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Showing posts from May, 2009

साहित्य में अफ़सरवाद

उद्योग-नगरी के साहित्य क्लब में तब अध्यक्ष कोई बड़ा अधिकारी होता था और सचिव भी एक छोटा अफसर होता था। ये अफसर प्रायः प्रबंधक-वर्गीय होते थे। डाॅक्टर और इंजीनियर कार्यकारिणी में रखे जाते थे। टीचर्स ,इस्टेट और सैफ्टी इंस्पेक्टर वगैरह सदस्य हुआ करते थे। अध्यक्ष और सचिव पद पर बैठे पदाधिकारी अपनी शक्ति लगााकर महाप्रबंक जैसी मूल्यवान हस्तियों को तलुवों से पकड़कर ले आते थे और तालियां बजाकर अपने हाथ साफ कर लेते थे। उन दिनों मैं प्रबंधन में नया था और अफसर नहीं था। मेरे जैसांे की रचनाएं सराही तो जाती थीं मगर ’अधिकारी-सम्मान’ नहीं दिया जाता था। एक दिन मैं प्रशासनिक सेवा के लिए चुन लिया गया। अचानक जैसे सब कुछ बदल गया। मैं अब उपेक्षणीय से सम्माननीय हो गया। मेरी रचनाओं में वज़न आ गया। जबकि राजधानी की प्रशासनिक अकादमी के लिए मुझे उद्योग-नगरी से विदा होना था , तब मेरे सम्मान में साहित्य क्लब में विशेष आयोजन किया गया। अध्यक्ष , सचिव और कार्यकारिधी के पदाधिकारीगण फूलमालाओं की तरह बात बात में गले लगने लगे।विदाई में जो रचनाएं मुझे पढ़नी थीं , उसे रिकार्ड करने का इंतज़ाम स्वयं अध्यक्षरूपी अधिकारी ने की थी। य...

बंजारे दिन

बंजारे दिन.... बंजारे दिन घूम घूम औज़ार बनाते हैं। गांवों के फुटपाथों पर भट्टी दहकाते हैं।  बचपन को इस्पाती घोड़े, लकड़फोड़ कुल्हाड़ी। चिमटा, कलछी, चाकू, हंसिया, मांगे आंगन-बाड़ी। तवा बनाते हैं, कैंची में धार लगाते हैं ।            बंजारे दिन.... शाम नशीली, सुबह सुहानी, उनके डेरे आती । छौंकी हुई रात गुदड़ी भर सपने घेरे लाती। भोर-पंखेरू उन्हें राग-मल्हार सुनाते हैं ।              बंजारे दिन.... सड़कें, रौनक, महल, मंडियां, साख तुम्हारी हैं। वे चल दिए बुझाकर चूल्हे, राख तुम्हारी है। वे कब किसकी धरती पर अधिकार जताते हैं?                 बंजारे दिन.... @ कुमार, 260502009.

Dogs are natural and original .

Dear Yuddhu, Dogs are coincidently loved and cared by Maneka Gandhi too. ‘Too’ is indicating what you better know.Yes,you and so many others the international human being love , keep dogs and care for dogs.Beyond the gender the worldwide dogs species are being loved by both men and women. Why ? The answer is easy. There are some reasons why dogs are loved so universally : 1. Dog please to see a friend dog . Not a single instance noticed so far that a dog stabbed a friend dog to get his property, position, girl- friend, spouce, land etc.A dog never decieve a friend or believer or followers. 2. Dogs love the old-ones as well as the youngers.They never bark ,bite or leave abondoned a man who got old , weak, of no-use. 3. Dogs don’t make an issue of the name.They never fight to get name and fame. They don’t mind surnames, caste and creed. They never combate about province, language and veg-non-veg. 4. Dogs love the place they live.They never migrate to get better future, money and p...

कुमार गंधर्व का ’गंधर्व-पुत्र ’ मुकुल शिवपुत्र

जन्म तो खैर हो जाता है मगर जीने के अर्थ निरंतर विकसित होते रहते हैं। पहुंचे हूए लोगों को देखता हूं तो सोचता हूं किसने या किस-किसने इन्हें यहां पहुंचाया ? आगे बढ़ने का प्रयास और अपने होने का स्फोट करने की चेष्टा सभी करते हैं। मगर ध्यान सबकी तरफ सबका नहीं जाता । जंगल मैं मोर नाचता है कौन देखता है । जो देखता है अगर वह आकर गांव या शहर को यह देखना न बताए तो गांव को या शहर को कैसे पता चले कि मोर नाचता भी है। भालू को बांधकर या घोड़े को साघकर भी लोग नचाते हैं । मगर मोर तो स्वयमेव नाचता हैं। अपनी धुन में। जब मन मैं मौज आई तब। मैंने तो खैर नहीं देखा कि बंदर की तरह या तोतों की तरह या लोटन कबूतरों की भांति वह मनुष्य की गिरफ्त मैं पड़ा है और नाच रहा है। मोर अपने कोई कन्सर्ट भी नहीं करता कि उसको पहचान मिले और शान ,शौकत ,शोहरत और दौलत बढ़े। वह ऐसा कुछ नहीं करता कि लोगों का ध्यान कुछ नही ंतो उस हटकर किए गए के लिए उसकी तरफ हो जाए। प्रतिभाशाली लोग अक्सर कुछ न कुछ निराला करते रहते हैं। या यूं कहें कि उनसे कुछ न कुछ निराला होते रहता हैं। सूर्यकांत त्रिपाठी भी प्रतिभाशाली थे किंतु व्यक्तिगत जीवन में साधारण से ...

