यानी ‘‘ हबीब तनवीर ‘‘
1972-73 की वह एक गुलाबी शाम थी जो अपने रूमानी अहसास को सीधे मेरे जिस्म के साथ जोड़कर चल रही थी। ठीक गाय के उस बछड़े की तरह जो जानबूझकर मां के जिस्म से टिककर घास में मुंह चलाने की मुहिम ज़ारी रखता है। मैंने इस शीतल अहसास को स्वेटर से रोकने कभी कोशिश भी नहीं की। जहां मेरे कैशौर्य में ठंड को पीने की मस्तीभरी शक्ति मौज़ूद थी वहीं आंखों में सारे विश्व के कौतुहल को जान लेने की जिज्ञासा लालायित थी। तभी स्टेट स्कूल के ग्राउंड में आगरा बाज़ार के प्रदर्षन की जानकारी मुझे मिली। रात होते ही मैं रंगप्रेमी दर्शकों के बीच में मैं उपस्थित था। बल्कि और पहले से। दो ट्रकों के डालों (कैरेज ट्राली) को जोड़कर स्टेज बनाने के रंगप्रबंधन को मैंने देखा ,जाना और सीखा। दोनों कैबिनों को अलग अलग तरीकें से अटारियों ,छज्जों और छतों में तब्दील किया गया था। दोनों ट्रकों के डालों को बाज़ार का विस्तार और विविधता प्रदान की गई। रात होते ही जब नाटक शुरु हुआ ,वहां आगरा बाज़ार के पतंग फ़रोश , खोंमचेवाले ,बाजीगर ,मदारी ,चनाज़ोर ...जाने कितने विभिन्न रंग-व्यापारों ने गतिशीलता भर दी। यह निर्देशक हबीब तनवीर के अनुभवों का वह रंग-संसार था जो आगरा से ,दिल्ली से और इंगलेंड के राडा से संस्कारित होकर ’आगरा बाज़ार’ के रूप में प्रतिफलित हुआ था। नज़ीर अकबराबादी की नजमें ,गज़ल और गीतों से सजा और हबीब तनवीर की अपनी संगीतात्मकता से रचा गया यह जादू देर रात तक चलता रहा। उस रात मैं घर लौटने की बजाय स्वप्नों की रंग-भूमी पर पहुंच गया था। ‘एक बेकार का सपना’ , ’ज़हरीला’ और ’ट्वेंटी फोर यूनिट्स’ को स्टेज पर फैलाते वक़्त मेरे मस्तिष्क पर कहीं इसी ब्रेन-ट्यूनिंग का प्रभाव था, जो बेहद सराहा गया।
हबीब तनबीर की इस खुली ब्रेन ट्यूनिंग से रंग-विश्व की हज़ारों प्रतिभाएं प्रभावित हुई हैं। रंगकर्म का एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल ही उनके माध्यम से विश्व क्षितिज में उभरा । जिसका नाम है-’नया थियेटर’। ’नया थियेटर ’ के रूप में हबीब तनवीर ने ’अपनी जन्मभूमि’ के प्रति अपनी निष्ठा और ’अपनी ज़मीन’ के प्रति अपने उत्तरदायित्व का परिचय दिया है। इप्टा और हिन्दुस्तान थियेटर से प्रारंभिक प्रशिक्षण और अनुभव लेकर हबीब जब इंगलेंड की रायल अकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट्स में प्रशिक्षण के दौरान पूरे यूरोप में घूम रहे थे ,तब भी वह भारत की ज़मीन से जुड़े हुए लोगों के लिए सोच रहे थे। तभी तो यूरोप से लौटकर वे चकाचैंध से भरी फिल्मी दुनिया में नहीं गए ,जिसमें से होकर वे गुज़रे थे और जहां इप्टा , हिन्दुस्तान थियेटर और नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से प्रशिक्षित उनके मित्र और अग्रज अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे थे। वे लौटे तो उन्होंने अपने जन्मांचल छत्तीसगढ़ को ही अपनी शुरूआत की कसौटी बनाया। वे लिखते हैं ,‘‘1958 में यूरोप से लौटने के बाद ’मृच्छकटिकमृ’ पर काम शुरू करने के पहले मैं परिवार से मिलने अपने घर रायपुर गया। मैंने सुना कि जिस हाईस्कूल में मैं पढ़ता था ,उसी के परिसर में नाचा का आयोजन हो रहा है। नाचा छत्तीसगढ़ी ड्रामा का धर्मनिरपेक्ष रूप है। मैं इसे रात भर देखता रहा।‘‘
