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गीत : क्यों पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करें। *

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नया गीत : क्यों पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करें।
                   **
आओ, बैठो, कुछ बात करें।
**
हर रोज़ बदलती है दुनिया, दुनिया का दिल हर दिन बदले।
हर पल पूरब-पश्चिम बदले, हर क्षण उत्तर-दक्षिण बदले।
अक्षर का क्षरण हुआ जारी, शब्दों के अर्थ निरर्थ हुए।
कुछ वाक्य तीर-से निकल गए, कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट हो व्यर्थ हुए।
इस परिवर्तन को क्या मानें?
इस समीकरण को क्या समझें?
क्या मांग समय की कहती है, कुछ पल ठहरें, विश्राम करें।
उद्विग्न मनस को शांत करें।
आओ, बैठो, कुछ बात करें।

००.
हर नीरव शांत जलाशय पर, कंकर फेंकें, संवाद करें।
शायद हलचल हो, हल निकलें, जिनका लहरें अनुवाद करें।
कुछ नीलकमल, कुछ श्वेतकमल, कुछ स्वर्णकमल के भाव खुलें।
कुछ आंखों के संताप मिटें, कुछ मन के सूखे घाव खुलें।
कुछ मिले तटों को फिर आहट,
फिर प्यासों को जल-घाट मिलें,
जो पंछी चहक समेट गए, वे लौटें, पुनरावास करें।
फिर भूली बिसरी बात करें।
आओ, बैठो, कुछ बात करें।

**
क्यों संबंधों के बंधन में, ढीलापन है, उकताहट है?
क्यों गांठों में खुल जाने की, जल्दी है, छोड़ो की रट है?
क्यों अपनों में बिखराव बढ़ा, अलगाव बढ़ा, मतभेद बढ़ा?
क्यों वाह-वाह अफवाह हुई, क्यों कुशल-क्षेम में खेद बढ़ा?
अब अवसादों की जांच करें,
उनका कुछ सफल निदान करें,
फिर वातावरण निरोग बने, फिर मन का स्वस्थ विकास करें।
क्यों पीढ़ी को दिग्भ्रान्त करें।
आओ, बैठो, कुछ बात करें।
००.
@ कुमार, १९.०१.२०२०, रविवार, प्रातः 5.30,

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