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मन की बात

 मन की बात 

         वृद्ध, अनुभवी, दर्शनशास्त्री, आयुर्वेद आचार्य, तंत्रिका तंत्र से जुड़े शरीर-शास्त्री और मनोचिकित्सक इस बात पर हमेशा ज़ोर देते रहे हैं कि 'मन की सुनो', 'मन को समझो', 'मन की करो'। 'सुनो सबकी, करो मन की' कहावत भी यही कहती है। मनोवैज्ञानिकों और दिशा-दर्शकों का भी यही कहना है कि आपका मन जिस वस्तु या विद्या में 'लगाव' अनुभव करता है, उसे ही चुनें, क्योंकि केवल उसे ही पूरे 'मनोयोग' से व्यक्ति कर पाता है। व्यावहारिक- ज्ञान और दिशा-दर्शन या मार्ग-दर्शन केवल 'विकल्प' के लिए दिए जाते हैं, विवश करने के लिए नहीं। 
       बाज़ार-वाद के दौर में यह अवश्य है कि किसी वस्तु, खाद्य सामग्री, पेय आदि जीवनोपयोगी आवश्यकताओं का विज्ञापन मुनाफ़े के लिए किया जाता है और उपभोक्ताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उसके उन गुणों का बखान किया जाता है, जो बाद में बदल जाते है। अनाज, तेल(कच्ची घानी), साग-सब्ज़ियां, प्लास्टिक, तांबा, एल्युमिनियम आदि के स्वास्थ्य पर प्रभाव का बाज़ार-वादी चिकित्सा शास्त्र अद्भुत है। आजकल बाज़ार प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर काग़ज़ और कपड़ों के उपयोग पर फूल-फल रहा है। प्लास्टिक के बर्तनों और बोतलों की जगह विभिन्न कम्पनियां स्टील के बर्तन और बोतलों से बाज़ार को खनखनाये हुए हैं। 
            कुछ ख़ास क़िस्म के 'मन' कभी कभी 'बहुमत का मन' बन जाते हैं। 'तुमने तो 'मेरे मन की बात' कह दी', कहते हुए बहुत लोगों को सुना होगा। बहुमत ऐसे ही बनता है। मन 'महाजनों' के मन के साथ चल देता है। सावधानी यहां ज़रूरी है। ऐसी स्थिति में आपके मन की और विवेक की विशेष भूमिका होती है। यहां फिर निर्णय मन ही करता है.'मेरा मन कहता है कि यह सही है।' 
            अक्सर लोग यह कहते हुए पाए जाते हैं कि 'मन नहीं कर रहा।' बहुत से लोग तो बड़े गंभीर होकर कहते हैं-'आज मन ही नहीं है।' मन के लिए यह कहा जा सकता है कि वह 'है' या 'नहीं है'। इसे सम्मानपूर्वक समाज में स्वीकृति भी है। किंतु, यह सम्मान 'हृदय' या 'मस्तिष्क' को नहीं है। यह कोई नहीं कहता कि 'हृदय' नहीं है या 'मस्तिष्क' नहीं है। वह निंदनीय भी होगा और हास्यास्प्रद भी। 'हृदयहीन होना' होना सामाजिक दृष्टि से गर्हित है और मस्तिष्क (दिमाग़) का नहीं होना लज्जाजनक है।
        मन' पर चिंतकों ने बहुत कहा और लिखा है। मध्यकाल में प्रखरवाणी के धनी कबीर ने मन पर सबसे अधिक बात की।
आधुनिक काल में जयशंकर प्रसाद ने कामायनी महाकाव्य में नायक मन को ही बनाया। नाम दिया मनु। मन के साथ जुड़ी इड़ा को भी एक नायिका बनाया। मन के भावों पर भी अध्याय लिखे। उनका एक प्रसिद्ध गीत है-  
          तुमुल कोलाहल कलह में
          मैं हृदय की बात रे मन!
          +++++
        जहाँ मरु ज्वाला धधकती,
        चातकी कन को तरसती;
        उन्हीं जीवन घाटियों की, 
        मैं सरस बरसात रे मन!
       +++++++
