Skip to main content

मंथरा का दर्शनशास्त्र

रामचरित मानस में कथित तौर पर कैकैयी की दासी मंथरा कहती है: ‘कोइ नृप हो हमहुं का हानी’। यही है मंथरा का दर्शनशास्त्र ?
हम देखते है अनुसचिवीय या सचिवीय संततियों का भी यही दर्शनशास्त्र है। या यूं कहें कि मंथरा का जो दर्शनशास्त्र था वह उसके पुत्रों का भी दर्शनशास्त्र है।
कहीं लिखा नहीं है कि मंथरा के भी पुत्र हुए और आगे उन्होंने मंथरा-नीति का विधिवत एवं सुदृढ़ संचालन किया। यह लिखने की जरूरत भी नहीं थी और ना है। लिखी हुई चीज़ें अक्सर बेकार हो जाती हैं।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है और लिखा हुआ है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा नीतिविशेषज्ञ और सदाचार का विश्वगुरू है। इसके पास जितना लिखित वांग्मय है उतना दुनिया के किसी देश के पास नहीं है। हम इस सब लिखे हुए को कितना मानते हैं?
ब्रिटिश संविधान लिखा हुआ नहीं है। परम्परा और मान्यताओं के पहिओं पर चल रहा है और आज भी गतिमय है। सारी दुनिया यह बात मानती है।
बात मानने की है। लिखने-पढ़ने की नहीं है।
दासीपुत्र विदुर कोई बूकर शूकर को नहीं जानता था। उसने कोई बेस्टसेलर नहीं दिया मगर उसकी नीतियों को द्वापर से अब तक मान्यता प्राप्त है।
मंथरा को भी लिखने की जरूरत नहीं थी कि मेरी परम्परा को निम्नलिखित पुत्र ढोयेंगे। मगर हम सब जानते हैं कि जो उन नीतियों को न केवल ढो रहे हैं बल्कि परिष्कृत कर रहे हैं वे मंथरापुत्र नहीं तो और कौन हंै ?
मंथरा का जिक्र रामकाल में किया गया है। वह कहती है और बड़ी साफ़गोई के साथ अपनी रानी से कहती है कि ‘कोउ नृप हो हमहुं का हानी ?’
स्वामित्व के बदलने से दासत्व में बदलाव नहीं आता। दास का काम है वह बोलना जो स्वामी को भी अपने हित का लगे। मगर कहने में अपने हिस्से के लाभ का बड़ा हिस्सा अपनी तरफ़ खिसकाता रहे।
आज क्या हो रहा है ? राम के नाम पर शासन करनेवालों को यह बात समझ में आती है कि राम ने कहां कहां भूल की और कहां कहां विस्तार को विकसित किया। प्रतिनिध्यात्मक राज्य की शुरुआत राजा के प्रतिनिधि होकर भरत ने की। विभीषण को और सुग्रीव को उनके राज्य का राजा बनाया जो राम को अपना स्वामी मानते रहे।
मंथरा भरत को दांव पर लगाकर मुख्य सचिव होने में ही जिन्दगी का लाभ देख रही थी। भरत ने उसकी कोशिशें नाकामयाब कर दीं। दशरथ भी प्रकारान्तर से मंथरा नीति को पलटने में जिम्मेदार ठहरे और राम भी। मगर भरत ने मंथरानीति को पनपने नहीं दिया।
आज प्रतिनिधि हंै मगर मंथराओं के आगे घुटनों के बल चल रहे हैं। वे भरत नहीं हो सकते क्यांेकि भरत होकर क्या मिलेगा वे जानते हैं।
जमाना तेजी का है और जल्दी जल्दी लाभ कमाने का है। नयी नीतियां गढ़ने की बजाय पिछले को पुनसर््थापित करने का है। पिछला यानी ज्यादा लाभकारी। भरत के घाटे का सौदावाला पिछला नहीं। मंथरा के वंशज आज भरत को विस्थापित करने में सफल हो गए हैं। अच्छे दर्शनशास्त्री राज्य-प्रतिनिधि भी इस बात को नहीं समझ रहे हैं।
