Skip to main content

किन्नर






बात कोई साल भर पहले की है।
मैं शाम की गाड़ी से नैनपुर से बालाघाट लौट रहा हूं। जंगल की रमणीय वादियों का लुत्फ़ लेता हुआ मैं इस कदर खुश हूं जैसे हवाएं अपनी नरम और ठण्डी हथेलियों से मेरा दुलार कर रहीं हों।
नगरवाड़ा से नैरोगेज पैसेन्जर आगे बढ़ी। मैंने देखा कि डिब्बे में एक किन्नर चढ़ गया है। उसकी उम्र कोई बीस पच्चीस की होगी। पुता हुआ चेहरा, लिपस्टिक और मुड़े निचुड़े से सलवार कुर्तें में उसने अपने को आकर्षक बनाने का भरपूर प्रयास किया है। स्लिम होने से इस प्रयास में वह काफ़ी हद तक सफल भी है।
उसने अपने बाल संवारे और अपने बाएं हाथ की उंगलियों में दस दस कि नोट फंसाकर प्रति व्यक्ति दस के हिसाब से वसूली करने लगा। यहां मुझे गरम हवा का पहला झौंका लगा।
अक्सर किन्नर किसी त्यौहार के बाद साल में एक दो बार घर घर उगाही, जिसे सांस्कृतिक तौर पर बिरत कहते हैं, में निकलते हैं। किन्तु पिछले अनेक सालों से ब्राडगेज में पैसों की वसूली का यह जबरिया खेल शुरू हो गया था। हफ्ता वसूली पहले ठेकेदारों के नाम पर हुआ। फिर ठेकेदारों के स्थान पर उनके नुमाइंदे ये काम करने लगे। बाद में उनकी तर्ज पर गुण्डों ने धौंस के दम पर यह काम किया और जैसा कि सुनते हैं और फिल्मों में देखते हैं कि सुरक्षा के नाम पर पुलिसवालों ने हफ्ता वसूलना शुरू किया।
बड़े शहरों से यह बीमारी छोटे कस्बों में फैली और सारा देश इसकी गिरफ्त में आ गया।
किन्नरों का जीवन भी समाज के इसी देय पर चलत रहा है। इस देश में कमजोरों, निर्धनों, दरिद्रों, भिक्षुकों, असहाय, अपाहिजों, वक्त के मारों और प्रकृति के मारों का समाज ऐसे ही मदद कर पुण्य कमाते रहा है।
किन्नर वह स्त्री अथवा पुरुष जिस पर प्रकृति ने पूरा योगदान नहीं किया है। अंधे, लंगड़े, लूले, कोढ़ी, अविकसित हाथ पैरों आदि के साथ साथ अद्धविकसित या अविकसित मनमस्तिष्क वाले लोगों की भांति किन्नर भी विकलांग कोटि के ‘व्यक्ति’ हैं।
कहते हैं प्रकृति किसी को अधूरा या अनाथ नहीं छोड़ती। जिन्हें विकलांग बनाती हैं, उन्हें कोई ना कोई हुनर वह अवश्य दे देती है। ऐसे अनेक उदाहरण समाज में देखने मिल जाते हैं।
किन्नरों ने नाच गाकर समाज की सहानुभूति और दानवृत्ति के माध्यम से अपनी रोजी रोटी चलानी शुरू कर दी। पहले पहले समाज के साथ इनका रवैया बड़ा उत्सववादी रहा। जब जब किसी के घर खुशी का माहौल बनता ये बधाइयां देते और उपहार पाते। शादी विवाह, जन्म के प्रसंग, दीपावली होली आदि के प्रसंगों में लोग हंसी खुशी इन्हें पैसे कपड़े इत्यादि देकर अपनी संभ्राति का परिचय देते।
परन्तु परम्परा और मानवीयता को अक्सर लोभ और मुनाफ़े के लिए कुछ नकारात्मक और नकारा लोगों ने अपना अधिकार समझ लिया तथा जबरिया वसूली को अपना धंधा बना लिया। बाहुबलियों और नकारा लोगों ने मानव-दयालुता को कमाई का जरिया बना लिया और उन्होंने इन ‘विशेष व्यक्तियों (special person ) के माध्यम से अपना नेटवर्क चलाना आरंभ कर दिया। समाज की दया-वर्ग के सरदार हो गए और अपने अपने क्षेत्र हो गए।
पिछले बीस तीस सालों में किन्नरों का संगठन लगातार गतिशील हुआ है। समाज के कतिपय भाव भीरू और धर्मभीरू लोगों ने किन्नरों के बारे में यह धारणा बना रखी है कि यदि इनका दिल दुखाया तो ये श्राप दे देंगे, जो खाली नहीं जाएगा।
इसी भयादोहन के कारण ये हावी हैं। मैं देख रहा था कि बिना ना नुकुर के हर पुरुष चुपचाप दस दस के नोट उस किन्नर को दे रहा था। वह किन्नर स्त्रियों से वसूली नहीं कर रहा था। वह हर युवा पुरुष से हंसी मजाक कर रहा था और रुपये लेकर हाथों में सजा रहा था।
मैंने अपने बगल बैठे लोगों से पूछा:-‘‘आज क्या है? यह किस बात के पैसे ले रहा है?’’
‘‘रोज का काम है साब! हम तो रोज ही देखते हैं।’
‘‘ये अकेला है या टीम है इनकी।’’
‘‘अकेला है। बालाघाट का है। नैनपुर कमाने जाता है। लौटते में उगाही। आना जाना फ्री। ’
‘‘कोई कुछ कहता नहीं?’’
‘‘कौन इनके मुंह लगे? बड़ी ग्रदी गंदी बातें कहते हैं साब! कौन सुने और मन खराब करे।’’
मैंने अनुमान लगाया कि आठ दस डब्बे तो ट्रेन में होते ही है। हर डिब्बे में तीस चालीस पुरुष होते ही होगे। चलिये पच्चीस मान लेते हैं। यानी ढाई सौ रुपये प्रति डिब्बे के हिसाब से दस डिब्बे के ढाई हजार रुपये। यह केवल नैनपुर से बालाघाट के बीच की कमाई है, एक तरफ की, एक ट्रिप की।  यह काम बिना रेलवे कर्मचारियों और आर पीएफ की मिली भगत के संभव नहीं है।
मैंने तय कर लिया कि मैं इसकी तह तक जाउंगा। मेरे साथ उसकी हुज्जत हुई। उसने मेरे साथ बदतमीजी की और अश्लील बातें कही। पर मैं डटा रहा। मैंने उससे कुछ तार्किक बातें जिसका उसने गालियां देकर गला घोंटना चाहा। मगर मेरी बातें कुछ लोगों की समझ में आई और उन्होंने मेरा साथ दिया। इससे उसका साहस कम हुआ।
वह चला तो गया मगर दूर खड़ा बड़बड़ाता रहा। गालियां भी देता रहा। किसी ने उससे बहस नहीं की ना उसे रोका। मुझे लगा अगले स्टेशन में वह अपनी टीम के लोगों को लाएगा। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ।
मैंने दूसरे दिन एक पत्रकार को ये बाते बताईं और उसे हिसाब समझाया। मुझे उम्मीद तो नहीं थी कि इसका कुछ परिणाम निकलेगा मगर दूसरी बार जब मैं फिर सफर में गया तो वह किन्नर नजर नहीं आया। मैंने लोगों से पूछा कि आजकल वह किन्नर नहीं आता क्या? पता चला कि कुछ दिनों से वह दिखाई नहीं दे रहा हैं।
यह मेरे लिए सुखद था। हर यात्री जो नैनपुर से बालाघाट के पन्द्रह रुपये किराया देता है, उसकी यात्रा पच्चीस रुपये प्रति ट्रिप हो गई थी। उसने राहत की सांस ली होगी। मैंने गालियां खाई, मेरे साथ बदसलूकी हुई उसका जो दुख हुआ वह आज राहत बनकर लौट आया था।

