गीत-गुरु पद्म भूषण नीरज जी को श्रद्धांजली :
*गीत-नीरज* :
जीत के न हार के, गीत लिखूं प्यार के।
जिंदगी खिला सके उसी युवा बहार के।
शब्द शब्द जी सकूँ, कि छंद-छंद गा सकूं,
मैं मधुर मिठास के लिए खटास पी रहा।
मौसमों की आंख में बसन्त के सपन बुनूं।
कंटकों की भीड़ से मैं फूल रेशमी चुनूं।
पंखुड़ी को सौंपकर तपन तड़प की, प्यास की।
मैं हवा में घोल दूं सुगंध मुक्त-हास की।
सांस-सांस में घुलूं, उदासियों को छल सकूं,
मैं अंधेरी रात में जीकर उजास पी रहा।
चोट चाहतों की चादरों में चांपकर रखूं।
जख्म जिस्म के न दिख सकें यूँ ढाँपकर रखूं।
नफ़रतें मिलें तो उनको दिल से दूर-दूर कर।
खुद को मैं रखूं खुशी की खुश्बुओं से तरबतर।
आंगनों खिली-खिली, गली-गली घुली-मिली,
बाग-बाग जो फिरे मैं वो बतास पी रहा।
संगठित हुए हैं जो किसी के सर्वनाश को।
मुट्ठियों में बांधना वो चाहते प्रकाश को।
मैं कभी पुरवा, कभी पछवा हवा होकर बहूं।
क्यों किसी के डर से अपने मन को मारकर रहूं।
जंगलों की आग है, जो दहकता फाग है,
मैं पुलकते उस पलास का हुलास पी रहा।
¥
@कुमार,
6.1.2020, 202, दूसरा तल्ला, किंग्स कैसल रेसीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव-बालाघाट.
*गीत-नीरज* :
जीत के न हार के, गीत लिखूं प्यार के।
जिंदगी खिला सके उसी युवा बहार के।
शब्द शब्द जी सकूँ, कि छंद-छंद गा सकूं,
मैं मधुर मिठास के लिए खटास पी रहा।
मौसमों की आंख में बसन्त के सपन बुनूं।
कंटकों की भीड़ से मैं फूल रेशमी चुनूं।
पंखुड़ी को सौंपकर तपन तड़प की, प्यास की।
मैं हवा में घोल दूं सुगंध मुक्त-हास की।
सांस-सांस में घुलूं, उदासियों को छल सकूं,
मैं अंधेरी रात में जीकर उजास पी रहा।
चोट चाहतों की चादरों में चांपकर रखूं।
जख्म जिस्म के न दिख सकें यूँ ढाँपकर रखूं।
नफ़रतें मिलें तो उनको दिल से दूर-दूर कर।
खुद को मैं रखूं खुशी की खुश्बुओं से तरबतर।
आंगनों खिली-खिली, गली-गली घुली-मिली,
बाग-बाग जो फिरे मैं वो बतास पी रहा।
संगठित हुए हैं जो किसी के सर्वनाश को।
मुट्ठियों में बांधना वो चाहते प्रकाश को।
मैं कभी पुरवा, कभी पछवा हवा होकर बहूं।
क्यों किसी के डर से अपने मन को मारकर रहूं।
जंगलों की आग है, जो दहकता फाग है,
मैं पुलकते उस पलास का हुलास पी रहा।
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@कुमार,
6.1.2020, 202, दूसरा तल्ला, किंग्स कैसल रेसीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव-बालाघाट.
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