समझ रहे हैं तो शायद वे राम को विस्थापित करना चाहते हैं और स्वर्ग तक स्वर्णमंडित साढ़ी के निर्माण की तथ्यात्मकता के आगे नतशिर हैं। मंथरा नीति के संरक्षक बनने में अपने हिस्से के स्वर्णभंडार को बढ़ता देख रहे हैं। दरअसल मंथरा एक प्रवृत्ति है जो रामायणकाल में उभरकर सामने आई। यह प्रवृत्ति पहले देवताओं में आई। तुलसीदास ने कुचाली देवताओं के एक वर्ग की खोज करते हुए लिखा है कि स्वर्ण सिंहासन पर राम के बैठने से कुचाली देवताओं को अस्तित्व का खतरा लगने लगा। उत्तम और श्रेष्ठ के आने से खोखले और नकली व्यक्तियों में खलबली मच जाती है। अपने उखड़कर फिंकने की आशंका से वे नवीन प्रतिभा को जमने न देने की कोशिशों में लग जाते हैं। बांसुरी के आगे लंपटों की सीटियों की कलई खुल जाएगी इस पूर्वाभास से बांसों के जंगल में आग लगा दी जाती है। न रहेगा बांस ,न बजेगी बांसुरी। देवताओं के राजा इंद्र के इन्हीं प्रयासों से पूरा पुराण वांग्यमय पुरा पड़ा है। उनके ही गण या अनुचर देवता हैं। सो वे पहंुचे बुद्धि की देवी सरस्वती के पास कि विधि का विधान बदल दो। हम बड़ी विपत्ति में हैं। हे माता ! ऐसा करो कि राम को राज्य छोड़कर बनवास हो जाए-
बिपति हमारि बिलोकि बड़ि , मातु करिअ सोइ आजु।
राम जाहि बनि राजु तजि , होइ सकल सुरकाजु।।
यह तुलसी की कल्पना है कि देवताओं का अंतिम काम है राम जैसोें को विस्थापित करना। इस प्रकार राम वनवास के शिलान्यास का पहला पत्थर देवताओं ने रखा। शिव की बहन सरस्वती देवताओं के बारे में सोचने लगी कि बताओ ये देवता हैं! इसी को कहते हैं -ऊंची दूकान ,फीका पकवान। देवताओं की संज्ञा और दैत्यों की सोच। तुलसी ने सरस्वती के विचारों को शब्दों का लिबास पहनाते हुए लिखा है
ऊंच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराई विभूति।।
अब ज़रा किसानों के नाम से निकले करोड़ों रुपयों के क़ाग़ज़ी जादू से बननेवाले महलों में रहनेवालों की तुलना देवताओं से और तुलसी के इस बीज वाक्य से कर देखिए। यही सोच मंथरा तक पहुंची। रानी कैकई की दासी मंथरा इन्हीं देवताओं की नानी ,दादी, मां ,मौसी या बहन-बेटी दिखाई देती है यहां। इसीलिए सरस्वती ने उसे देवताओं के काम का माध्यम बनाया। तुलसी ने प्रमाणित करते हुए लिखा है - नामु मंथरा मंदमति ,चेरी कैकइ केरि।
अजस पेटारी ताहि करि ,गई गिरा मति फेरि।।
सरस्वती ने मंथरा की मति फेरी तो राम वनवास का दूसरा पत्थर उसने रखा। मंथरा ने कैकई से कहा - दुइ बरदान भूप सन थाती। मागहु आजु जुड़ावहु छाती।
सुतहि राजु रामहि बनवासू। देहु लेहु सब सवति हुलासू।।
मंथरा के मंत्रपूत पत्थरों के ऊपर रानी कैकई ने तीसरा और अंतिम पत्थर रखा। उसने राजा दशरथ से कहा - हे प्राणप्रिय! मेरे मन को अच्छा लगे वह करो। यानी ‘ देहु एक बर भरतहिं टीका।’ भरत के राज तिलक के बाद दूसरा वर यह दीजिए कि विशेष रूप से तपस्वी वेश में और सारी इच्छाओं को पूरी तरह त्यागकर राम चैदह बरस के लिए बनवासी हो जाएं। तुलसी के शब्दों में ‘ तापस बेस बिसेसि उदासी। चैदह बरस राम बनबासी।’