इस कविता में जब कवि मन को सम्बोधित करते हुआ स्वयं को 'हृदय की बात' निरूपित करता है तो वह अपने को मन और मस्तिष्क से अलग सिद्ध करता है। कवि हृदय इसीलिए कोमल माना जाता है। 'एके धका दरार' के स्तर की कोमलता उनमें होती है।
हालांकि मन को भी कुछ हृदय मान लेते हैं। इस अर्थ में जयशंकर जी का हृदय की बात मन से कहना बड़ा भेदकारी नहीं है। विज्ञान की दृष्टि से हृदय एक यंत्र है उसका काम सोचना, बात करना, महसूस करना है ही नहीं। हृदय या दिल लगाकर काम करना भी मस्तिष्क के समर्पण की तरफ़ संकेत है। मन जो है ही नहीं उसकी ओर संकेत है।
कहते हैं- कवि का काम ही मन की सुनना है। इसीलिए उसकी बातें मन की बातें होती हैं। कवि की बातें कभी कभी जो है ही नहीं उस की स्थापना करता है। अधिकांश लोग उसकी बातों को मनगढ़ंत कह देते हैं। कवि किसी के मन की बात सुनने जा सकता है, किंतु फिर अपने मन की तरफ़ लौट आता है। यह जो कथा, कहानी, निबंध, उपन्यास, नाटक, कविता, गीत, ग़ज़ल आदि, यह विभिन्न भाषी साहित्य क्या है- भिन्न-भिन्न मन की विभिन्न बातें हैं। हज़ारों वर्षों से हो रही हैं, और हज़ारों वर्षों तक होती रहेंगी। यही होना और विविधता के साथ होना ही इसका सौंदर्य है। इसीलिए साहित्य के विश्लेषण को सौंदर्यशास्त्र की उपाधि दी गई। 
मन की विह्वलता, बेचैनी, चिंता, अवसाद, विषाद, निराशा आदि मनोरोगों की चिकित्सा केवल मन ही कर सकता है। पुस्तकें सहायता करती हैं क्योंकि जिस लेखक ने लिखा है उसने भी तो मन की सुनी है, विश्लेषण किया है। गीता की यही तो भूमिका है। वह एक सूक्ष्म मनोविश्लेषण का ग्रंथ है, अवसाद और विषाद की चिकित्सा करता है।  मनोरोगविशेषज्ञ भी क्या करते हैं? मनोगियों से बातचीत करते हैं, उसे अपने मन की विविध यात्राओं, समस्याओं का पुन:दर्शन कराते हैं।  आपके मन से आपका सामना होते ही वे यह पूछते हैं कि आपका मन क्या कहता है, वह समझो और उसकी सुनो। अवसाद ही नहीं, बढ़े हुए रक्तचाप का इलाज भी मन की सुनने की गुहार करता है। सामान्यतः चिकित्सक कहते हैं -तनाव मत लो। तनाव मन के विरुद्ध जाना है या होना है। वे कहते हैं -उन बातों पर, उस विगत पर ध्यान दो, उधर मन लगाओ जिधर तुम्हारे मन को अच्छा-अच्छा लगे। कहावत भी है - मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। 
'सूरसागर' में सूरदास की गोपियां को जब उद्धव अपने सम्राट श्रीकृष्ण के 'मन की बात' बताने आये और ज्ञानगंगा बहाने लगे, तब गोपियों ने अपने 'मन' की बात बताई और बोलीं- 
"ऊधो! 'मन' न भये दस बीस।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
++++
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ 'मन' जगदीस॥
                                     (विप्रलम्भ,रामकली)

तो जैसे मैंने अपने 'मन' की सुन ली, आप भी अपने मन की सुनिए। क्योंकि 'मन' एक ही है और हमारे जन्म से हमारे साथ है। हालांकि उसे किसी ने देखा नहीं, फिर भी वही सब कुछ है। उसे खुश रखिये। 


@डॉ. रा. रामकुमार, १८.१२.२०२३, सोमवार, गोंगलइ, नवेगांव (बालाघाट)


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