हबीब तनवीर के अंदर के कलाकार को उसकी ज़मीन ,ज़मीर और जलाल पुकार रहे थे। उनके अंदर आयातित या प्रत्यारोपित प्रतिभा नहीं थी। वे स्वयंभू ऊर्जा के स्रोत थे और किसी गमले में भरी जाने वाली मिट्टी नहीं थे जिसमें नवधनाढ्य लोग बोनज़ाई बरगद या गुलमोहर लगाकार अपनी बौनी दृष्टि का परिचय देते हैं । कृषि प्रधान भारत में खेत बहमंज़िला इमारतों और होटलों में तब्दील हो रहे हैं और बरगदों को शो-पीस बनाया जा रहा है। इस हवा से बेपरवाह हबीब तनवीर ने अपनी रूह की ज़मीन को पहचाना और उसे उर्वरक बनाया । तनवीर किसी एक ढांचे में बंधकर विकसित होने वाले कलाकार नहीं थे। कोई हद या फ्रेम उन्हें बांध नहीं सकी। प्रतिभा के साथ समय हमेशा परीक्षा की मुद्रा में खड़ा होता है। उसके आसपास परजीवियों की गुच्छेदार दीमकें होती हैं जो संगठन के नाम पर ,व्यवस्था के नाम पर, समाज ,जाति और वर्ग के नाम पर ,भाषा के नाम पर ,प्रांत और विचारधारा के नाम पर उसकी प्रतिभा पर चिपककर उसे अपना अस्तित्व बनाना चाहती हैं। शायद दीमकें यह नहीं जानती कि प्रतिभा को निगलकर वे कोई नई चीज़ नहीं देंगी बल्कि जो है उसे मिट्टी कर देंगी। समर्थ प्रतिभाएं इन दीमकों से मुक्त होने का रास्ता तलाश लेती हैं और अपने को विकसित करने के लिए माकूल ज़मीन ,हवा ,पानी की व्यवस्था कर लेती हैं। प्रतिभा के अंदर से निरंतर आवाज़ें आती रहती हैं ,जो उसे यह बताती रहती हैं कि वह अभी कहां है और उसे किस तरफ़ जाना है या जाना चाहिए। इसीलिए यूरोप से लौटकर हबीब ने पहले से तैयार भव्य गमलों में ऊगने की बज़ाय अपनी ज़मीन खुद तैयार की । कुल जमा छः छत्तीसढ़ी कलाकारों को जोड़कर उन्होंने भोपाल में ‘नया-थियेटर ’ का बीजारोपण किया। रंगकर्म के मनीषियों की सर्वमान्य राय है कि नया-थियेटर ने भारत और विश्व रंगकर्म के मंच पर अपनी अलग छाप छोड़ी। लोक कलाकारों के साथ किए गए प्रयोग ने नया थियेटर को नवाचार के एक गरिमापूर्ण संस्थान की छांव प्रदान की। यह तनवीर के सधे हुए व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि कला के ठेकेदारों को भी उनके वर्चस्व को स्वीकार करना पड़ा।
समाचार पत्रों की राय है कि हबीब तनवीर अब हमारे बीच नहीं रहे। मगर गौर से देखें तो हबीब तनवीर का जिसम सुपुर्देखाक हुआ है। वह नजरिया , कला और ज़मीनी सरोकार जो हबीब रोपकर गए हैं ,वे तो हैं। उनकी शक्ल में ढलकर तनवीर अब भी हमारे बीच हैं। अगर अदृष्य होने को ही सच माना जाए तो कह सकते हैं कि ’देश का ऐ ऐसा बिरला रंगकर्मी हमसे विदा हो गया जिसने...छत्तीसगढ़ की नाचा शैली और भाषा को अपनी जादूभरी रंगदृष्टि से वैश्विक पहचान दी। इसके साथ यह भी सच है कि वे अपने पीछे रंगप्रेमियों की ऐसी जमात छोड़कर गए हैं जो उनसे अभी बहुत कुछ सीखने को लालायित थी। एक ऐसे कलाकार से...जो अपनी देशज कला के बल पर राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बना। जिसे संगीत नाटक अकादमी के साथ-साथ पद्यश्री और पद्यभूषण से सम्मानित किया गया। जिसे समचार पत्रों ने प्रमुखता के साथ अपने मुख्यपृष्ठों में ऐसी जगह प्रदान कीजो शायद किसी भव्यभवनों के बोनज़ाई को नहीं मिलती।
