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प्रथम विज्ञानवादी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की स्मृति में

दूरस्थ दीपक
*
दूर जलता हुआ एक दीपक मुझे
ज़िंदगी बनके छलता रहा आज तक।
एक दिन सब अंधेरे संवर जाएंगे
बस यही सोच जलता रहा आज तक।

नाम अज्ञात का किससे मैं पूछता
लापता का पता मैं बताता किसे।
यूं अपरिचित नगर से गुजरते हुए
आत्म-भू नींद से अब जगाता किसे।
बीहड़ों बंजरों में भटकता रहा
धूप में ही पिघलता रहा आज तक।

गांव के बाग़ सब खेत-खलिहान तक
बिक चुके थे या अधिया-बंटैतों के थे।
वो नयन जिनमें आकाश के स्वप्न थे
मन रहित तन से बंधुआ लठैतों के थे।
याद का अंगरखा ठूंठ पर था फंसा
आंधियों में मचलता रहा आज तक।

अनमने मौसमों से मिली चिट्टियां
उनमें ऋतुओं के आंसू थे काजल घुले।
अनछुए पल के पहिने उतारे हुए
आह के कुछ वसन थे सभी अनधुले।
घाट आहत समय ले गया भींचने
आप जल में ही' गलता रहा आज तक।

@कुमार वेणु, २७.०५.२०२०, बुधवार, ३.नवतपा, ज.ला.ने. पुण्यतिथि

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