एक अद्भुत विरहावली समर्थ शायरा #अर्चना_पाठक_अर्चिता से प्राप्त हुुुई है। यह विरहावली प्रिय #शशिरंजन_शुक्ल_सेतु के अनुजवत #शिवदत्त_द्विवेदी_द्विज ने विरहाकुल क्रोंच की पीड़ा पीकर रची है और अपने अनुज पर अनुग्रह करते हुये मथुरानंदन की व्याकुलता में तैरते हुए #शशिरंजन_शुक्ल_सेतु ने इसे मधुर स्वर प्रदान किया है।
{अवधेश को भी वैदेही के विछोह का दारुण दुख था, तभी तो वे अस्त-व्यस्त से पूछ रहे थे...
हे खग, मृग, हे मधुकर-श्रेनी।
देखी तुम सीता मृग-नैनी?
किन्तु मिलन और विरह, अधिकांशतः मथुरा और बरसाने तक ही सिमटा हुआ है और मर्यादा के कारण उसे मिथिला और अवध में प्रवेश न मिल सका। किन्तु प्रिय #द्विज के एक पद में जानकी का विसर्जन सम्मिलित है, इसलिए #कदाचित अन्याय होगा यदि साकेत को विरह से #किंचित भी अलग रखा गया। ज्येष्ठ दासरथ को भी ध्यान में रखकर यह गीत। पढ़ें।)
{अवधेश को भी वैदेही के विछोह का दारुण दुख था, तभी तो वे अस्त-व्यस्त से पूछ रहे थे...
हे खग, मृग, हे मधुकर-श्रेनी।
देखी तुम सीता मृग-नैनी?
किन्तु मिलन और विरह, अधिकांशतः मथुरा और बरसाने तक ही सिमटा हुआ है और मर्यादा के कारण उसे मिथिला और अवध में प्रवेश न मिल सका। किन्तु प्रिय #द्विज के एक पद में जानकी का विसर्जन सम्मिलित है, इसलिए #कदाचित अन्याय होगा यदि साकेत को विरह से #किंचित भी अलग रखा गया। ज्येष्ठ दासरथ को भी ध्यान में रखकर यह गीत। पढ़ें।)
पढें.
*#तुम्हारे_बिना* (10 मुक्तक मनके)
२१२ २१२ २१२ २१२
२१२ २१२ २१२ २१२
हम उपेक्षित, अवाचित तुम्हारे बिना।
हर जगह हम अयाचित तुम्हारे बिना।
आज हमको सभी पूछते अन्यथा,
हम थे किंचित-कदाचित तुम्हारे बिना।
हर जगह हम अयाचित तुम्हारे बिना।
आज हमको सभी पूछते अन्यथा,
हम थे किंचित-कदाचित तुम्हारे बिना।
हम सदी से न सोए तुम्हारे बिना।
गीत ने अर्थ खोए तुम्हारे बिना।
यह उमर जिसमें जीते हैं उन्मुक्त सब,
हमने प्रतिबंध ढोये तुम्हारे बिना।
गीत ने अर्थ खोए तुम्हारे बिना।
यह उमर जिसमें जीते हैं उन्मुक्त सब,
हमने प्रतिबंध ढोये तुम्हारे बिना।
मन न इक पल बहलता तुम्हारे बिना।
मुझको हर स्वप्न छलता तुम्हारे बिना।
धैर्य मानो अबेला सा पाहुन हुआ,
क्षण प्रतिक्षण चपलता तुम्हारे बिना।
मुझको हर स्वप्न छलता तुम्हारे बिना।
धैर्य मानो अबेला सा पाहुन हुआ,
क्षण प्रतिक्षण चपलता तुम्हारे बिना।
ओढ़ आकाश जगता तुम्हारे बिना।
मैं नहीं मैं हूँ लगता तुम्हारे बिना।
झर गए सब रजत-स्वप्न पाले हुए,
एक जीवन सुलगता तुम्हारे बिना।
मैं नहीं मैं हूँ लगता तुम्हारे बिना।
झर गए सब रजत-स्वप्न पाले हुए,
एक जीवन सुलगता तुम्हारे बिना।
व्यंजनाएं तिरस्कृत तुम्हारे बिना।
वर्जनाएं पुरस्कृत तुम्हारे बिना।
इस समय यज्ञ में हवि तो देनी ही थी,
हो गयी ज़िंदगी घृत तुम्हारे बिना।
वर्जनाएं पुरस्कृत तुम्हारे बिना।
इस समय यज्ञ में हवि तो देनी ही थी,
हो गयी ज़िंदगी घृत तुम्हारे बिना।
सब विफल प्रार्थनाएं तुम्हारे बिना।
कैसे हैं, क्या बताएं तुम्हारे बिना।
देख लो हाथ रखकर हृदय पर मेरे,
मर गईं भावनाएं तुम्हारे बिना।
कैसे हैं, क्या बताएं तुम्हारे बिना।
देख लो हाथ रखकर हृदय पर मेरे,
मर गईं भावनाएं तुम्हारे बिना।
क्रोंच का दीन क्रन्दन तुम्हारे बिना।
जानकी का विसर्जन तुम्हारे बिना।
वेग, आवेग, संवेग सब जड़ हुए,
है ये अभिशप्त जीवन तुम्हारे बिना।
जानकी का विसर्जन तुम्हारे बिना।
वेग, आवेग, संवेग सब जड़ हुए,
है ये अभिशप्त जीवन तुम्हारे बिना।
हर तपस्या विफल है तुम्हारे बिना।
आज ऋतु में अनल है तुम्हारे बिना।
इक उफनती नदी बीच मानव की ज्यों,
रेत के हम महल हैं तुम्हारे बिना।
आज ऋतु में अनल है तुम्हारे बिना।
इक उफनती नदी बीच मानव की ज्यों,
रेत के हम महल हैं तुम्हारे बिना।
भूख की व्यंजना हम तुम्हारे बिना।
इक करुण रंजना हम तुम्हारे बिना।
बांधकर अश्रु चुपके से हम चल दिये,
हर जगह से मना हम तुम्हारे बिना।
इक करुण रंजना हम तुम्हारे बिना।
बांधकर अश्रु चुपके से हम चल दिये,
हर जगह से मना हम तुम्हारे बिना।
एक वीरान ज्यों हम तुम्हारे बिना।
रेत पर नाव ज्यों हम तुम्हारे बिना।
अपने अस्तित्व पर प्रश्न करते हैं हम,
आज जीवित हैं क्यों हम तुम्हारे बिना।
रेत पर नाव ज्यों हम तुम्हारे बिना।
अपने अस्तित्व पर प्रश्न करते हैं हम,
आज जीवित हैं क्यों हम तुम्हारे बिना।
-#शिवदत्त_द्विवेदी_द्विज,
Comments
अनायास ही अनुज "शशिरंजन शुक्ल" ने मात्रभाषा हिंदी के लाल उत्कृष्ट रचनाकार शिवदत्त द्विवेदी "द्विज" का विरह गीत अपनी आवाज़ में मुझे प्रेषित किया..मैं उसे जी रही थी सो मुझे आपसे बेहतर कोई नहीं लगा जिसे मैं इतनी महान रचना भेजती ...आपका आशीर्वाद पाना लक्ष्य था सो पूर्ण हुआ🙏
मुझ जैसे के शुष्क कंठ में काव्यमृत की बूंदें पड़ गईं, यह क्या किम् है।
आते रहना, मरुद्यान को भी कदाचित यदा कदा अभिसिंचन की आवश्यकता होती ही है।
मुझ जैसे के शुष्क कंठ में काव्यमृत की बूंदें पड़ गईं, यह क्या कम है।
आते रहना, मरुद्यान को भी कदाचित यदा कदा अभिसिंचन की आवश्यकता होती ही है।