आज ही समाचार-पत्र में एक समाचार पढ़ा -‘‘किन्नर परेशान करें तो डायल करें 18002330473’’ यह समाचार अहमदाबाद का है। यह टोलफ्री नम्बर आरपीएफ की ओर से है। आर पी एफ की सीनियर डीएसपी सुमति शांडिल्य ने कहा कि ट्रेन में मुसाफिरों को किन्नरों द्वारा परेशान किए जाने की शिकायत रोजाना मिलती है। विशेषकर अहमदाबाद, मेहसाणा और मुम्बई रूट पर। यात्रियों से जबरदस्ती पैसों की मांग करना और अश्लील हरकतें कई बार विवाद को बढ़ा देती हैं किन्तु जब तक आरपीएफ पहुंचता है वे भाग जाते हैं। इसलिए यह टोल फ्री नम्बर पर समय रहते सूचना मिलती है तो समय रहते किन्नरों को पकड़ा जा सकता है।
यह समाचार सुखद है। उम्मीद है आरपीएफ और रेलवे कर्मचारी अपने यात्रियों के हित में मुस्तैदी से इस योजना को क्रियान्वित करेगे और किन्नरों से भी आशा की जा सकती है कि जिस समाज ने भावनात्मकता के कारण उसकी मदद का बीड़ा उठा रखा है उसके साथ वे बदसलूक़ी नहीं करेंगे।


दिनांक: 20.04.14, रविवार

Comments

Amrita Tanmay said…
अच्छा लगा यहां पर आना..

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि