वैश्विक बाजारवाद में संस्कृतियों और परंपराओं को बदला नहीं जाता। उनको उत्पाद की तरह बेचा जाने लगता है। उपभोक्ता इसमें सीधे नहीं जुड़ता है किन्तु अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जेबें ढीली हो जाती हैं। मंहगाई इसका साइड इफेक्ट है। मंहगाई एक अनिवार्य घटना है जिसे उपभोक्ता रोक नहीं सकता ,केवल भुगत सकता है। बाजार में उपलब्ध उत्पाद वे चुम्बकीय उपकरण हैं जो अबाध रूप से उपभोक्ताओं के अतिगोपित-अंटियों तक जाते हैं और दुर्निर्वार्यतः मुद्राएं खींच ले आते हंै। सर्वोच्च न्यायालय के पास भी इसकी काट नहीं है। हमें केवल आश्चर्यचकित होने का अधिकार है कि कटघरे में किसी भी व्यक्ति को खड़ा कर सकने की वैधानिक क्षमता और प्रभुता रखनेवाला राष्ट्रीय न्यायालय भी अपने को वैधानिक ऋचाओं के कटघरें में कैद पाता है।
प्रजातंत्र में चुनाव एक अनिवार्य सह ऐच्छिक स्वयंवर है। नागरिकों का मौलिक अधिकार है कि वे अपने मनपसंद पार्षद, पंच, सरपंच, विधायक,सांसद का वरण करें। फिर भूल जाएं कि उन्होंने किसका वरण किया है। उनके सारे अधिकार अब अधिग्रहित हो चुके हैं। महिने पंद्रह दिनों में मिट जानेवाले दाग की तरह उनके सारे अधिकार अदृश्य हो चुके हंै। उनके खाली हाथों में खिलौनेनुमा कत्र्तव्य रह गए हैं। कत्र्तव्य यानी भविष्य के जीवन बीमा का वह निवेश जिसमें अगर आय है तो कर में कुछ प्रतिशत की छूट तथा मरने के बाद थोड़े-बहुत जोखिम-भुगतान का जीते जी स्वप्न देखने की राहत मिलती है।
प्रजातंत्र की प्रजा मुझे कभी कभी उस निरीह पत्नी की तरह लगती है जो विधिवत् सात फेरे लेती है और अच्छे जीवन के झांसे में आकर जीवन भर शराबी-जुआड़ी पति की बेपरपाही , अभाव , अलगाव ,बलात् सन्तान आदि प्राप्त कर लेती है। भोजन के बदले जिसे गालियां , लात ,घूंसे और गम खना पड़ता है। बिजली ,पानी और मकान के नाम पर उसे जीवन भर अनहोनियों के झटके-सदमें , आंसू और एकांतवास मिलते हंै। एक स्वयंवर यह भी है जिसे जनता ने राजी खुशी से स्वयंवरित किया है।
कुछ वर्ष पहले तक हम स्वयंवर के रूप में दाम्पत्य का अर्थ ग्रहण करते थे। हमारी स्मुतियों में वह जमाना भी आता था जब पिता गाय के प्रतियप में उपलब्ध सुपुत्रियों को किसी जांचे परखे विष्वसनीय क्षूंटे में बांध आता था और कहता था कि जितने छूट खूंटा पक्ष प्रदान करे उस सीमा में अपने गायत्व को निभाना और अपने को धन्य समझना। अधिकार की बात मत करना केवल कत्र्तव्य ही तेरी पूंजी है। स्त्री-विमर्श के इस दौर में यह भी एक बहस का मुद्दा है कि जो भाग्य से मिल गया उसे स्त्री ने कैसे वरध कर लिया। यह मुद्दा अब उठाया जा रहा है जब माताएं परिवार में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभा रही हैं, योग्य कन्याएं कोर्ट मैरेज कर रही हैं और विवाह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। स्थापित आलोचक ,विद्वान और चिंतकों का मत है कि इतिहास को याद रखना बेहद जरूरी है क्योंकि यही वह बावड़ी है जिससे होकर भविष्य का भूमिगत मार्ग खुली हवा में खुलता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्वयंवर की सदी है। अगर लड़के और लड़कियों को एक दूसरे को दिखाकर पसंद करने की व्यवस्था की जा रही है तो वह सवयंवर की पूर्वपीठिका है। समारोह तो सब तय हो जाने के बाद होगा। हर पिता राजा जनक या राजा द्रुपद नहीं होता कि वह देश देशान्तर के योग्य राजाओं को एक निश्चित तिथि में आमंत्रित करे और किसी एक विधा में सभी एकत्रितों की परीक्षा ले। जो योग्यतम हो उसे पुत्री के वर के रूप से सार्वजनिक रूप से चुन ले।
यहां यह उल्लेखनीय है कि उन दोनों घटनाओं में पूर्व घोषित निर्धारित विधा में कोई भी विशिष्टतः आमंत्रित राजा योग्य सिद्ध नहीं हो पाया। पहली विधा में कोई भी धनुर्धर धनुष नहीं उठा पाया तो दूसरी विधा में आमंत्रित तीरंदाजों में एक भी तीसमारखां सही निशाने पर तीर नहीं चला पाया। दोनों स्वयंवरों में तीसरा व्यक्ति वरणीय सिद्ध हुआ जिसकी चर्चा ही नहीं थी।
पहले स्वयंवर में किसी अन्य परियोजना में निकले दो राजकुमार कौतुहल वश स्वयंवर में अपने प्रबंधक कोच के साथ पहुंचते हैं। तात्कालिक परिस्थितियों में संयोगवश प्रतियोगी बन कर बड़ा राजकुमार जीत जाता है। दूसरे स्वयंवर में अज्ञातवास भोगते राजकुमार अपने मेंटर के कहने पर पहुंच जाते हैं और जीतता यद्यपि एक है किंतु एक की जीत में सबकी जीत होती है।
रामायणकाल और महाभारतकाल की इन घटनाओं के पीछे जो भी राजनैतिक धार्मिक लक्ष्य छुपे हैं ,यहां उनकी व्याख्या आवश्यक नहीं है। यहां उद्देश्य स्वयंवरों की परंपरा को याद करना है , जो हमारी स्मृति की धरोहरें हैं।
रामायण और महाभारतकाल में घटित इन स्वयंवरों की नियति यह है कि घोषित रूप से कन्या और कुमार को पता नहीं है कि वही एक दूसरे के होंगे। अगर ऐसा होता तो स्वयंवर की जरूरत ही क्या थी ? जहां दोनों को पता है कि उन दोनों ने एक दूसरे का वरण कर लिया है ,वहां गंदर्भ विवाह हो जाते हैं। रुक्म की बाधा के बावजूद कृष्ण के साथ रुक्मिनी भाग जाती है और अर्जुन को सुभद्रा भगा ले जाती है।
इससे आग आते हैं तो इतिहास में एक और राजपूत स्वयंवर का दृष्टांत हमें मिलता है। राजपूत राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर रचा गया है। संयोगिता के भाई जयचंद के विरोध के कारण पृथ्वीराज को नहीं बुलवाया गया है। उसके पुतले को द्वारपाल बनाकर खड़ा कर दिया गया है ताकि पृथ्वीराज अपने को अपमानित किया जा सके। संयोगिता चूंकि पृथ्वीराज को चाहती है इसलिए वरमाला वह पृथ्वीराज के गले में ही डालती है। पुतला पूर्व नियोजित रूप से पृथ्वीराज में बदल जाता है जो संयोगिता को उठा ले जाता है। हुआ यहां भी स्वयंवर ही है। मगर जयचंद बावजूद इसके युद्ध करता है किन्तु जीत पृथ्वीराज की ही होती है।
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि स्वयंवर में आमंत्रण और आयोजन क्यों ? स्वयंवर भी योग्य में से योग्य का चुनाव क्यों ? पसंद स्वयंवर क्यों नहीं ?
