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Showing posts from 2025

देखते रहो...

 देखते रहो... किस ओर चल रही है हवा देखते रहो। किस वक़्त पे क्या क्या है हुआ देखते रहो।  पाज़ेब पहन नाचती हैं सर पे बिजलियां, आंखों के आगे काला धुंआ देखते रहो। तक़रीर कर रहे हैं शिकारी नक़ाब में-  'ज़ुल्मों से बचाएगा ख़ुदा देखते रहो।'  अनुभव से अपनी राह चुनो जां पे खेलकर, भटकाए किताबों का लिखा देखते रहो। चारों तरफ़ है घोर घमासान मारकाट, काटेगी सियासत ही गला देखते रहो।   @ कुमार, ०१.१२.२०२५, सोमवार, १०.१५.

इस शहरे नामुराद में मेरे घर का पता

 इस शहरे नामुराद में मेरे घर का पता             घर का एक पता होता है। यह सबको पता है। जिसका घर लापता हो, उस आदमी का सबको पता होने पर भी, वह लापता ही होता है। वह लोगों की नज़र में 'न घर का होता न घाट का'। घाट भी तो अपना एक पता होता ही है जैसे असी घाट। असी घाट सबको पता है कहां है? राजघाट, शांतिघाट, विजयघाट वगैरह असी घाट की ही बिरादरी के पते हैं। जब कोई सामान्य या असमान्य आदमी उठता है तो इन्हीं घाटों में जाता है। आने वाले का पता चाहे कुछ भी हो, जाने का पता सबका एक ही होता है-श्मसान घाट। इसलिये लोग उसे कहते हैं सम-शान घाट। सबकी समान शान।              बालाघाट और बरघाट भी दो स्थान हैं, जो दक्षिण मध्यप्रदेश में हैं। संसद तक को इनका पता है। पर ये दोनों पहले चार घाटों की तरह सम-शान या श्मसान घाट नहीं हैं। इन दोनों से मेरे सम्बन्ध हैं मगर इनमें से पहला मेरा वर्तमान पता है। हालांकि यह अलग बात है कि इस बात का पता बहुत कम लोगों को है। लगभग लापता ही हूँ। पर फिर भी मेरा एक घर है, जहां में हमेशा लौटकर आता हूँ। इस पर एक मुहाव...

छठी का दूध याद आना

छठी का दूध याद आना 26.11.2025, बुधवार, बालाघाट।  26 नवंबर आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, वाणिज्यिक, प्रभुता सम्पन्न भारत के लिए महत्वपूर्ण दिन है।   इसे वर्त्तमान पीढ़ी के समक्ष संविधान दिवस के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इस इतिहास के साथ कि हमने अंग्रेजों की दो सौ वर्षीय आर्थिक, वाणिज्यिक और नागरिक दासता के विरुद्ध लड़कर 1947 की आज़ादी पाई थी। उसके बाद लगभग दो वर्ष की कड़ी मेहनत, विचार विमर्श, दूरदर्शिता, आदि के बाद अपना सबसे बड़ा वृहत्तम संविधान तैयार कर लिया था। संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वंत्रत भारत के मनोनीत राष्ट्रपति मा. राजेन्द्र प्रसाद जी के हस्ताक्षर 26 नवंबर 1949 को हुए थे। इसे दो महीने बाद  26 जनवरी 1950 को लागू कर लिया गया। इसी हस्ताक्षर दिवस की याद में 26 नवंबर  को संविधान दिवस मनाया जाता है, याद किया और कराया जाता है। जिनकी उम्र 75 वर्ष या उससे कम है, उन्हें इस दिन का पता कराया जाता है, ज्ञान कराया जाता है। संज्ञान में लिया जाता है कि बची खुची जिस तार तार सांवैधानिकता की सांसों का हल्का स्वर हम सुन पा रहे हैं, वह आज के दिन ही तैयार होकर आने...

