Skip to main content

समाचार आजकल : समांतर सेनाएं

मैं समाचार देख, सुन और पढ़ रहा हूं। जो बात मेरी तुच्छ बुद्धि को समझ में आ रही है वो यह है कि इस्लामाबाद जिस देश की राजधानी है वहां की दो समांतर राजकीय सेनाएं हैं। पाक की #शासकीय_सेना राज करती है और उन देशों से लड़ती है जो आतंकवादियों को आतंक करने पर ठोंकती है।
दूसरी राजकीय सेना है #मुहम्मदी_सेना जिसे उर्दू ( अरबी/ फ़ारसी) में #जैशेमुहम्मद ( जैश = सेना, मुहम्मद = इस्लामी पैगम्बर) कहते हैं। जिस तरह के समाचार आ रहे हैं और पाकिस्तान सरकार जिस तरह से जैशेमुहम्मद के सदरेखास की रक्षा में मुस्तैद है, उससे मेरी मंद-बुद्धि को ऐसा क्यों लगता है कि सदरेखासेजैशेमुहम्मद हजरत मसूद अज़हर ही वास्तव में पड़ोसी देश की #पाकीज़ा_सरकार हैं। #यह_दुनियाकी पहली अद्भुत समानांतर सेना है जो किसी देश की सैन्य खर्चे पर चर्चे में रहती है। अन्य शब्दों में इसे "खुजली_सेना" भी कह सकते हैं जो शक्तिशाली राष्ट्रों को खुजाकर अपने "वतन, पाक वतन" को संतुष्टि पहुंचाती है। यह खुजली सेना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य कर रही है, इस दृष्टि से यह भी समानांतर सेना नहीं है भी यह "देशी-सेना" से ज्यादा विशाल और भव्य सेना है, विश्व की पहली नव्य सेना है।

हमारे भारत में भी सेनाएं बनी हैं। मगर उनकी भूमिका और सीमाएं अलग हैं। ये निहायत सीमित सेनाएं रहीं हैं। जिनका कार्यक्षेत्र अपना प्रान्त या अपना राज्य रहा है।

जानते हैं जिनके बारे में।

मणिकर्णिका रानी लक्ष्मीबाई ( बॉलीवुड क्वीन कंगना राणावत का आभार जिसके कारण भारत की नवजवान पीढ़ी और कतिपय गुज़रते हुए बूढ़े लोगों को मनु का प्रच्छन्न नाम पता चला।) ने भी एक सेना बनाई थी - #दुर्गा_सेना। इसका काम झांसी की अस्मिता की रक्षा था। यह सेना शत्रु के विरुद्ध आत्म रक्षा के लिए बनी थी। पूरी तरह से महिलाओं से गठित यह सेना रानी की सेना थी और इस सेना की नायिका झलकारी बाई के निर्देश पर केवल अंग्रेजों से लड़ती थी। यह स्वतंत्रता-संग्राम की पहली सेना थी जो मुगलों की सेना से लड़नेवाली रानी दुर्गावति की याद दिलाती है।