आश्चर्य यही है कि इन घटनाओं को उतना महत्व नहीं मिलता जिसमें कन्या और कुमार एक दूसरे को पसंद कर लेते हैं और सामाजिक या पारिवारिक अवरोधों-विरोधांे की परवाह किए बिना विवाह कर लेते हंै। कृष्ण-रुक्मिनी और सुभद्रा-अर्जुन प्रकरणों से ज्यादा सीता और द्रौपदी स्वयंवर लोकोत्सव के विषय हैं। कोर्ट मैरेज और मंदिर विवाह के स्थान पर फिजूल खर्ची की प्रदर्शनप्रियता पर आधारित दाम्पत्य को सामाजिक मान्यता मिल रही है। ऐसे विवाह भविष्य की भूमि में मंहगाई के बीज आरोपित करते हैं और जीवनभर मंहगाई के नाम पर रोते हैं। यह मंहगाई तुम्हारी स्वयंवरा है ,इसे वैसे ही गले लगाइये जैसे लाखों फूंककर लायी हुई परिणीता को आप गले लगाते हैं। मैं समझता हूं कि हर फिजूलख़र्च महंगाई की तरफ उठा हुआ एक कदम है। फिर आपने तो सात फेरों में लगभग उन्चास कदम उठाए ही हैं।
स्वयंवरों के समकालीन घृणित और गर्हित चरण के रूप में साल भर पहले राखी के स्वयंवर का बाजारीकरण हुआ। इन दिनों सफल राजनैतिक पिता का भटका हुआ पुत्र राहुल इस वैश्विक बाजारवाद के उत्पाद स्वयंवर में उपकरण बना हुआ है।
मेरी दृष्टि में राखी और राहुल किसी भी स्वयंवर की पात्रता नहीं रखते। जिनके मन में सैकड़ों लड़के और लड़कियों हों ,एकाधिक साथियों के साथ जिनकी निभ ही नही पायी हो ,जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व को केवल उपभोग और बाजारवाद की वस्तु मानते हों ,उनका कैसा स्वयंवर ? वहां कैसा स्वयंवर जहां भावनात्मक पवित्रता ही नहीं है ? जहां सीरियल प्राॅफिट और बेनेफिट चैनल की मार्केटिंग हो रही हो , वहां हम अपने टीवी सेट खोलकर क्या कर रहे हैं ? शायद हम मंहगाई के बीज बो रहे हैं। राखियों और राहुलों की ,उनके प्रायोजकों की तिजौरियां भर रहे हैं। विवाह जैसी पवित्र गृहस्थी को बाजारू बना रहे हैं। अपने जिस्म की नुमाइश के बल पर लोकप्रियता और धन कमानेवालों को स्वयंवर में खड़ा करने से बड़ी अश्लीलता मुझे दूसरी नहीं दिखाई देती।
क्या हमारा इतना भी नैतिक कत्र्तव्य नहीं है कि कम से कम अपने घरों से मंहगाई की दिशा में एक भी बीज न जाने दें ?
हम मनोरंजन के नाम पर अपने को लुटने की भूमिका से बचाएं। फूहड़ता और बकवास को उलीचकर अपने घरों को अपवित्र न करें। अपने चिंतन और अपनी चाहत को सही दिशा प्रदान करें।
यह संभव है। हम कर सकते हैं। गलत हाथों में अपनी गाढ़ी कमाई को जाने से रोक सकते हैं। स्लो पाइजन के रूप में हमारे ही घर आनेवाली मंहगाई और तंगहाली को निरस्त कर सकते हैं।
. 18.02.10
प्रजातंत्र में चुनाव एक अनिवार्य सह ऐच्छिक स्वयंवर है। नागरिकों का मौलिक अधिकार है कि वे अपने मनपसंद पार्षद, पंच, सरपंच, विधायक,सांसद का वरण करें। फिर भूल जाएं कि उन्होंने किसका वरण किया है। उनके सारे अधिकार अब अधिग्रहित हो चुके हैं। महिने पंद्रह दिनों में मिट जानेवाले दाग की तरह उनके सारे अधिकार अदृश्य हो चुके हंै। उनके खाली हाथों में खिलौनेनुमा कत्र्तव्य रह गए हैं। कत्र्तव्य यानी भविष्य के जीवन बीमा का वह निवेश जिसमें अगर आय है तो कर में कुछ प्रतिशत की छूट तथा मरने के बाद थोड़े-बहुत जोखिम-भुगतान का जीते जी स्वप्न देखने की राहत मिलती है।
प्रजातंत्र की प्रजा मुझे कभी कभी उस निरीह पत्नी की तरह लगती है जो विधिवत् सात फेरे लेती है और अच्छे जीवन के झांसे में आकर जीवन भर शराबी-जुआड़ी पति की बेपरपाही , अभाव , अलगाव ,बलात् सन्तान आदि प्राप्त कर लेती है। भोजन के बदले जिसे गालियां , लात ,घूंसे और गम खना पड़ता है। बिजली ,पानी और मकान के नाम पर उसे जीवन भर अनहोनियों के झटके-सदमें , आंसू और एकांतवास मिलते हंै। एक स्वयंवर यह भी है जिसे जनता ने राजी खुशी से स्वयंवरित किया है।
कुछ वर्ष पहले तक हम स्वयंवर के रूप में दाम्पत्य का अर्थ ग्रहण करते थे। हमारी स्मुतियों में वह जमाना भी आता था जब पिता गाय के प्रतियप में उपलब्ध सुपुत्रियों को किसी जांचे परखे विष्वसनीय क्षूंटे में बांध आता था और कहता था कि जितने छूट खूंटा पक्ष प्रदान करे उस सीमा में अपने गायत्व को निभाना और अपने को धन्य समझना। अधिकार की बात मत करना केवल कत्र्तव्य ही तेरी पूंजी है। स्त्री-विमर्श के इस दौर में यह भी एक बहस का मुद्दा है कि जो भाग्य से मिल गया उसे स्त्री ने कैसे वरध कर लिया। यह मुद्दा अब उठाया जा रहा है जब माताएं परिवार में महत्वपूर्ण और निर्णायक भूमिका निभा रही हैं, योग्य कन्याएं कोर्ट मैरेज कर रही हैं और विवाह एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। स्थापित आलोचक ,विद्वान और चिंतकों का मत है कि इतिहास को याद रखना बेहद जरूरी है क्योंकि यही वह बावड़ी है जिससे होकर भविष्य का भूमिगत मार्ग खुली हवा में खुलता है।
कहने की जरूरत नहीं है कि यह स्वयंवर की सदी है। अगर लड़के और लड़कियों को एक दूसरे को दिखाकर पसंद करने की व्यवस्था की जा रही है तो वह सवयंवर की पूर्वपीठिका है। समारोह तो सब तय हो जाने के बाद होगा। हर पिता राजा जनक या राजा द्रुपद नहीं होता कि वह देश देशान्तर के योग्य राजाओं को एक निश्चित तिथि में आमंत्रित करे और किसी एक विधा में सभी एकत्रितों की परीक्षा ले। जो योग्यतम हो उसे पुत्री के वर के रूप से सार्वजनिक रूप से चुन ले।
यहां यह उल्लेखनीय है कि उन दोनों घटनाओं में पूर्व घोषित निर्धारित विधा में कोई भी विशिष्टतः आमंत्रित राजा योग्य सिद्ध नहीं हो पाया। पहली विधा में कोई भी धनुर्धर धनुष नहीं उठा पाया तो दूसरी विधा में आमंत्रित तीरंदाजों में एक भी तीसमारखां सही निशाने पर तीर नहीं चला पाया। दोनों स्वयंवरों में तीसरा व्यक्ति वरणीय सिद्ध हुआ जिसकी चर्चा ही नहीं थी।
पहले स्वयंवर में किसी अन्य परियोजना में निकले दो राजकुमार कौतुहल वश स्वयंवर में अपने प्रबंधक कोच के साथ पहुंचते हैं। तात्कालिक परिस्थितियों में संयोगवश प्रतियोगी बन कर बड़ा राजकुमार जीत जाता है। दूसरे स्वयंवर में अज्ञातवास भोगते राजकुमार अपने मेंटर के कहने पर पहुंच जाते हैं और जीतता यद्यपि एक है किंतु एक की जीत में सबकी जीत होती है।
रामायणकाल और महाभारतकाल की इन घटनाओं के पीछे जो भी राजनैतिक धार्मिक लक्ष्य छुपे हैं ,यहां उनकी व्याख्या आवश्यक नहीं है। यहां उद्देश्य स्वयंवरों की परंपरा को याद करना है , जो हमारी स्मृति की धरोहरें हैं।
रामायण और महाभारतकाल में घटित इन स्वयंवरों की नियति यह है कि घोषित रूप से कन्या और कुमार को पता नहीं है कि वही एक दूसरे के होंगे। अगर ऐसा होता तो स्वयंवर की जरूरत ही क्या थी ? जहां दोनों को पता है कि उन दोनों ने एक दूसरे का वरण कर लिया है ,वहां गंदर्भ विवाह हो जाते हैं। रुक्म की बाधा के बावजूद कृष्ण के साथ रुक्मिनी भाग जाती है और अर्जुन को सुभद्रा भगा ले जाती है।
इससे आग आते हैं तो इतिहास में एक और राजपूत स्वयंवर का दृष्टांत हमें मिलता है। राजपूत राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर रचा गया है। संयोगिता के भाई जयचंद के विरोध के कारण पृथ्वीराज को नहीं बुलवाया गया है। उसके पुतले को द्वारपाल बनाकर खड़ा कर दिया गया है ताकि पृथ्वीराज अपने को अपमानित किया जा सके। संयोगिता चूंकि पृथ्वीराज को चाहती है इसलिए वरमाला वह पृथ्वीराज के गले में ही डालती है। पुतला पूर्व नियोजित रूप से पृथ्वीराज में बदल जाता है जो संयोगिता को उठा ले जाता है। हुआ यहां भी स्वयंवर ही है। मगर जयचंद बावजूद इसके युद्ध करता है किन्तु जीत पृथ्वीराज की ही होती है।
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि स्वयंवर में आमंत्रण और आयोजन क्यों ? स्वयंवर भी योग्य में से योग्य का चुनाव क्यों ? पसंद स्वयंवर क्यों नहीं ?
