मेहनतकशों की 'पूजा' : मंजूरानी सिंह
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आज अंतरराष्ट्रीय मज़दूर दिवस है। मेहनतकशों का दिन। आज अनेक राजनैतिक दलों के मजदूर संगठन अपने अपने तरीके से मजदूरों को लुभाने के लिए इस दिन को मनाएंगे। कुछ राजनीतिक दल मनुष्यों को बांटने का काम करते हैं । जातियों में, भाषा में, प्रान्त में, धार्मिक उन्माद में। कोई कोई दल अपनी स्तरहीन सोच से बनाये हुए एजेंडों से आज देश को दिशाहीन,पथभ्रष्ट, शक्तिहीन और संगठन-विहीन कर दिया है।
दुर्भाग्य से कुछ वर्षों से हिन्दू मुस्लिम, दलित पिछड़ों और सवर्णों के बीच खाइयां बढ़ा देनेवाली मानसिकता को अवसर भी मिला है और उन्मत्त बुद्धिहीन नौजवानों, नवयुवतियों, बुजुर्गों का उन्हें समर्थन हासिल करने में सफलता भी मिली है। यह अंदर ही अंदर देश को विभाजित कर कुछ वर्गों को परंपरागत ढंग से सुदीर्घकालीन सुविधाएं, अभयदान और बैठे ठाले मजदूर वर्ग के शोषण का चक्र चलाये रखने की कोशिशों को मिलनेवाला प्रतिसाद ही है।
मेरे हाथों में इन दिनों एक पुस्तक है। डॉ. आरके सिंह कुलपति सरदार पटेल विश्वविद्यालय, बालाघाट द्वारा अध्ययन हेतु प्राप्त इस संस्मरणात्मक पुस्तक का नाम है "शांति निकेतन : दरस परस'। इस पुस्तक में संकलित 'मेहनतकशों की पूजा' शीर्षक 9 वें निबंध को मैंने 26 अप्रैल को पढ़ा था। इस किताब के शीर्षक ने मुझे आकर्षित किया और अपनी आवश्यकतानुरूप तथा युगीन माँगानुकूल कुछ बातें मैंने उद्धृत कर लीं। जो आज भी प्रासंगिक है।
प्रस्तुत हैं वे उद्धरण जो देश के मूल्यहीन हो गए वातावरण में बहुमूल्य हैं-
{उद्धरणों को पढ़ते समय देश काल और वातावरण का ध्यान अवश्य रखें। अपने को विचारशील बनाये रखने और बचाये रखने के लिए यह आवश्यक है।}
1. मणि, जयंत, बाबू और नव आसपास ही बैठते हैं अपनी अपनी दुकान लिए. वे सब्जी और फल बेचते है.पन्द्रह सोलह वर्षो से इनसे समान लेने का अनुभव है. इनमें मणि और बाबू मुस्लिम हैं, यह बिल्कुल हाल में पता लगा जब उन्होंने अपने विवाह का कार्ड दिया. तानी-भरनी की तरह गुंथी हुई जातियों और धर्मों से बना हुआ है समाज, और व्यवस्थित ही है, यह छबि जगह जगह बनती है.
2. पूजा पण्डाल में मेरी नज़र रोज, मिया, कासिम और करामत पर पड़ी. कोई राजमिस्त्री है, कोई मजदूर.ये सभीअपने अपने बच्चों सहित पूजा देखने आये थे. प्रसन्न और उल्लसित चेहरों की भीड़ में मुस्लिम के रूप में इनके चेहरे को छांटना संभव नहीं था. दो तीन दिनों पहले बागवानी के लिए दो मजदूरों को खबर भिजवाई थी, उन्होंने कहला भेजा कि "अब पूजा के बाद ही आएंगे." जानकारी मिली कि पूजा सबके लिए है. सभी अपने यार-दोस्तों के साथ घूमते हैं. बड़ी मिन्नतों के बाद करामत आया. उसने काम किया, पर मजदूरी दो दिन बाद लेने की बात की. कहा 'जिस दिन मेला जाएंगे उसी दिनन लेंगे वरना खरच हो जाएगा.'
"कौन से मेला?" पूछने पर उसने बताया - "पूजा का मेला"
"तुम लोग जाते हो मेले?"
बाबा? जाबो न केनो?सोब बोन्धु-बांधव मील खूब मौज कोरी. न जोदी जय, बच्चारा की मानबे?"
(बाबा? जाऊंगा क्यों नहीं?सभी बंधु बांधव मिलकर मजा करते हैं. यदि न जॉन तो बच्चे क्या मानेंगे?") मैंने राहत की सांस ली.
3. सचमुच कितना मुश्किल है बच्चों को यह भेदभाव समझाना.एक ही मोहल्ला,एक ही सड़क, एक ही स्कूल, एक खेल-कूद.इस सहज स्वाभाविक एक को तोड़ने-भागने की कोशिश नहीं कर रहा यह अनपढ़ मजदूर, अपने बच्चों में साम्प्रदायिक भेदभाव का विष वमन नहीं कर रहा वह.
4.पंडाल में संध्या पूजन और आरती का आयोजन जारी था. स्त्री-पुरुष प्रसाद का थल मंदिर में समर्पित कर स्तुति की मुद्रा में खड़े थे. मुखोपाध्याय जी यदि देवी आरती उतार रहे थे तो भट्टाचार्य और जहांगीर भी मिलकर अभ्यागतों को अभिनंदन जता रहे थे. कौन कह सकता था कि मोरपंखी कलगी माथे में लगाए-सजाए, डोल-ढाक और घंटे बजानेवाले दल मुस्लिम थे. ये तो सब लोक कलाकार थे, परंपरा को जीवित रखने वाले.
@ शांति निकेतन दरस परस, डॉ. मंजुरानी सिंह, विश्वभारती, पश्चिमी बंगाल, पृष्ठ : 40-41,क
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