मैं देख रहा हूं कि अपने को स्थापित करने के लिए उत्तम को विस्थापित करने की परम्परा पुरानी है। देवताआंे को लगा कि राम स्थापित हुए तो देवताओं को कौन पूछेगा ? मंथरा को लगा कि कैकई के पुत्र के स्थान पर ‘ सवति ’ कौसल्या के पुत्र राजा बन गए तो मंथरा के ब्रेड बटर और क्रीम में अंतर पड़ेगा। सब सचिव अपने अपने लाभ के सम्मोहन-केन्द्र या लक्ष्य को पहचानते हैं।
मंथरा के तर्क उसके दर्शनशास्त्र के बीजक हैं। तुलसीदास ने भरपूर मजे़ के साथ मंथरा के संवाद गढ़े हैं। इन संवादों को पढ़कर तुलसी के यथार्थमूलक मानव मनोविज्ञान का साफ़ पता चलता है। वे बड़ी सूक्ष्मता से चित्रित करते हैं कि चालाक व्यक्ति लोभ और लालच को संदेह की चासनी में कुछ इस तरहपकाते है कि सिर्फ अपने हित का ख्याल मीठा लगता है और दूसरे सिर्फ चींटे दिखाई देने लगते हैं जो कभी भी उसके हाथ के मीठे को लपकने की फ़िराक़ में तैयार हों। वह तथ्यों को इस प्रकार उठाकर मंथरा ने यही किया। कैकई को पराठें की तरह दोनों तरफ़ मक्खन लगालगाकर सेंका। मंथरा का दर्शन अलगाव के सूत्रों से बुनी इुई चिक है जो सच्चाई को नेपथ्य में डाल देती है। मंच पर सिर्फ अविश्वास ,संदेह और अंतहीन तर्कों
के वाग्जाल ही नाटक के प्रमुख पात्रों के रूप में दिखाई देते हैं।
मंथरा ने राजा दशरथ और अन्य रानियों के प्रेम को चिकनी-चुपड़ी और अपनी कुटिलता को सदाशयता बताया। आजकल अलगाववादी और मतलबपरस्त भी यही करते हैं। जीवनबीमा वालों की तरह वह भी भविष्य को आशंकित करते हुए अपनी पालिसी बेचती हुई कहती है कि मैं भी अब ठकुरसुहाती कहूंगी या मौन रहूंगी। ‘हमहुं कहब अब ठकुरसुहाती। नाहिं तैं मौन रहब दिन राती।’
अपनी सदाशयता को स्थापित करने के लिए वह कितना शक्तिशाली तुरुप चलती है यह देखकर हैरानी भी होती है और तुलसी की वांग्माया पर ‘वाह वाह, क्या बात है’ कहने का मन करता है। तुलसी ने कितनी बारीकी से मंथरा के आंतरिक क्षोभ को सदाशय का तड़का लगाया है ,इसे देखा जाए। मंथरा मासूम बनकर कह रही है कि अरी रानी , राजा कोई भी बने हम दासों का क्या है ? हमें कोई दासी से रानी तो नहीं न बनाएगा।’
यही है मंथरा के दर्शन का सबसे शक्तिशाली महावाक्य। इसी पर मंथरा की संतति लगातार लोकसेवा के नाम पर शासन कर रही हैं और सत्ता को भोग कर रही है। जनता के प्रतिनिधि राजपुरुष तो वे मजदूर मक्खियां हैं जो विभिन्न मुद्दों और समस्याओं का मकरंद इकट्टा करती हैं तथा उनके निदानों के शहद पर तैरने का मज़ा उनके अधिकारी करते रहते हैं। छूछा छत्ता जनता को मिलता है जिसे पकाकर वह मोम निकालती है और ठण्ड में जब चमड़ी फटती है तो घावों पर उसे लगाती है। होशियार अधिकारियों का मूलमंत्र मंथरा का यही तर्क है ‘कोई नृप हो हमहूं का हानी । चेरि छांड़ि अब होब कि रानी।’
वह निष्कलंक प्रेम और चरित्र पर अनुभव की छैनी छनते हुए कहती है कि पहले थे पर अब वे दिन गए जब प्रेम अपरिवर्तित रहता था। अनुभव कहता है कि समय बीतते ही प्रियजन भी शत्रु हो जाते हैं। प्रथम रहे, अब ते दिन बीते। समउ फिरें रिपु होहिं पिरीते।’
