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नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से
फेसबुक के अपने पेज पर, मैंने आ. विनोदकुमार शुक्ल पर दो आलेखों की लिंक भी शामिल की थी, इस टिप्पणी के साथ... 
           यह स्मरण-पत्र विनोदकुमार शुक्ल भाई के जन्मदिन पर तैयार किया था। लगभग तीन महीने बाद जब उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और वे पुनः एक बार फिर बेहद चर्चित हुए। उन्हें कनक तिवारी जी (राजनांदगांव, दुर्ग), अशोक वाजपेई (दुर्ग, दिल्ली), राधावल्लभ त्रिपाठी (भोपाल), रवीशकुमार (दिल्ली), अशोककुमार पांडे (दिल्ली) आदि ने याद किया तो मैंने भी अपने लुप्तप्राय प्रयास को हवा में उछाल दिया। देखें कितनों के हाथ आए।

इस प्रस्तुति पर मित्र हेमंत व्यास ने अहमदाबाद से टिप्पणी की - 
"नौकर की कमीज" पुस्तक मैने हिमांशु के यहा पढी थी, उसमें राजनांदगांव की कुछ जगहों का जिक्र किया है।
उनकी इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने विनोदकुमार शुक्ल की नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव पर लिखी यह कविता भेजी, इस टिप्पणी के साथ - 

'राजनांदगांव जिसे नांदगांव कहना, नन्दूलाल जी भी सही मानते थे, विनोद कुमार जी को भी प्रिय था। इसका उल्लेख आत्मीयता के साथ उनकी एक कविता में है। 

'कविता से लंबी कविता' से साभार - 

रायपुर बिलासपुर सम्भाग

हाय ! महाकौशल , छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष
इसी में नाँदगाँव मेरा घर
कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ
इतना जिन्दा हूँ
सोचकर ख़ुश हो गया कि
पहुँचूँगा बार-बार
आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर
खूब घूमता जहाँ था
फ़लाँगता छुटपन
बचपन भर
फ़लाँगता उतने वर्ष
उतने वर्ष तक
उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे
छोटे-छोटे क़दम रखते
ज़िन्दगी की इतनी दूरी तक पैदल
कि दूर उतना है नाँदगाँव कितना अपना ।
+++
बिना जाते हुए प्लेटफ़ार्म पर खड़े-खड़े
जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के
छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन
इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा
उधर से मुसरा बाँकल
तब लगता है मैं कहीं नहीं
बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से
निहारेते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े
लिए हाथों में एक झोला
एक छोटी पेटी का अपना वज़न। --- विनोदकुमार शुक्ल 

मित्र हेमंत व्यास को यह कविता भेजने के भीतर की कहानी यह है कि विनोदकुमार शुक्ल और हेमंत के चचेरे बड़े भाई रमेश याज्ञिक जी में आत्मीय संबंध था।  

स्व. रमेश याज्ञिक (बाबूजी) विनोदकुमार शुक्ल जी और उनके चाचा  स्व. किशोरीलाल शुक्ल (पूर्व राजस्व मंत्री, म प्र) के बेहद क़रीब थे। वे किशोरीलाल जी से मिलने प्राय: सायं भ्रमण के दौरान बलदेव बाग़ स्थित उनके बंगले में जाया करते थे। रमेश भाई और किशोरीलाल जी का संबंध राजनैतिक नहीं था, अवसरवादी भी नहीं। यह निरा आत्मिक था। तब भी था, जब याज्ञिक जी कामठी लाइन में रहते थे और जैसा कि विनोदकुमार शुक्ल लिखते हैं कि वे अपने अभिभावक पितृतुल्य चाचा किशोरीलाल जी के साथ कृष्णा टॉकीज के सामने रहते थे। हालांकि १९७२ तक, जहां वे बताते हैं, वहां यानी कृष्णा टॉकीज के सामने, एक दो-मंजिला अटारी थी, जिसके नीचे माले में बाबूलाल होटल थी और ऊपर मालिक स्व. बाबूलाल शर्मा जी का परिवार रहता था। 

ख़ैर, रमेश याज्ञिक का बेटा हिमांशु याज्ञिक मेरा सहपाठी था और मैं साहित्य में बहुत रुचि रखता था, इन दो कारणों से मैं याज्ञिक परिवार के करीब आया। बाद में याज्ञिक जी ने लेखक संघ में भी मुझे अंगोर लिया। 

इसी परिवार में हमारे हमउम्र हेमंत व्यास से मुलाक़ात हुई। वे रिश्ते में रमेश जी के भाई और इस लिहाज़ से हिमांशु के चाचा लगते थे। अतः हेमंत भी मेरे करीब हुए। हालांकि हेमंत व्यास का परिवार डोंगरगढ़ में रहता था। लेकिन महाविद्यालयीन शिक्षण हेमंत का राजनांदगांव में ही हुआ। डोंगरगढ़ रेल मार्ग द्वारा राजनांदगांव से लगभग बीसेक मिनट दूर है। यही वे सारे सूत्र हैं  जिनके कारण मैंने मित्र हेमंत को उपर्युक्त प्रत्युत्तर दिया..... 

        - उत्तरवादी - कुमार, २६.०३.२५

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