आश्चर्य यही है कि इन घटनाओं को उतना महत्व नहीं मिलता जिसमें कन्या और कुमार एक दूसरे को पसंद कर लेते हैं और सामाजिक या पारिवारिक अवरोधों-विरोधांे की परवाह किए बिना विवाह कर लेते हंै। कृष्ण-रुक्मिनी और सुभद्रा-अर्जुन प्रकरणों से ज्यादा सीता और द्रौपदी स्वयंवर लोकोत्सव के विषय हैं। कोर्ट मैरेज और मंदिर विवाह के स्थान पर फिजूल खर्ची की प्रदर्शनप्रियता पर आधारित दाम्पत्य को सामाजिक मान्यता मिल रही है। ऐसे विवाह भविष्य की भूमि में मंहगाई के बीज आरोपित करते हैं और जीवनभर मंहगाई के नाम पर रोते हैं। यह मंहगाई तुम्हारी स्वयंवरा है ,इसे वैसे ही गले लगाइये जैसे लाखों फूंककर लायी हुई परिणीता को आप गले लगाते हैं। मैं समझता हूं कि हर फिजूलख़र्च महंगाई की तरफ उठा हुआ एक कदम है। फिर आपने तो सात फेरों में लगभग उन्चास कदम उठाए ही हैं।
स्वयंवरों के समकालीन घृणित और गर्हित चरण के रूप में साल भर पहले राखी के स्वयंवर का बाजारीकरण हुआ। इन दिनों सफल राजनैतिक पिता का भटका हुआ पुत्र राहुल इस वैश्विक बाजारवाद के उत्पाद स्वयंवर में उपकरण बना हुआ है।
मेरी दृष्टि में राखी और राहुल किसी भी स्वयंवर की पात्रता नहीं रखते। जिनके मन में सैकड़ों लड़के और लड़कियों हों ,एकाधिक साथियों के साथ जिनकी निभ ही नही पायी हो ,जो स्त्रीत्व और पुरुषत्व को केवल उपभोग और बाजारवाद की वस्तु मानते हों ,उनका कैसा स्वयंवर ? वहां कैसा स्वयंवर जहां भावनात्मक पवित्रता ही नहीं है ? जहां सीरियल प्राॅफिट और बेनेफिट चैनल की मार्केटिंग हो रही हो , वहां हम अपने टीवी सेट खोलकर क्या कर रहे हैं ? शायद हम मंहगाई के बीज बो रहे हैं। राखियों और राहुलों की ,उनके प्रायोजकों की तिजौरियां भर रहे हैं। विवाह जैसी पवित्र गृहस्थी को बाजारू बना रहे हैं। अपने जिस्म की नुमाइश के बल पर लोकप्रियता और धन कमानेवालों को स्वयंवर में खड़ा करने से बड़ी अश्लीलता मुझे दूसरी नहीं दिखाई देती।
क्या हमारा इतना भी नैतिक कत्र्तव्य नहीं है कि कम से कम अपने घरों से मंहगाई की दिशा में एक भी बीज न जाने दें ?
हम मनोरंजन के नाम पर अपने को लुटने की भूमिका से बचाएं। फूहड़ता और बकवास को उलीचकर अपने घरों को अपवित्र न करें। अपने चिंतन और अपनी चाहत को सही दिशा प्रदान करें।
यह संभव है। हम कर सकते हैं। गलत हाथों में अपनी गाढ़ी कमाई को जाने से रोक सकते हैं। स्लो पाइजन के रूप में हमारे ही घर आनेवाली मंहगाई और तंगहाली को निरस्त कर सकते हैं।
. 18.02.10
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