चिकनी खाल के रसीले रहस्य

नींऊंड़ा ,नींमुड़ा ,नींबुड़ा: चिकनी खाल के रसीले रहस्य मेरे ख्याल से प्रातः-भ्रमण का स्वास्थ्य से चाहे जितना संबंध हो , मस्तिष्क से कहीं ज्यादा है। ताज़ा हवा में ताज़ा विचारों के साथ घूमते हुए ठंडी हवा कितना कुछ दे जाती है ,उसका पता सुबह-सुबह टहलकर घर लौटे हुए आदमी के चेहरे और उत्साह से चल जाता है। मैं भी उस दिन अपने चेहरे पर उत्साह और विचारों का नये पतेवाला लिफ़ाफ़ा बनकर लौटा था। पत्नी बगिया में पानी दे रही थी । पत्नी को घेरकर मीठी-नीम , पोदीना ,मोंगरे , भटे , इकट्ठी दुृकट्ठी पत्तियोंवाला नगोड़ा नींबुड़ा यानी नीबू वगैरह खड़े थे। नीबू में भरपूर निंबोड़ियां झूल रही थी। ऐसे लग रह था जैसे पत्नी के माथे पर पसीने की चमकदार बूंदों से हंस-हंसकर कुछ बतिया रही हों। मैं कुतूहल के साथ बगिया में घुस गया और ठीक निंबुड़ियों की झूलती डाली के पास खड़ा हो गया । पत्नी ने चेतावनी दी:‘‘ सम्हलकर , नींबू में कांटे होते हैं।‘‘ मैं ठिठक गया। रसीली वनस्पतियों में कांटे ? मैं सोचने लगा कि और कौन कौन से फलदार पेड़ हैं जिनमें कांटे होते हैं! ऐसे फल जो मुझे पसंद है...और ऐसे फूल जो फूलों के राजा हैं.. और ऐसी सब्जियां जिनकी ...

मैं कबीर तू लोई !

तू जाने या मैं जानूं यह और न जाने कोई । होते होते हो ही गए हम , मैं कबीर तू लोई ! खुद ने खुद को धोया-पोंछा , खुद सिंगार किया है । जो भी जैसा सामने आया , फल स्वीकार किया है । रोने को मन किया मगर हम किसके आगे रोते ? हमने संयम नहीं वरन् खुद पर अधिकार किया है ।। अपनी पूनम ने कितनी रातों की कालिख धोई ! तू जाने या मैं जानूं यह और न जाने कोई ! कष्टों के कांटों की सूई लेकर सिलते पल-छिन ! हम अपने मन को बहलाने ,चलते कंकर गिन-गिन ! हुई हथेली लाल समय के बंजर खनते खनते, मेंहदी कितनी रची देखते रहे हमीं तुम दिन-दिन !! क्या ग्लानी ,क्या क्षोभ हमें , क्यों करे कोई दिलजोई ? तू जाने या मै जानूं ,यह और न जाने कोई !! बड़े मजे से उड़े जा रहे , पंछी हैं दिन अपने । हवा ,मेघ ,आकाश ,प्रकृति, सच है या हैं सपने ? धरती-सागर ,आंगन-बाड़ी ,पार-द्वार हैं अद्भुत , खट्टे-मीठे ,रस-नीरस सब स्वाद मिल गए चखने ।। मुक्ति-युक्ति की ,तुष्टि-तृप्ति की उपज हमीं ने बोई ! होते होते हो ही गए हम ,मैं कबीर तू लोई !! 9 मई ,2009, बुद्ध-पूर्णिमा ,शनिवार , वैवाहिक-वर्षगांठ पर पत्नी को ...

जूतों की महायात्रा: शास्त्रयुग से शस्त्रयुग तक

रामायणकाल मे शास्त्र पोषित सम्राट् राम की कहानी में एक युगान्तर तब घटित हुआ जब अयोध्या के राजा भरत ने आग्रह किया था कि आपका अधिकार है आप राजा बनें। शास्त्रीय नैतिकता और मर्यादा को कठोर व्यावहारिकता में बदल देनेवाले राम ने नियति से प्राप्त वनवास को वरेण्य मानकर भरत का आग्रह अस्वीकृत कर दिया था। तब भरत ने राम कीह खड़ाऊ मांग ली और सर पर रख्कर लौट आए। राजसिंहासन पर उन खड़ाउओं को स्थापित कर वे पगतिनिधि राज्य की भांति राजकाज देखने लगे और कुटिया में कुशों के आसन पर पतस्वी जीवन बिजाने लगे। ऐसा आदर्श और कहीं दिखाई नहीं देता कि भाग्य से प्राप्त राज्य को गर्हित मानकर उसके पारंपरिक वास्तविक अधिकारी की वस्तु मानते हुए राजा तपस्वी हो जाए। आज तो राज्य और राज्य सिंहासन के लिए मारकाट ,छीना झपटी और षड़यंत्रों की बाढ़ सी आ गई है। हालांकि भारत के महाभारत-काल में इसका सूत्रपात हो गया था। कितना अंतर है - रामकाल की उन खड़ाउओं में और आज जो फेंकी जा रही हैं उनमें। अध्यात्म के क्षेत्र में भी गुरु की खडाऊ का पूजन भारतीय मनीषा की अपनी मौलिक साधना है। हमारे देश मंे केवल शास्त्रों की ही पूजा नहीं होती , शस्त्रों की भ...