स्वतंत्रता संग्राम के समय में एक भारतीय बालिका ने भी बच्चों की एक सेना गठित की जिसका नाम उसने "वानर-सेना" रखा। यह अंग्रेजों के विरुद्ध बनी एक ऐसी बाल सेना थी जिसने चाहे हथियार न उठाएं हों मगर देश में स्वतंत्रता संग्राम की भावना को बहुत ही भावनात्मक बल दिया। बच्चों को आंदोलन में आगे कर के यह भावनात्मक संघर्ष प्रायः हम देखते रहत हैं। इस बालिका के पिता बच्चों से बहुत प्यार करते थे। यही नहीं उन्होंने तो अपना जन्म दिन ही बच्चों को समर्पित कर दिया जिसे पिछले सालों में बल दिवस के रूप में मनाया जाता रहा। इसमें राजनीति न हो जाये इसलिए जानबूझकर उस बालिका और उसके पिता का नाम नहीं ले रहा हूं। और फिर ये पब्लिक है, ये सब जानती है।
खैर, यही बालिका बड़ी होकर भारत की पहली प्रधान मंत्री बनी। इन्हें प्रियदर्शिनी के नाम से भी जाना गया। 1971 में इस प्रधान राष्ट्र नायिका ने देश की राजकीय सेना के अलावे एक छद्म सेना बनाई जिसका उद्देश्य स्वतंत्रता का युद्ध लड़नेवाले पूर्वी पड़ोस के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को सहायता करना था। चूंकि यह मुक्ति चाहनेवाले मित्र को सहायता करने के लिए बनी थी, अतः इसका नाम रखा 'मुक्ति-वाहनी'। इसी सेना के कारण देश की पहली प्रधान मंत्री को प्रियदर्शिनी के अतिरिक्त "भवानी" का नाम मिला। प्रियदर्शिनी को भवानी कहनेवाले देश के अनूठे प्रखर प्रवक्ता बाद में देश के प्रधान मंत्री बने। मुक्ति-वाहिनी हमारे देश को मित्र राष्ट्र सौंपकर समाप्त हो गई।
एक और स्वतंत्रता संग्राम सेना बनी थी जिसकी चर्चा आनन्दमठ में मिलती है। इसका उद्देश्य भी केवल स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना था, किसी प्रकार का आतंक फैलाना नहीं। स्वतंत्रता प्राप्त होते ही यह भी समाप्त हो गयी। जाते जाते उसने हमें एक गीत दिया जिसे उसकी स्मृति में हम राष्ट्रगीत कहकर गाते हैं। जी, 'वंदे मातरम'..!
एक और सेना है, जो दिलाती तो महाशिवरात्रि के नायक 'शिव' की याद है, 'हर हर महादेव' जिसका 'महावाक्य' है, महाराष्ट्र जिसका जन्म स्थल है और महाराष्ट्र का विकास ही जिसका मूल उद्देश्य है। यह इतनी ईमानदारी से अपने प्रान्त को समर्पित है कि अपने ही राष्ट्र के अन्य राज्यों को अपने प्रान्त में बर्दास्त नहीं करती। समय समय पर अपने राज्य में बाहर से आये भारतवासियों को उधेड़कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करती रहती है। यह उल्लेखनीय है कि यह भी दूसरे देश में आतंक नहीं फैलाती। केवल अपने अस्तित्व के लिये छुटपुट आंदोलन करती है। इसका वार्षिक कार्यक्रम वेलेंटाइन डे पर प्रेमियों को मारने-पीटने का होता है। चूंकि देश के लिए इसके पास कोई राष्ट्रीय एजेंडा नहीं है, इसलिये यह भी समानांतर सेना नहीं है।

और भी बड़ी 'शक्तिशाली सेनाएं' हैं जिनका काम अपने ही देश के अन्य समूहों और संप्रदायों से लड़ना होता है। किसी का नाम लेकर विवाद नहीं करना चाहता, अतः इस मर्यादा के साथ कहना चाहता हूं कि एक शक्तिशाली सेना और है जो "जैसी करनी, वैसी भरनी" के एजेंडे पर काम करती है तथा उन फिल्मों का विरोध करने के लिए जन्मी है जो इतिहास को तोड़ मरोड़ कर जोड़ तोड़ कर प्रस्तुत करती हैं। ये भी विरोध में थोड़ा-मोड़ा तोड़-फोड़ करके दिलम निर्माताओं को ज्यादा फायदा पहुंचा देती हैं। इनको पता है कि नहीं, पता नहीं।
अभी अभी एक 'संगमी-कुम्भ' भारत के करोड़ों लोगों के आभासी कल्याण के लिए हुआ है। इसमें पौन करोड़ धर्म-सेनानियों ने अखाड़ों के नाम से भागीदारी की है। एक जगह एकत्र होकर अपनी शक्ति प्रदर्शित की है। किंतु ये धर्म के लिए, जातिवाद के लिए, कुछ जातियों के वर्चस्व के लिए, उनके सामाजिक विशेषाधिकार के लिए लड़नेवाले मठ या अखाड़े हैं। देश की धर्मप्राण जनता ही इनका 'धनाधार' है, इसलिए इनका लक्ष्य बहुत स्पष्ट है कि जनाधार को तन, मन और धन से अपने अनुकूल बनाने के लिए भक्ति में डुबाये रखो और जो भी इन्हें शिक्षित करने ला प्रयास करे उसके विरुद्ध लड़ो। इसकी सीमा पूरा राष्ट्र है लेकिन अपनों के सिवाए किसी को भी ये भयभीत या आतंकित नहीं करते। यह हमारी संस्कृति है कि सेना से अधिक हम इन धर्म-सेनानियों पर प्रतिदिन कर रहे हैं।

अगर ये सब सेनाएं एक होकर देश की समानांतर ताकत बन जाएं, देश के आर्थिक विकास के लिए जुट जाएं तो क्या पड़ोस की धर्म-सेना हमारे देश में आतंक फैलाने के लिये अस्तित्व में रह सकती है?