वह यहां सूरज का दृष्टांत प्रस्तुत करती है- ‘भानु कमलकुल पोसनि हारा। बिनु जल जारि करई सोइ छारा।’ अर्थात् जो सूर्य पानी रहने पर कमल को खिलने में पूरी मदद करता है , वही पानी न रहने पर कमलों को जला डालता है। इसलिए पानी बचाओ। भविष्य के लिए बुद्धिमत्तापूर्वक निग्रह करो ,संग्रह करो , नियोजन करो। अपनी भलाई के लिए अपना हिस्सा सुरक्षित करो। मंथरावादी यही कर रहे हैं।
लोहार का वार करती हुई मंथरा रानी से कहती है कि सब कुछ मुझसे मत पूछो। अपनी बुद्धि का भी उपयोग करो क्योंकि पशु तक अपना भला बुरा पहचानते हैं।’लोककवि तुलसी ने कितनी तन्मयता से यह पंक्तियां गढ़ी हैं -‘ का पूंछहुं तुम्ह अबहूं न जाना। निज हित अनहित पसु पहिचाना।’
मानस के लोकमंच पर खड़े होकर सूत्रधार तुलसी बताते है कि कितने धैर्य के साथ ,कितनी चतुराई के साथ ,कितनी कितनी बनावट और कपट से मंथरा तर्कों को बुनती है कि किसी तरह अलगाव, फूट, विरोध और वैमनस्य बढ़े। उनका सूत्र संवाद सुनिये -‘ रचि पचि कोटिक कुटिलपन ,कीन्हेसि कपट प्रबोध। कहिसि कथा सत सवति कै ,जेहि बिधि बाढ़ बिरोधु।’(अयो. दो. 18)
यह मंथरा-बुद्धि का तर्क-कौशल्य ही है कि कैकेयी जैसी प्रबुद्धियां भी अंततः उसके फरेब में आ जाती हैं। पहले जो कैकेयी मंथरा के नकारात्मक दुष्टिकोण का मजाक उड़ाती है ,अंततः मंथरा के तर्कतंतुओं और वाग्जाल में वह लिपट जाती है , मंथरा-युक्तियों का शिकार हो जाती है। पहले रानी कैकेयी दोहा 14 में कहती है- ‘काने खोरे कूबरे कुटिल कुचाली जानि। तिय बिसेषि पुनि चेरि कहि भरत मातु मुसुकानि।’ फिर दोहा 16 में यही रानी मंथरा के वशवर्ती हो जाती है-‘‘गूढ़ कपट प्रिय बचन सुनि तीय अधरबुधि रानि। सुरमाया बस बैरिनिहि सुहृद जानि पतिआनि।’’
कमाल यह है कि मंथराबुद्धि केवल प्रतीति ही नहीं भरती बल्कि अपनी योजनाओं का गुलाम भी बनाती है। यही कारण है कि कैकेयी जैसी राजविदुषी मंथरा के सामने संकल्प लेती है कि तेरे कहने पर मैं कुएं में गिर सकती हूं। पति और पुत्र को छोड़ सकती हूं। तू मेरे आनेवाले भीषण दुख को देख रही है तो अरीे मंथरादेवी मैं तेरे हित का क्यों नहीं करूंगी।’’ दोहा 21 पढं़े कृपया -‘‘ परउं कूप तुअ बचन पर , सकउं पूत पति त्यागि। कहसि मोर दुखु देखि बड़ ,कस न करब हित लागि।’’ आगे के दोहे में तुलसीदास ने कैकेयी की दीन हीन परवशत्व का चित्रण करते हुए लिख है-‘‘ कुबड़ी मंथरा ने कैकेयी को अपने कथनोें का दास बना लिया। कैकेयी के हृदय रूपी सान पत्थर पर मंथरा ने अपने कपट की छूरी को तेज़ किया। अब रानी उसके सम्मोहन में उसी प्रकार आ गई है जैसे बूचड़खाने का बलिपशु अपनी मृत्यु को भूलकर हरे हरे घास को निश्चिंत होकर चरता रहता है।’’ कुटिल बधिक खिलापिला कर मारते हैं क्योंकि वे अपने लक्ष्य के शरीर को नहीं बल्कि उसके दिलदिमाग को अपने अधीन बनाते है। मंथरादर्शन यही है।
हालांकि यहां तो तुलसीदास ने बड़ा यथार्थ और वास्तविक चित्र खींचा है किन्तु बाद में अपने पूर्व कथन ‘‘ होहिहे वही जो राम रचि राखा ’’ का पालन करते हुए भरत के माध्यम से षड़यंत्र को तो सफल कर दिया लेकिन मंथरा की होनी और कैकेयी की पुरौनी पर पानी फेर दिया। उन्होंने रामलीला देखने बैठे निठल्ले दर्शकों के मनोविनोद के लिए सुखांत नाटकीयता की रचना की। भरत के मुंह से रानी को लज्जित करवाया और शत्रुघ्न से बड़ी निर्ममता के साथ मंथरा को पिटवाया।