1972-73 की वह एक गुलाबी शाम थी जो अपने रूमानी अहसास को सीधे मेरे जिस्म के साथ जोड़कर चल रही थी। ठीक गाय के उस बछड़े की तरह जो जानबूझकर मां के जिस्म से टिककर घास में मुंह चलाने की मुहिम ज़ारी रखता है। मैंने इस शीतल अहसास को स्वेटर से रोकने कभी कोशिश भी नहीं की। जहां मेरे कैशौर्य में ठंड को पीने की मस्तीभरी शक्ति मौज़ूद थी वहीं आंखों में सारे विश्व के कौतुहल को जान लेने की जिज्ञासा लालायित थी। तभी स्टेट स्कूल के ग्राउंड में आगरा बाज़ार के प्रदर्षन की जानकारी मुझे मिली। रात होते ही मैं रंगप्रेमी दर्शकों के बीच में मैं उपस्थित था। बल्कि और पहले से। दो ट्रकों के डालों (कैरेज ट्राली) को जोड़कर स्टेज बनाने के रंगप्रबंधन को मैंने देखा ,जाना और सीखा। दोनों कैबिनों को अलग अलग तरीकें से अटारियों ,छज्जों और छतों में तब्दील किया गया था। दोनों ट्रकों के डालों को बाज़ार का विस्तार और विविधता प्रदान की गई। रात होते ही जब नाटक शुरु हुआ ,वहां आगरा बाज़ार के पतंग फ़रोश , खोंमचेवाले ,बाजीगर ,मदारी ,चनाज़ोर ...जाने कितने विभिन्न रंग-व्यापारों ने गतिशीलता भर दी। यह निर्देशक हबीब तनवीर के अनुभवों का वह रंग-संसार था जो आगरा से ,दिल्ली से और इंगलेंड के राडा से संस्कारित होकर ’आगरा बाज़ार’ के रूप में प्रतिफलित हुआ था। नज़ीर अकबराबादी की नजमें ,गज़ल और गीतों से सजा और हबीब तनवीर की अपनी संगीतात्मकता से रचा गया यह जादू देर रात तक चलता रहा। उस रात मैं घर लौटने की बजाय स्वप्नों की रंग-भूमी पर पहुंच गया था। ‘एक बेकार का सपना’ , ’ज़हरीला’ और ’ट्वेंटी फोर यूनिट्स’ को स्टेज पर फैलाते वक़्त मेरे मस्तिष्क पर कहीं इसी ब्रेन-ट्यूनिंग का प्रभाव था, जो बेहद सराहा गया।
हबीब तनबीर की इस खुली ब्रेन ट्यूनिंग से रंग-विश्व की हज़ारों प्रतिभाएं प्रभावित हुई हैं। रंगकर्म का एक अंतर्राष्ट्रीय स्कूल ही उनके माध्यम से विश्व क्षितिज में उभरा । जिसका नाम है-’नया थियेटर’। ’नया थियेटर ’ के रूप में हबीब तनवीर ने ’अपनी जन्मभूमि’ के प्रति अपनी निष्ठा और ’अपनी ज़मीन’ के प्रति अपने उत्तरदायित्व का परिचय दिया है। इप्टा और हिन्दुस्तान थियेटर से प्रारंभिक प्रशिक्षण और अनुभव लेकर हबीब जब इंगलेंड की रायल अकेडमी आफ ड्रामेटिक आर्ट्स में प्रशिक्षण के दौरान पूरे यूरोप में घूम रहे थे ,तब भी वह भारत की ज़मीन से जुड़े हुए लोगों के लिए सोच रहे थे। तभी तो यूरोप से लौटकर वे चकाचैंध से भरी फिल्मी दुनिया में नहीं गए ,जिसमें से होकर वे गुज़रे थे और जहां इप्टा , हिन्दुस्तान थियेटर और नेशनल स्कूल आफ ड्रामा से प्रशिक्षित उनके मित्र और अग्रज अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे थे। वे लौटे तो उन्होंने अपने जन्मांचल छत्तीसगढ़ को ही अपनी शुरूआत की कसौटी बनाया। वे लिखते हैं ,‘‘1958 में यूरोप से लौटने के बाद ’मृच्छकटिकमृ’ पर काम शुरू करने के पहले मैं परिवार से मिलने अपने घर रायपुर गया। मैंने सुना कि जिस हाईस्कूल में मैं पढ़ता था ,उसी के परिसर में नाचा का आयोजन हो रहा है। नाचा छत्तीसगढ़ी ड्रामा का धर्मनिरपेक्ष रूप है। मैं इसे रात भर देखता रहा।‘‘
