*मजदूरों के आयन-पलायन से क्षुब्ध होकर*
तुम मजबूरी के महलों में, हम आवारा सड़कों पर
भारी मन से गुजर जाएंगी ये सांसें आती-जाती ।
मृगतृष्णा निकली हर तृष्णा, रेत-घरौंदा हर कोशिश।
लू-सी लिपट गयी पांवों से, बारहमासा-सी बंदिश।
ऋतु-परिवर्तन बहुत दूर ही वायुयान सा झलके है
सूने नभ पर खुली पड़ी है, मौसम की कोरी पाती।
बचपन को भी लगा बचपना, अपना हंसी-खुशी का खेल।
किलकारी पर चढ़ी लपककर, तिक्त भर्त्स्नाओं की बेल।
आंगन फूल-फलों से वंचित, घर अन्तस-सा स्वजन विहीन
केवल अपनी धड़कन सुनकर, पिचके-फूले हैं छाती।
अगल बगल से निकल गईं सब, रंग-बिरंगी तस्वीरें।
अपने लिए नहीं थीं जायज़, वे शीरीं, लैला, हीरें।
हम फरहाद नहीं हैं लेकिन, पथ के पर्वत तोड़ रहे
दूध-नदी के बदले हम तक, धूसर आंधी ही आती।
लचका, पेज, भभूदर, आलू, नून-गोंदरी, दो रोटी।
हाथ-पांव की गांठों में है, जिनगानी झीनी मोटी।
देस छोड़ परदेस बिहरती, जीने की मरघुल आसा
बिना तेल के मिच-मिच आंखें, जलें, करें दीया-बाती।
@कुमार वेणु, १४.०५.२०२०, शाम ०५.५४
तुम मजबूरी के महलों में, हम आवारा सड़कों पर
भारी मन से गुजर जाएंगी ये सांसें आती-जाती ।
मृगतृष्णा निकली हर तृष्णा, रेत-घरौंदा हर कोशिश।
लू-सी लिपट गयी पांवों से, बारहमासा-सी बंदिश।
ऋतु-परिवर्तन बहुत दूर ही वायुयान सा झलके है
सूने नभ पर खुली पड़ी है, मौसम की कोरी पाती।
बचपन को भी लगा बचपना, अपना हंसी-खुशी का खेल।
किलकारी पर चढ़ी लपककर, तिक्त भर्त्स्नाओं की बेल।
आंगन फूल-फलों से वंचित, घर अन्तस-सा स्वजन विहीन
केवल अपनी धड़कन सुनकर, पिचके-फूले हैं छाती।
अगल बगल से निकल गईं सब, रंग-बिरंगी तस्वीरें।
अपने लिए नहीं थीं जायज़, वे शीरीं, लैला, हीरें।
हम फरहाद नहीं हैं लेकिन, पथ के पर्वत तोड़ रहे
दूध-नदी के बदले हम तक, धूसर आंधी ही आती।
लचका, पेज, भभूदर, आलू, नून-गोंदरी, दो रोटी।
हाथ-पांव की गांठों में है, जिनगानी झीनी मोटी।
देस छोड़ परदेस बिहरती, जीने की मरघुल आसा
बिना तेल के मिच-मिच आंखें, जलें, करें दीया-बाती।
@कुमार वेणु, १४.०५.२०२०, शाम ०५.५४
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