भगवान बिरसा मुंडा जयंती 2

 भगवान बिरसा मुंडा जयंती पर 32 बंदी जेल से रिहा  : एक आदिमजाति विमर्श         आदिमजातीय गौरव दिवस, यानी 15 नवंबर को भगवान बिरसा मुंडा की जयंती पर, मध्यप्रदेश राज्य अपनी विभिन्न जेलों से कुल 32 कैदियों को मुक्त करने वाला 'देश का पहला राज्य' बन गया है।  यद्यपि यह रिहाई जेल प्रावधानों के तहत 'अच्छे आचरणों के आधार पर रिहाई नियम' के अंतर्गत हुई है, किंतु इसे म.प्र. सरकार ने  अपने इस कदम  को आदिम-जातीय समुदाय के गौरव को सम्मान प्रदान करनेवाला "ऐतिहासिक कदम" बताया है।            मुक्त किए गए 32 कैदियों में जबलपुर जेल से 6 बंदी (5 पुरुष, 1 महिला), ग्वालियर सेंट्रल जेल से एक पुरुष बंदी शामिल है।  कटनी और छिंदवाड़ा सहित अन्य जिलों की जेलों से भी कैदियों को रिहा किया गया। इन 32 कैदियों में से केवल 9 आदिवासी समुदाय से संबंधित हैं।              मध्य प्रदेश सरकार की नई नीति के अनुसार, अब साल में कुल पांच बार जेल से कैदियों की रिहाई की जाएगी-1. 26 जनवरी (गणतंत्र दिवस), 2. 15 अगस्त (स्वतंत...

बिरसा मुंडा : उलगुलान

बिरसा मुंडा 'धरती आबा'(धरती पिता) (15 नवंबर 1875 - 9 जून 1900) जन्म स्थल : ग्राम-सिंजुड़ी टोला-बाहम्बा खुटकटी गांव-उलिहातु, राँची जिला, बंगाल प्रेसिडेंसी (अब खूँटी जिला, झारखंड) बिरसा मुंडा एक भारतीय आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी और मुंडा जनजाति के लोक नायक थे। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 के दशक में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम सुगना पुर्ती (मुंडा) और माता का नाम करमी पुर्ती (मुंडा) था। साल्गा गाँव में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद वे चाईबासा (गोस्नर इवेंजेलिकल लुथरन चर्च) विद्यालय में पढ़ाई करने चले गए। उन्होंने ब्रिटिश राज के दौरान 19वीं शताब्दी के अंत में बंगाल प्रेसीडेंसी (अब झारखंड) में हुए एक आदिवासी धार्मिक सहस्राब्दी आंदोलन का नेतृत्व किया, जिससे वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गए। भारत के आदिवासी उन्हें भगवान मानते हैं और 'धरती आबा' नाम से भी जाना जाता है। 'उलगुलान' (आदिवासी विद्रोह) के नायक बिरसा मुंडा-                 19वीं शताब्दी के अंत में अंग्रेजों ने कुटिल नीति अपनाकर आदिवासियों को...

कटोगे तो विकास करोगे!

 कटोगे तो विकास करोगे! जंगल से जल ज़मीन छीन खोद खदानें, शेरों को सब्ज़ बाग़ दिखाती है सियासत। बंदूक फेंक दी है निहत्थे हुए हैं फिर,  मज़बूर मुल्क में हुई बे-दख़्ल बग़ाबत।           @ कुमार,०६.११.२५, गुरुवार, ०८०९ जंगल से कटे तो मिले शहरों के क़त्लगाह, वनवासी कभी शेर थे अब बैल बनेंगे। ख़ूँखार ज़िंदगी की कलाबाज़ियाँ गईं, चालाकियाँ के देश में ये खेल बनेंगे।          @ कुमार, ०७.११.२५, शुक्रवार, ०७.३९ काटें ज़मीन से तुम्हें आकाश बनाएं। सूरज के, चांद तारों के सपनों से सजाएं। तुम पैर की जूती हो तुम्हें ऐसे उछालें, यूं मुफ़्त में दुनिया की तुम्हें सैर कराएं।          @ कुमार, ०७.११.२५, शुक्रवार, ०७.५१

मिट्टी मेरे गॉंव की

  मिट्टी मेरे गॉंव की मचल रही है बहुत दिनों से पनहीँ मेरे पांव की। शायद मुझको बुला रही है मिट्टी मेरे गॉंव की।। आंगन में जलते दीपक का सुबह शाम यह काम था।  आये-जाये कोई सबसे लेता खरा प्रणाम था।  घर मेरा, आंगन मेरा था बेशक चौरा मेरा, लेकिन सबकी अपनी थी वह  तुलसी मेरे गाँव की। नित सुख दुःख की सभा बनी थी,  मौलशिरी की छांव घनी। आम, नीम, जामुन की छाया,   कड़ी धूप में ठाँव बनी। इन चारों से चौपालें अब पंचायत क्या बन पातीं, बनी रसीली पंच पांचवीं  इमली मेरे गाँव की।     अमराई की ठंडी-ठंडी याद बसी मन में अब भी। रोक सकेंगे मुझको आख़िर नगरों के झंझट कब तक।  बुला रहीं हैं जाने कब से यादों की दादी नानी,  हाट, बाट, नदिया तट, पनघट, चक्की मेरे गॉंव की। मन में बढ़ता सन्नाटा है, बाहर इतनी भीड़ बढ़ी।  तर्जन, वर्जन, धूल, धुआं की जाली मेरे नीड़ चढ़ी। स्थगनों के अम्बारों में व्यस्त विवशता ढूंढ रही, मिले कहीं निर्मल निर्झर-सी चिट्ठी मेरे गॉंव की।                               ...

राजनांदगांव के विनोदकुमार शुक्ल के हॉस्पिटल में भर्ती होने का समाचार सुनकर..

क्यों भैया! क्या राजनांदगांव स्टेशन आ गया? इस्मिती आदबन ने  घर को हमारे कितने साल दिए होंगे? याद करता हूं तो हार जाता हूं  अपने जन्म तक भी नहीं पहुंच पाता  अपने ही जन्म का किसको पता कब शुरू हुआ? कोई बताएगा क्या? मुझे ही इस्मिती आदबन ने कभी कभी बताया था-  "इन्हीं हाथों में आंख खोली थी तुमने छोटे भैया! मैया तो बेहोश थी तुम्हें जनमते ही... सब तो उन्हें संभालने में लग गए  तुम्हें कौन संभालता? मैं ही न? और अब तुम आकाश छूने लगे!! तुम्हारा मुंह देखना हो तो गर्दन दुखती है, पर सच्ची छोटे भैया! छाती जुड़ा जाती है... खूब बढ़ो!" मां ने बताया था कि जन्म से ही उसने   मुझे बुलाया था - 'छोटे भैया!' राजनांदगांव के रानी सागर के नीचे  जो बस्ती है  बसंतपुर जानेवाली गाड़ादान को छूती यादवों की  उसी बस्ती में रहती थी वह इस्मिती मौसी.. दूध, दही सब वही लाती थी हमारे घर  और ढक्कन खोलते ही घर भर में खुशबू भर दे  ऐसा कड़काया गया घी.. एक बस्सी में मिश्री मिलाकर तो मैं ही  सबसे पहले भोग लगाता था  जब जब घी आता था 'उसकी जुबान में मक्खन था और बातों मे...

अपनी सोच, अपनी अभिव्यक्ति

अपनी सोच, अपनी अभिव्यक्ति हर किसी की अपनी सोच, अपनी फ़ितरत, अपना स्वभाव, अपनी प्रकृति-प्रवृत्ति, अपने अनुभव-प्रभाव, अपना चेतन-अवचेतन, अपना व्यावहारिक मानस मंडल होता है। उसी के अनुरोध-बल पर किसी बात के व्यक्ति अपने अर्थ लेता है, अपनी व्याख्या करता है। जोश मलीहाबादी की एक ग़ज़ल है - नक्शे ख़याल दिल से मिटाया नहीं हुनूज़।  बेदर्द मैंने तुझको भुलाया नहीं हुनूज़।। रेख़्ता और कविता कोश में यह ग़ज़ल मिलती है। उस्ताद मेंहदी हसन ने इसे बहुत दिलकश अंदाज़ में गाया है। इस गाई हुई ग़ज़ल में एक अलग शे'र  है, जो दोनों स्रोतों में नहीं मिलता। वह यह है - तेरी ही जुल्फ़ेनाज़ का अब तक असीर हूं, यानी किसी के काम में आया नहीं हुनूज़। जुल्फ़ेनाज़ : ज़ुल्फ़ के नखरे, नखरीली ज़ुल्फ़। असीर : गिरफ़्तार, मुब्तिला।। हुनूज़ : अब तक, अभी तक। अर्थात तेरे जुल्फ़ों के नखरों का यानी लटों के तरह तरह से बनाने और उनको बनाकर इतराने में ही इतना गिरफ़्तार हो चुका हूं, उनका ऐसा प्रभाव हुआ है कि मन वितृष्णा, ऊब से भर गया। अब किसी की जुल्फों की जानबूझकर लटकाई गई लटों को देखकर मन मितलाता है। मेहनत कर के बिखरी छोड़ी गई लटों के हम का...

काली_पुतली_चौक_की_चौपाटी_में_भारत_माता_और_आदिवासी_अस्मिता_का_सवाल

  काली_पुतली_चौक_की_चौपाटी_में_भारत_माता_और_आदिवासी_अस्मिता_का_सवाल 6 सितंबर 2025 को बालाघाट के इतिहास में एक और पुतली स्थापित हुई। चार सिंहों के रथ पर सवार 'भारत माता' (राष्ट्र पिता के बरक्स राष्ट्र माता) की रंगीन फाइबर प्रतिमा स्थापित की गई। शरद पूर्णिमा और महर्षि वाल्मीकि जयंती के अवसर पर इस प्रतिमा का स्थापित किया जाना  नगरपालिका अध्यक्ष की विशेष उपलब्धि बताया जा रहा है।  बालाघाट जीरो माइल पर स्थित 'काली पुतली' चौक हमेशा से  अपने नाम और लोकेशन (क्षेत्र स्थिति) के लिए प्रसिद्ध है। इस नामकरण का कारण इस चौक के बीचों बीच स्थापित काली प्रतिमा है। यह प्रतिमा सिर्फ कलात्मकता के कारण स्थापित की गई हो और उसका और कोई निहितार्थ हो, सामान्यतः इस पर विश्वास करना मुश्किल है।  जानकारी के अभाव में इस पर किसी प्रकार का कयास लगाना भी उचित नहीं है।  काली पुतली चौक जिस बिंदु पर स्थापित है वह छः मार्गों का संगम है।  एक बालाघाट गोंदिया मैन रोड, जो हनुमान चौक से जुड़ती है, सर्किट हाउस रोड पर स्थित अम्बेडकर चौक से आने वाली कनेक्टिंग रोड, जयस्तम्भ चौक से आनेवाली रोड, पुरानी...

पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा

 विहंगम्य (पांडुलिपि चर्चा/समीक्षा ) ' तृण पुष्पों का संचय': डॉ. रवींद्र सोनवाने डॉ. रवींद्र सोनवाने मेरे महावियालीन साथी रहे हैं। गणित के प्राध्यापक होने के साथ साथ वे साहित्य, इतिहास, समाजविज्ञान के भी गम्भीर अध्येता हैं। सामाजिक सरोकार के क्षेत्र में भी उनका पर्याप्त योगदान है। लगातार उनसे विचार विमर्श होते रहता है। कुछ दिन पूर्व ही उन्होंने बताया कि उनका तीसरा स्वतंत्र काव्य संकलन प्रकाशनाधीन है। वे चाहते हैं कि कोई टिप्पणी, भूमिका या समीक्षा उस पर लिख दूँ, ताकि रचना का एक दृष्टि से मूल्यांकन हो जाये।  मैं द्विविधा में पड़ गया।  घनिष्ठ रचनाकार के लेखन पर लिखित रूप से कुछ व्यक्त करने की अपनी सुविधाएं भी हैं और दुविधाएं भी। सुविधा यह कि रचना कर्म की सूक्ष्मतर जानकारी आपको उपलब्ध रहती है और दुरूहता या अस्पष्टता की स्थिति में चर्चा कर हल निकाला जा सकता है।  दुविधा मतभेद की स्थिति में होती है। चिंतन, विचारधारा, परिस्थियों के प्रति अपने अपने दृष्टिकोण, मान्यताएं, आग्रह दुराग्रह आदि स्वाभाविक मानवीय द्वंद्व हैं। लेखन में इससे ऊपर और हटकर भी मतभेद स्वाभाविक है। भाषा, बिम्...

शानी का पूरा नाम

 शानी का पूरा नाम ...  'नाम में क्या रखा है।' यह बड़ा लोकप्रिय कथन है और अंग्रेजी लैटिन के जानकार बताते हैं कि विलियम शेक्सपीअर के किसी नाटक में कोई पात्र यह कथन करता है। लेकिन सच्चाई यही है कि अधिकांश लोग धन, जन, काम और नाम के लिये ही जीते हैं। उसे ही पुरुषार्थ मानते हैं।  पर देखा यह जाता है व्यक्ति के काम के पीछे उसका नाम गौण होकर, काम की पीठ पर सवार होकर चलता रहता है। पैरासाइट की तरह , पिस्सू या अमरबेल की तरह। आज भी कालिदास का मूल नाम किसी को नहीं मालूम। तुलसीदास  का नाम रामबोला भी अनुमान या कथा ही है। राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, धूमिल आदि के नाम जानने के लिए हड़प्पा की वापी खोदनी पड़ती है।  मैं भी कुछ क्षण के लिए इस चक्कर में पड़ गया। मैं उन लोगों में से नहीं हूं जिनका भरोसा ज्ञान के मामले में भी कट्टर 'मैं' को अंगद की तरह एक स्थान पर जमाये रखते हैं। आस्था के मामले में एक ही बात को आंख मूंदकर पकड़े रखना भक्ति की सार्थकता हो सकती है। तर्क के हाथपांव बांधकर पत्थर के साथ कसकर समुद्र में फेंक देना सच्चा अनुगमन हो सकता है,  मगर ज्ञान के रास्ते में निरंतर तार्कि...

गुलशेर खां शानी : शालवनों का द्वीप

  गुलशेर खां शानी: शालवनों का द्वीप गुलशेर खां शानी             ज़िद आख़िर ज़िद होती है। कुछ मिले न मिले, बात लग जाये तो फिर पहाड़ खोद कर रास्ते निकालना मुश्किल नहीं होता। अब चाहे फरहाद हो या दशरथ मांझी, या मुझे भी इस फेहरिस्त में शामिल होने में कोई शर्म या झिझक नहीं।            बड़ी निराशा, व्यथा और पीड़ा की बात है कि बहुत ही ज़रूरी और महत्व की मूल्यवान पुस्तकें अब न दुकानों में मिलती न ऑन लाइन विक्रेताओं के पास। पीडीएफ तक नहीं। कहाँ गयी किताबें? कैसी साजिशों और किसकी साजिशों का शिकार हो गईं ये?              पिछले दशकों में, शायद नब्बे के दशक से बस्तर, नक्सल, सलवा जुडूम, एस पी ओ, आदि बहुत चर्चित हुए हैं। जंगल सत्याग्रह, जल, जंगल और ज़मीन, आदिवासी विमर्श, और बस्तर का असंतोष बड़ी चरचा में हैं। जंगल काटकर उद्योग स्थापित करना या इमारती लकड़ियां स्मगल करना एक परम्परा की तरह अंग्रेजों के समय से चला आ रहा। वनवासियों का शोषण बेगारी, विस्थापन सब आम बात की तरह हर सरकार का अघोषित एजेंडा रहा है। वन कर्मियो...

एक अनमोल पार्सल

एक_मूल्यवान_पार्सल अपने मित्र हिमांशु याज्ञिक ने राजनांदगाँव की चर्चित कवियों और गद्यकारों की वे कृतियां भेजी जो लगभग लुप्तप्राय है। ये हैं ख्यातिलब्ध एवं अनेक सम्मानों से सम्मानित, 'सवेरा संकेत ' के नींव-नियामक( शरद कोठारी के समग्र साथी) # रमेश_याज्ञिक (बाबूजी, हिमांशु के पिताजी), प्रखर और प्रचंड कवि # नन्दूलाल_चोटिया ( शरद कोठारी, मुक्तिबोध और रमेश याज्ञिक के मंडल के मुखर सदस्य), प्रमुख प्रगतिशील कवि # मलय ( शिवकुमार शर्मा 'मलय', मुक्तिबोध के स्थानापन्न, हरिशंकर परसाई के अनुज, प्रगतिलेखक संघ राजनांदगाँव  के संस्थापक महासचिव, मेरे गुरु और सचेतक), प्रगतिशील लेखक संघ राजनांदगाँव के संस्थापक सचिव # प्रो_पुन्नी_सिंह_यादव (प्रमुख प्रगतिशील कथाकार और उपन्यासकार,), # प्रो_शरद_गुप्ता ( हिमांशु और मेरे दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक, मुक्तिबोध के विपात्र के एक पात्र, मेरे हिंदी विभागाध्यक्ष गुरु, प्रख्यात लेखक # डॉ_गणेश_खरे , के सहयोगी और शोधार्थी छात्र)। यथासंभव यथासमय  इन पर ' राजनांदगांव की साहित्यिक विरासत' के अंतर्गत चर्चा करेंगे। 

शहरी और जंगली मदनमस्त

एक चरण और, प्रकृति की ओर.... मदनमस्त की भोर                                                      एक एक कवि की विवशता और लाचारी देखिए, लिखता है- लिपटकर उसके आंचल में न आंचल को समझ पाया। पड़े रहकर भी पांवों में न पायल को समझ पाया। वो दिल थी और धड़कन थी मेरी रग-रग में बहती थी, सदी थी मां  मैं' ही उसके न इक पल को समझ पाया।                                  (10.08.25, रविवार, भाद्र प्रतिपदा) यही हम सबका क़िस्सा हैं। हम जिसके जितने निकट होते हैं उसे उतना ही नहीं समझ पाते। मां की आंखें, मां की थपकी, मां का लाड़, प्यार, दुलार, उसका माथा सहलाना, पीठ थपथपाना, उससे लिपट जाना, कितनी नज़दीकी है मां से, पर हम उसके हाथ की रेखाएं भी कभी नहीं देख पाते। उसकी आंखों में ही कितना झांक पाते है? हमने उसकी उंगलियों की गठाने और उसके पांव के छाले कहां देखें है। उसकी हंसी में इतना जादू होता है...

रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी'

  रक्षाबंधन का पवित्र पर्व 'राखी' '       पुजारी गण प्रत्येक पुण्य अवसर पर कलाइयों में कलावा बांधते समय जिस मंत्र का पाठ करते हैं, वह प्रसिद्ध  श्लोक यह है-                         येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबल:               तेन त्वाम् प्रतिबद्धनामि, रक्षे माचल माचल:। ।            अर्थात जिसने दानव राज राजा बलि को बांध लिया, उसे मैं तुम्हें बांधकर प्रतिबद्ध करती हूं कि अचल रूप से मेरी  रक्षा करने से विचलित न होना।                        इस श्लोक के पीछे एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है कि पराक्रमी राजा बलि से देवताओं की रक्षा के लिए, वामन रूप में विष्णु ने तीन पग भूमि मांगी जो बलि ने प्रमादवश स्वीकार कर ली।                  तुरन्त विराट होकर विष्णु ने पृथ्वी और पाताल ले लिया। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सिर आगे कर दिया...

जंगल जीवेषणा

  बाघ-द्वीप की जंगल जीवेषणा                           सिंहावलोकन             जंगल जीवेषणा का अर्थ है "जंगल में जीने की कला, जीवन यापन का उद्यम,  जंगल के वातावरण के अनुकूल जीवन शैली,  जंगल के हिंसक और आक्रामक पशुओं से निपटने का कौशल, जंगल की दुर्गमताओं और दुरूहताओं का ज्ञान आदि। भोजन, पानी, आश्रय, आवागमन, समूह निर्माण और सहजीविता की रीति नीति।       यह बातें उन पर लागू होती है जो जंगल को ही अपना घर बनाकर उसमें रहते हैं लेकिन जंगल के जीवन के अध्येताओं और पर्यटकों के लिए इनकी जीवन शैली और मानसिकता को पढ़ना और उसके अनुकूल अपनी अध्ययन सामग्री जुटाना या आनंद बटोरना  जंगल जीवेषणा के अतिरिक्त बिंदु हैं।         पर्यटकों के लिए सामान्य तौर पर बनी हुई राजकीय वन विभागीय व्यवस्था के अंतर्गत जंगल के सौंदर्य, वन्य प्राणियों को देखना ही ध्येय है। वन्य प्राणियों के अतिरिक्त वनवासी भी पर्यटन का लक्ष्य होना चाहिए था लेकिन आधुनिक काल में वनवासियों ...

सब कैसे हैं?

 नवगीत : चलकर पूछूं सब कैसे हैं? संकोचों का  क्या उत्पादन, बहुत दिनों से सोच रहा हूं, चलकर पूंछू,  सब कैसे हैं?  आदर्शों की भूलनबेली,  उपवन में मन को छू बैठी, डहरी भूल गए सब सपने। हड़बड़ सुबहें झटपट भागीं,  तपती दो-पहरों से आगे, रात गयी ना लौटे अपने।  अनजाना पथ, लोग अपरिचित,  चित्र विचित्र भविष्य तुम्हारे, तुम्हीं बताओ,  ढब कैसे हैं?  सूरज को देखो तो लगता,  पड़ा घड़ा ख़ाली सिरहाने, जिसमें मुझको पानी भरना।  किस-किस के हिस्से का जीना,  जीवन है बेनामी खाता,  सांसों को बेगारी करना।  'हां' कहकर 'दर-असल' हुए जो,  'जब भी वक़्त मिलेगा तब' के, झूठे वादे,  अब कैसे हैं?  कैसी है पथरीली छाती,  जिस पर दुःख के शीशे टूटे, छल से छलनी दिल कैसा है? सब संतापों के छुपने को, ख़ामोशी की खुदी बावली,  उसका निचला तल कैसा है? भावुकता के क्षीण क्षणों में,  पथ के हर पत्थर को भी जो,  रब कहते थे,  लब कैसे हैं?  @कुमार, ०३.०७.२०२१, मध्य-रात्रि ००.१९  शब्दार्थ : उत्पादन : प्रोडक्ट, परिणाम, उपादान, उपलब...

मछुआरे का गीत

  मछुआरे का गीत : नवीन गीतल , ० मोह प्राण के सतत बिसारे, तट पर रखकर कूल किनारे।  मन के राजा हैं मछुआरे, उनसे हारे सागर खारे।। यदि मन में विश्वास प्रबल हो, तन का जीवन बढ़ जाता है, अगर विफलता लांघ सको तो, सदा सफलता बाट बुहारे।। मोल नहीं है कुछ सांसों का, दो कौड़ी है जिस्म की' क़ीमत, सपनों के इस मुर्दाघर में, कोई कैसे किसे पुकारे।। जगवाले हैं स्यार रंगीले, आंखों का काजल छल लेंगे, इंद्रजाल के जलसाघर में, मृगतृष्णा से सभी सहारे।।  हैं भविष्य के बाज़ीगर सब, आशा का पासा फेंकेंगे, 'इनको' घर से बेघर करके, 'उनके' होंगे बारे न्यारे।।                                     @ डॉ. रा. रा. कुमार 'वेणु ',  17-18.07.25, गुरु-शुक्र, (आधार छन्द -चौपाई,मात्रा बन्ध-16,16 )
गुरुपूर्णिमा दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं! संस्कृत ग्रंथों में एक श्लोक प्रसिद्ध है-          अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।             चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥ *शब्दार्थ*: अज्ञान के अंधे-अंधेरे से बंद आंखों (चक्षुओं) को ज्ञान अंजन युक्त शलाका से जो खोलता है, उस गुरु को नमन! भावार्थ : एक परम्परा सिखाती है, शिक्षित और दीक्षित करती है कि आंख मूंदक तथाकथित गुरुओं पर भरोसा कर लो और वही करो जो वह कहता है, वही देखो जो वह दिखाता है। इसका लाभ स्वार्थी और पाखंडी गुरुओं को बहुत होता है।         किंतु एक परम्परा वह भी है जहां व्यक्ति को तार्किक बनाया जाता है, वैज्ञानिक दृष्टि जिसे दी जाती है और जिसे आंख मूंदकर भरोसा करने की न शिक्षा दी जाती, न दीक्षा। इस परंपरा के गुरु आंख खुली रखकर दुनिया का अध्ययन, सत्य का परीक्षण करने के लिए निरन्तर सचेत करते हैं। वास्तव में ऐसे ही आंख खोलकर जीने का ज्ञान और विवेक का अभ्यास कराने वाले मार्गदर्शक अथवा गुरु को ही नमन है। तस्मै श्री गुरुवै नमः का यही अर्थ है- *उ...