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आज दोपहर में अपने आठ वर्षीय दौहित्र को मैंने स्मार्ट टीवी स्क्रीन में 'नेट फ्लिक्स' के ज़रिए 'द बॉस बेबी' देखते हुए पकड़ लिया। वह कभी खिलखिलाकर हंस रहा था और कभी संवेदनशील होकर ख़ामोशी के नाख़ून कुतरने लगता था।
लिविंग-रूम में वह अकेला था। खाना खाकर मामा काम से बाज़ार जा चुके थे, मम्मी और डैडी स्कूल की प्रिंसिपल के साथ मीटिंग में थे। दोपहर के दो बज रहे थे, नानी भी मास्टर-बेड-रूम में सोने जा चुकी थी। बचा मैं (नाना) जो फैंटम की तरह कभी स्टडी-रूम में पुस्तकों के पहाड़ों को खोदकर, दसरथ मांझी की भांति एक सरल और सुगम रास्ता निकालने में लगा हुआ था, जिससे निरन्तर पानी की तलाश में भटकती बहत्तर बसन्त पी कर भी प्यास से तड़पती ज़िंदगी को दो घूंट सुरति का अमृत मिल सके। बीच-बीच में भौतिक कण्ठ सूखता तो पानी पीने रसोई में जाना पड़ता था। रसोई कक्ष लिविंग-रूम के दाईं ओर था।
पानी लेकर मैं भी लिविंग रूम में लगे सोफे पर, दौहित्र के बगल बैठकर पानी पीने लगा। और मैंने देखा कि वह 'द बॉस बेबी' देख रहा है। मैं भी देखने लगा।
फ़िल्म बहुत सुंदर, सुगठित और चित्ताकर्षक थी। निश्चत रूप से किसी सम्वेदनशील रचनात्मक लेखक की संकल्पनाओं के पंखों से चित्रित वह कथा थी।
सात वर्षीय टिम टेम्पलटन के जीवन में एक नया बच्चा आता है। वह टिम के माता पिता के साथ कार में आता है। उसे उसका भाई बताया जाता है।
छोटे बच्चे के आते ही धीरे-धीरे टिम पर माता पिता कम ध्यान देते लगते हैं, क्योंकि उनका सारा ध्यान नए बच्चे पर होता है। उसके माता पिता उसकी बातें कम सुनते थे और छोटे बच्चे की ज्यादा। टिम को भी कहा जाता था कि वह उस बच्चे का ज्यादा ख्याल रखे। टिम को ऐसा लगने लगा कि जैसे वह बच्चा घर का बॉस है, मालिक है। उसने टिम का स्थान ले लिया था बल्कि उससे भी ज्यादा उसके सारे अधिकार भी। उसे लगने लगा कि 'वह छोटा बच्चा पूरे घर को अपनी इंच भर की छोटी उंगली पर नचाने लगा है।' जानबूझकर वह छोटा बच्चा ऐसा कुछ करता कि सब उसकी सेवा में लग जाते। यहां तक कि वह जानबूझकर टिम को नीचा दिखाने के बहाने ढूंढता और माता-पिता टिम को डांटते।
अपनी स्थिति उस बच्चे के सामने तुच्छ होती देख टिम उससे ईर्ष्या करने लगा। उससे छुटकारा पाने के उपाय करने लगा। इस परिवर्तन को माता पिता ने परख लिया। बड़े बच्चे
और छोटे बच्चे के बीच बढ़ते तनाव और टिम के छोटे बच्चे के प्रति उपेक्षा को देखते हुए एक दिन माता पिता ने दोनों को एक कमरे में तब तक के लिए बंद कर दिया जब तक दोनों के बीच प्यार नहीं पनप जाता।(assignment).
एक कमरे में बंद टिम ने अपने प्रतिद्वंद्वी छोटे बच्चे से पूछा कि तुम ऐसे क्यों हो और कहां से आये हो?
अब यहां लेखक की संकल्पना देखते बनती है। जिसे बॉस बेबी के रूप में चित्रित किया गया है, उस छोटे बच्चे द्वारा लेखक यह कहलवाता है कि एक फैक्टरी है जहां बॉस बेबी बनते हैं। वह वहीं से आया है और एक ऐसी कम्पनी का पता करने आया है जो छोटे पपी बनाते हैं। पप्पी (कुत्ते के पिल्ले) के बनने से माताओं का बेबीज़् (छोटे बच्चों) से लगाव कम हो गया है। इससे बॉस बेबी (छोटे बच्चे) बनाने वाली कम्पनी को बहुत नुकसान हो रहा है। पिल्लों की मांग अधिक हो गयी है और बच्चों की कम। अगर उस पिल्ले बनानेवाली कम्पनी का
पता लग गया तो वह वापस लौटकर बॉस बेबी बनाने वाली के सी.ई.ओ. को खबर करेगा ताकि वह पिल्ले बनानेवाली कम्पनी के सी.ई.ओ. की खबर ले सके।
बड़ा बच्चा छोटे बच्चे के वापस जाने की बात से खुश हो जाता है। वह छोटे बच्चे के साथ उसके मिशन में मदद करने के लिए तैयार हो जाता है। 'एक लक्ष्य तक जाने की योजना से दोनों में सुलह हो जाती है।' दोनों के बीच 'मैत्री'(fraternity) देखकर माता-पिता भी दोनों को कमरे की क़ैद से आज़ाद कर देते हैं। (libration)
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निष्कर्ष : अगर उद्देश्य एक हो तो मतभेद भूलकर साहचर्य का भाव नैकट्य पैदा करता है और वैमनस्य मिटाता है।
यहां ऋग्वेद का यह सूत्र स्मरण हो आता है ...
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्,
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते।। (-ऋग्वेद,मंडल १०, सूक्त १९१.२) ॐ शांति शांति शान्तिः।
और यह सूत्र भी..
सहनाववतु सहनौ भुनक्तु। सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥ ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।(कठोपनिषद/ कृष्णयजुर्वेद : तैत्तिरीय उपनिषद,/ मांडूक्य उपनिषद/कृष्ण यजुर्वेद, श्वोताश्वतररोपनिषद: अनेक विद्वान, अनेक स्रोत)
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समीक्षा :
'द बॉस बेबी' लेखिका मर्ला फ़्राज़ी की चित्र-कृति 'द बॉस बेबी' पर आधारित फ़िल्म (और सीरियल भी) है। इसका निर्देशन : टॉम मैक ग्राथ ने किया और फ़िल्म की पटकथा : माइकल मैक कूलर्स ने लिखी है। इसके निर्माता है रैमसे एन्न नैटो। 'द बॉस बेबी' 2017 की अमेरिकन एनिमेटेड जासूसी-हास्य फ़िल्म है जिसका निर्माण 'ड्रीम वर्क्स एनीमेशन' के बैनर तले हुए है तथा जिसका वितरण किया है-'ट्वेंटिएथ सेंचुरी फ़ॉक्स' ने।
ऐसी ही एक मानवीय भावना से ओतप्रोत एक बाल एनिमेटेड फ़िल्म याद आ रही है- 'स्टुअर्ट लिटिल'। 'स्टुअर्ट लिटिल' १९९९ में बनी अमेरिकन लाइव एक्शन एनिमेटेड हास्य कॉमेडी फ़िल्म है। 'ई.बी. व्हाइट' के इसी नाम ('स्टुअर्ट लिटिल')से प्रसिद्ध उपन्यास पर आधारित इस फ़िल्म का निर्माण 'कोलंबिया पिक्चर्स' नाम की प्रसिद्ध फ़िल्म निर्माण कंपनी ने किया है। एक और बड़ी कम्पनी है 'डिज्नी लैंड' जो 'कोलंबिया' और 'ड्रीम वर्क्स एनीमेशन' बच्चों में संवेदना, सह-अस्तित्व, करुणा, दया, सहायता, प्रेम, अपनत्व, शिष्टाचार, आत्मीय संबंधों आदि के उदात्त संस्कार डालने के लिए फ़िल्म बनाने के लिए प्रसिद्ध है।
भारत में यह काम 'पंचतंत्र, जातक एवं बोध कथाएं जैसी संस्कृत की पुस्तको ने किया। 'चंदा मामा' और 'चंपक' जैसी बाल पत्रिकाओं ने किया। नन्हें चूहे 'चीं चीं' पर तो हमारा बचपन फिदा था। अमेरिकन मासूम 'स्टुअर्ट लिटल' और नटखट 'चीं चीं' मुझे भाई-भाई लगते हैं। मुझे बचपन में हमेशा ऐसा लगता था कि मैं ऐसी एनिमेटेड फ़िल्म बनाऊं कि उधर से कैनेडी के साथ स्टुअर्ट लिटिल भारत में किसी समारोह में उपस्थित हो और इधर से चाचा नेहरू के साथ हमारा नटखट चींचीं शामिल हो। दोनों में गहरी दोस्ती हो और हिंदी अमेरिकन भाई भाई कहकर वे विश्व-शांति के वैश्विक-अभियान पर, विश्व भ्रमण पर निकलें। उनके होठों पर
यह श्लोक हो-
'अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥'
आज आयु के आठवें दशक में यह दुःख है कि हमसे ऐसा न हो सका, किंतु हो सकता है, इक्कीसवीं सदी में कोई
बच्चा सचमुच विश्व शांति का चिंतन करे और स्टुअर्ट लिटिल
और चींचीं को एक साथ खड़ा कर दे।
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@ डॉ. रा.रा. कुमार वेणु, २२.०३.२५, शनिवार
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