मंथरा की दुदर्शा से आज की व्यवस्था से दुखी और भुक्तभोगी भारतीयों को अंतरिम राहत मिल सकती है इसलिए तुलसी का वह दुष्य भी देखें।
मानस-महानाट्य में मंथरा मनोवृत्ति के परिणाम या क्लाइमैक्स का चित्र तुलसी खींचते हैं-भरत ने अपनी मां को खूब खरी खोटी सुनाई। पापिनी कहा। कहा, ‘जन्म होते ही मार क्यों नहीं डाला।‘ ‘राम बनवास मांगते मुंह में कीड़े क्यों नहीं पड़ गए’ कहा।’
तभी आनेवाले सुदिन की कल्पना में सजी संवरी कुबड़ी मंथरा वहां आई। वसन भूषण और अपनी सफलता की चमक में चमचमाती मंथरा को क्या पता था कि भरत ने अपनी भड़ास मां पर निकाल ली है लेकिन शत्रुघ्न तो भरे बैठे है। ‘कपटी ,कुचाली ,कुबड़ी को साज श्रृंगार किये आते देखा तो शत्रुघ्न के भरभरातेे हुए सीने में जैसे घी पड़ गया। झपटकर उसने उसकी कूबड़ का निशाना बनाकर जमकर लात मारा। कुबड़ी चीखते हुए मुंह के बल गिर पड़ी। उसका कुबड़ टूट गया। माथा फूट गया। दांत बिखर गए। मुंह से खून बहने लगा। मगर तब भी वह कुलच्छिनी देवताओं को भला बुरा कहने लगी कि मैंने तो वही किया जो देवताओं को मंजूर था। अच्छा करने का यह अच्छा परिणाम मुझे मिला। अब तो शत्रुघ्न और बिफर गए। लात खाकर भी बड़बड़ानेवाली के झौंटे पकड़कर वे उसे खींच खींचकर धुनने लगे। दयानिधान भरत ने भाई को रोका और उस दुष्टा को छुड़वाया।’’
मानस-महानाट्य के इस दृष्य से दर्शक खुश हुए। उन्होंने तालियां बजायीं।
मगर जिस प्रकार रावण के मर जाने से उत्सवधर्मी लोग रावण को जला जलाकर उसे जीवित रखते हैं , उसी प्रकार यद्यपि रामचरित महानाट्य से मंथरा गायब हो गई मगर वह प्रवृत्ति के रूप में अपनी दुष्ट संतति के सीनों पर धंसकर बैठ गई है। अब कोई शत्रुघ्न उसके झौंटे नहीं खींच सकता। वह सत्ता के साथ है। राजपुरुषों की अधिष्ठात्री है। लोभी ,लालची और विलासियों की कुलदेवी है। वह अमर हो गई है।
डाॅ. रा. रामकुमार ।
27.02.10 /30.01.2010

Comments

सर बहुत दिनों बाद आई ये पोस्ट भी हमेशा की तरह बेहतरीन हैं. बात जहाँ तक स्थापन व विस्थापन की है तो ये तो नियति है शाश्वत सत्य है और जैसे हमारे संविधान में लोग लूप होल निकाल लेते हैं वैसे ही जीवन के इस सत्य को अपनी आवश्कतानुसार अपनी खुद की दी हुई दिशा की तरफ मोड़ लेते हैं
kumar zahid said…
क्या है आखिर मंथरा का दर्शनशास्त्र ? रामचरित मानस में कथित तौर पर कैकैयी की दासी मंथरा कहती है: ‘कोइ नृप हो हमहुं का हानी’।
हम देखते है अनुसचिवीय या सचिवीय संततियों का ीाी यही दर्शनशास्त्र है। या यूं कहें कि मंथरा का जो दर्शनशास्त्र था वह उसके पुत्रों का भी दर्शनशास्त्र है।
कहीं लिखा नहीं है कि मंथरा के भी पुत्र हुए और आगे उन्होंने मंथरा-नीति का विधिवत एवं सुदृढ़ संचालन किया। यह लिखने की जरूरत भी नहीं थी और ना है। लिखी हुई चीज़ें अक्सर बेकार हो जाती हैं।
भारत का संविधान दुनिया का सबसे बड़ा संविधान है और लिखा हुआ है।
भई वाह .सार्थक बातें..

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि