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*अपने अपने महाभारत*

*अपने अपने महाभारत*


दोनों ओर की सेनाएं युद्ध क्षेत्र में आमने सामने खड़ी हैं। सेनाएं भी किनकी? जिनमें कभी आपस में प्रेम-व्यवहार था, मिठास थी।
फिर जैसा कि होता है, लोभ आ गया, शासन करने की भूख आ गयी, प्रभुत्व और अधिकारी बनकर हुक्म चलाने का अहंकार आ गया, भूमि, धन और उपभोग पर कुंडली मारकर बैठने का लालच आ गया। कुलमिलाकर नीयत बिगड़ गयी। बांट कर खाने और मिलकर रहने के स्थान पर साजिश, षड्यंत्र और चक्रव्यूह रचने यानी चालें चलने की तथाकथित बुद्धिमानी आ गई।
तब उठी हक़ की बात। अपने हिस्से के सुख को पाने की बात। अपने लिए जीवन की सुविधओं को मांगने की बात। तब मुट्ठी भर पांडवों ने अपना नीति-निर्देशक चुना यदुकुल नरेश कृष्ण को और भारी संख्यावाले या भारी बहुमत वाले *अंधे-सम्राट धृतराष्ट्र* के पीछे खड़े कौरवों ने चुना गांधार युवराज शकुनि को अपना सलाहकार।

एक पुरानी कहावत है कि जब दो लड़ते हैं तब फायदा तीसरे को होता है। महाभारत में वह तीसरा तो नहीं था पर कलयुग में ऐसे बहुत हैं। भारत और पाकिस्तान को लड़ाकर किसे फायदा है, दोनों को अपने हथियार बेचकर कौन अकूत धन कूट रहा है? कौन दुर्योधन के घर भी छप्पन भोग उड़ा रहा है और पांडवों के घर भी मोहन भोग सूंट रहा है? बताने की जरूरत नहीं हैं। कलयुग में सबको लगता है कि उससे ज्यादा विद्वान न पैदा हुआ न होगा।

तो युद्ध भूमि में दोनों सेनाएं आमने सामने हैं। लड़ानेवाला बारी-बारी से दोनों की लड़ाई में दर्शक बना हुआ दोनों में शामिल है। उसकी सारी जिम्मेदारी उसकी कठपुतलियों ने जाने अनजाने उठाने के लिए कमर कस ली है।

अंधे धृतराष्ट्र ने, अपने और अपनों के फायदे के लिए लड़ाई पर नज़र रखनेवाले जासूस संजय से पूछा - "न्याय (धर्म)और चालबाजी (कुरु, कुछ भी करो) के मैदान (क्षेत्र) में, युद्ध की इच्छा से खड़े मेरे ( लोभ, अहंकार, मद, मत्सर, लालचआदि में डूबे) लोगों और मुट्ठी भर पांडवों ( दुर्बल, कमतर लोगों) ने आखिर युद्ध मैदान (आजकल आमसभा, मीटिंग, संसद सभा, विधान सभा ) में क्या किया संजय! ( गुप्तचर, सचिव, दूरतक देखने सोचनेवाला तटस्थ व्यक्ति।)

और फिर शुरू हुई यद्ध के मैदान की किस्सा गोई।
इसे देखेंगे हम अगली बार।

देखना न भूलें - *अपने अपने महाभारत*
***०२.०२.२०२०.

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