हबीब तनवीर के अंदर के कलाकार को उसकी ज़मीन ,ज़मीर और जलाल पुकार रहे थे। उनके अंदर आयातित या प्रत्यारोपित प्रतिभा नहीं थी। वे स्वयंभू ऊर्जा के स्रोत थे और किसी गमले में भरी जाने वाली मिट्टी नहीं थे जिसमें नवधनाढ्य लोग बोनज़ाई बरगद या गुलमोहर लगाकार अपनी बौनी दृष्टि का परिचय देते हैं । कृषि प्रधान भारत में खेत बहमंज़िला इमारतों और होटलों में तब्दील हो रहे हैं और बरगदों को शो-पीस बनाया जा रहा है। इस हवा से बेपरवाह हबीब तनवीर ने अपनी रूह की ज़मीन को पहचाना और उसे उर्वरक बनाया । तनवीर किसी एक ढांचे में बंधकर विकसित होने वाले कलाकार नहीं थे। कोई हद या फ्रेम उन्हें बांध नहीं सकी। प्रतिभा के साथ समय हमेशा परीक्षा की मुद्रा में खड़ा होता है। उसके आसपास परजीवियों की गुच्छेदार दीमकें होती हैं जो संगठन के नाम पर ,व्यवस्था के नाम पर, समाज ,जाति और वर्ग के नाम पर ,भाषा के नाम पर ,प्रांत और विचारधारा के नाम पर उसकी प्रतिभा पर चिपककर उसे अपना अस्तित्व बनाना चाहती हैं। शायद दीमकें यह नहीं जानती कि प्रतिभा को निगलकर वे कोई नई चीज़ नहीं देंगी बल्कि जो है उसे मिट्टी कर देंगी। समर्थ प्रतिभाएं इन दीमकों से मुक्त होने का रास्ता तलाश लेती हैं और अपने को विकसित करने के लिए माकूल ज़मीन ,हवा ,पानी की व्यवस्था कर लेती हैं। प्रतिभा के अंदर से निरंतर आवाज़ें आती रहती हैं ,जो उसे यह बताती रहती हैं कि वह अभी कहां है और उसे किस तरफ़ जाना है या जाना चाहिए। इसीलिए यूरोप से लौटकर हबीब ने पहले से तैयार भव्य गमलों में ऊगने की बज़ाय अपनी ज़मीन खुद तैयार की । कुल जमा छः छत्तीसढ़ी कलाकारों को जोड़कर उन्होंने भोपाल में ‘नया-थियेटर ’ का बीजारोपण किया। रंगकर्म के मनीषियों की सर्वमान्य राय है कि नया-थियेटर ने भारत और विश्व रंगकर्म के मंच पर अपनी अलग छाप छोड़ी। लोक कलाकारों के साथ किए गए प्रयोग ने नया थियेटर को नवाचार के एक गरिमापूर्ण संस्थान की छांव प्रदान की। यह तनवीर के सधे हुए व्यक्तित्व का ही प्रभाव था कि कला के ठेकेदारों को भी उनके वर्चस्व को स्वीकार करना पड़ा।
समाचार पत्रों की राय है कि हबीब तनवीर अब हमारे बीच नहीं रहे। मगर गौर से देखें तो हबीब तनवीर का जिसम सुपुर्देखाक हुआ है। वह नजरिया , कला और ज़मीनी सरोकार जो हबीब रोपकर गए हैं ,वे तो हैं। उनकी शक्ल में ढलकर तनवीर अब भी हमारे बीच हैं। अगर अदृष्य होने को ही सच माना जाए तो कह सकते हैं कि ’देश का ऐ ऐसा बिरला रंगकर्मी हमसे विदा हो गया जिसने...छत्तीसगढ़ की नाचा शैली और भाषा को अपनी जादूभरी रंगदृष्टि से वैश्विक पहचान दी। इसके साथ यह भी सच है कि वे अपने पीछे रंगप्रेमियों की ऐसी जमात छोड़कर गए हैं जो उनसे अभी बहुत कुछ सीखने को लालायित थी। एक ऐसे कलाकार से...जो अपनी देशज कला के बल पर राज्यसभा का मनोनीत सदस्य बना। जिसे संगीत नाटक अकादमी के साथ-साथ पद्यश्री और पद्यभूषण से सम्मानित किया गया। जिसे समचार पत्रों ने प्रमुखता के साथ अपने मुख्यपृष्ठों में ऐसी जगह प्रदान कीजो शायद किसी भव्यभवनों के बोनज़ाई को नहीं मिलती।
Comments
waah
nihaal kar diyaji aapne
bahut umda aalekh !