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अवकाश पर बसंत और रवींद्रनाथ टैगोर : जन्म तिथि पर विशेष


आज *जन गण मन अधिनायक*(भारत का राष्ट्रगान) और *आमार सोनार बांग्ला देश*(बांग्ला देश का राष्ट्रगान) के महान गीतकार *कविवर रवींद्रनाथ टैगोर* का जन्म दिन है।

उन्हें याद करते हुए गीतांजलि के कई गीत गूंज रहे हैं। किंतु एक गीत सहसा ध्यान खींचता है।

गीतांजलि के 21 वें गीत के दूसरे पद में कविगुरु कहते हैं-
फोटानो सारा करे, बसन्त जे गेले सरे
निये झरा फुलेल डाला, बलो की करी?
अर्थात बसन्त अपने पुष्पित करने का काम करके जा चुका है। अब डालियों से फूल झर रहे हैं, बोलो क्या करना है।
रवींद्र पूछते हैं कि पतझर यानी मुसीबतों में हमारी क्या जिम्मेदारी है।

आज कविकुलगुरु रवीन्द्र की जन्म तिथि है। मुझे लगता है आज उनका यह गीत प्रासंगिक है। आज से कोई 8 वर्ष पहले मैंने मेहबूबाबाद वारंगल आंध्रप्रदेश से गुजरते हुए ट्रैन में ही यह छायानुवाद पूरा किया था।

यह गीत, गुरुदेव रवींद्र के गीत और अनुवाद के दीपस्तंभ की छाया में उनको मेरी श्रद्धांजलि है।

गीतांजलि : गीत 21, कविवर रवींद्र नाथ टैगोर
*
(मूल बंगाली पाठ)

एबार भासिये दिते हबे, आमार एइ तरी
तीरे वसे जाय जे बेला, मरि गो मरि

फुल फोटानो सारा करे, बसन्त जे गेले सरे
निये झरा फुलेल डाला, बलो की करी?

जल उठेछे छलछलिये, टेउ उठेछे देले
मर्मरिये झरे पाता बिजन तरुमूले

शुन्यमने कोथाय ताकास
सकल वातास सकल आकाश

ऐ पारेर ऐ बांसिर सुर उठे शिहरि।

English translation by Taigor himself:

I must launch out my boat. The languid hours pass by on the shore-- Alas for me.
The spring has done its flowering and taken leave. And now with the burden of faded futile flowers I wait and linger.
The waves have become clamorous, and upon the bank in the shady lane the yellow leaves flutter and fall.
What emptiness do you gaze upon? Do you not feel a thrill passing through the air with the notes of the far-away song floating from the other shore.
*
(हिंदी छायानुवाद गीत: डॉ.रा.रा.कुमार, गीतांजली गीत क्रम 21)
*
*अधूरा रह गया श्रृंगार*
.
अब लगेगी, देखना, मेरी तरणिका पार।
भर चुका है, धैर्य का तट, विकट पारावार।

कर गया पुष्पित धरा को, रंग से भरकर।
हवा निकली, भरी डाली रह गयी झरकर।
यह चला फागुन, अधूरा रह गया श्रृंगार।

छलछलाती बह रही सरिता सशंकित सी।
पात पतिता पेड़ की जड़ है प्रकम्पित सी।
कितना दुख देगा हमें पतझर अरे इस बार।

शून्य मन से किसे तकते हैं नयन पगले।
शून्य है आकाश ऊबे पल हैं सब अगले।
शून्य में हैं किंतु अद्भुत वंशी सुर-संचार।

@कुमार, २७.०७.२०१२, ०९.३०,
मेहबूबाबाद, वारंगल (आंध्रप्रदेश)



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