब्रिटिश सेवा के अधीन डिप्टी मजिस्ट्रेट एवं डिप्टी कलेक्टर हुए और 1891 में सेवामुक्त हुए। "आनन्दमठ" (1882) उपन्यास के प्रकाशन के 9 वर्ष बाद सेवा मुक्ति के साथ ही उन्हें 1891 में ही ब्रिटेन साम्राज्य की सर्वोच्च उपाधि "रॉय बहादुर" की उपाधि से भी विभूषित किया गया। इसके तीन वर्ष बाद ही 1894 में ब्रिटिश साम्राज्य की सर्वाधिक प्रतिष्ठित पदस्थापना सीएमईओआईई (कम्पेनियन ऑफ़ द मोस्ट एमिनेंट आर्डर ऑफ़ द इंडियन एम्पायर) से नवाज़ा गया। यह उनके व्यक्तित्व का ही कमाल था कि वे भारतीय जनमानस के भी लाडले साहित्यकार रहे और ब्रिटिश साम्राज्य के भी समर्पित राजसेवक। उनकी मृत्यु को इस श्रद्धा के साथ याद किया जाता है :"आधुनिक बंगला साहित्य के राष्ट्रीयता के जनक इस नायक का 8 अप्रैल 1894 को देहांत हो गया।"
और उसी राष्ट्रीयता के जनक महान साहित्यकार रॉय बहादुर बंकिमचंद्र चटर्जी का जन्मदिन है। उनकी स्मृति में 'वंदेमातरम्' कहना
उनको ही नहीं , आज के भारत को भी सम्माननित करना है।
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{इतिहास गवाह है}
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