यह प्रश्न मैंने विनम्रतापूर्वक पूछा है। राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं, भारतीय हूं और इन दिनों "जैश" (सेना) पर सघन चिंतन चल रहा है इसलिए प्रसंगवश यह जिज्ञासा मेरे अंदर जाग गयी है। कृपया अन्यथा न लें।

@ डॉ. रा. रामकुमार,
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी,
महाशिवरात्रि,
4.3.19, 10.00 बजे प्रातः

Comments

Popular posts from this blog

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।...

मार्बल सिटी का माडर्न हॉस्पीटल

उर्फ मरना तो है ही एक दिन इन दिनों चिकित्सा से बड़ा मुनाफे़ का उद्योग कोई दूसरा भी हो सकता है, इस समय मैं याद नहीं कर पा रहा हूं। नहीं जानता यह कहना ठीक नहीं। शिक्षा भी आज बहुत बड़ा व्यवसाय है। बिजली, जमीन, शराब, बिग-बाजार आदि भी बड़े व्यवसाय के रूप में स्थापित हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य आदमी की सबसे बड़ी कमजोरियां हैं, इसलिए इनका दोहन भी उतना ही ताकतवर है। हमें जिन्दगी में यह सीखने मिलता है कि बलशाली को दबाने में हम शक्ति या बल का प्रयोग करना निरर्थक समझते हैं, इसलिए नहीं लगाते। दुर्बल को सताने में मज़ा आता है और आत्मबल प्राप्त होता है, इसलिए आत्मतुष्टि के लिए हम पूरी ताकत लगाकर पूरा आनंद प्राप्त करते हैं। मां बाप बच्चों के भविष्य के लिए सबसे मंहगे शैक्षणिक व्यावसायिक केन्द्र में जाते हैं। इसी प्रकार बीमार व्यक्ति को लेकर शुभचिन्तक महंगे चिकित्सालय में जाते हैं ताकि जीवन के मामले में कोई रिस्क न रहे। इसके लिए वे कोई भी कीमत चुकाना चाहते हैं और उनकी इसी कमजोरी को विनम्रता पूर्वक स्वीकार करके चिकित्सा व्यवसायी बड़ी से बड़ी कीमत लेकर उनके लिए चिकित्सा को संतोषजनक बना देते हैं। माडर्न ...

चूहों की प्रयोगशाला

( चींचीं चूहे से रेटसन जैरी तक ) मेरे प्रिय बालसखा , बचपन के दोस्त , चींचीं ! कैसे हो ? तुम तो खैर हमेशा मज़े में रहते हो। तुम्हें मैंने कभी उदास ,हताश और निराश नहीं देखा। जो तुमने ठान लिया वो तुम करके ही दम लेते हो। दम भी कहां लेते हों। एक काम खतम तो दूसरा शुरू कर देते हो। करते ही रहते हो। चाहे दीवार की सेंध हो ,चाहे कपड़ों का कुतरना हो , बाथरूम से साबुन लेकर भागना हो। साबुन चाहे स्त्री की हो या पुरुष की, तुमको चुराने में एक सा मज़ा आता है। सलवार भी तुम उतने ही प्यार से कुतरते हो , जितनी मुहब्बत से पतलून काटते हो। तुम एक सच्चे साम्यवादी हो। साम्यवादी से मेरा मतलब समतावादी है, ममतावादी है। यार, इधर राजनीति ने शब्दों को नई नई टोपियां पहना दी हैं तो ज़रा सावधान रहना पड़ता है। टोपी से याद आया। बचपन में मेरे लिए तीन शर्ट अलग अलग कलर की आई थीं। तब तो तुम कुछ पहनते नहीं थे। इसलिए तुम बिल से मुझे टुकुर टुकुर ताकते रहे। मैं हंस हंस कर अपनी शर्ट पहनकर आइने के सामने आगे पीछे का मुआइना करता रहा। ‘आइने के सामने मुआइना’ , अच्छी तुकबंदी है न! तुम्हें याद है ,तुम्हारी एक तुकबंद कविता किताबों में छप...