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Showing posts from 2025

एक चतुष्पदी /मुक्तक और ग़ज़ल

 एक चतुष्पदी , (चौपड़, चौसर)...तीसरी पंक्ति के मुक्त होने से- मुक्तक , टुकड़ा या क़ता (क़िता) और पूरी ग़ज़ल ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर  तरफ़ खंढर क़िले, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा,थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।                                         @ कुमार, २८-३० मई २५ 0 और ये ग़ज़ल , (छन्द पूर्णिका, निपुणिका,  बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन) ० जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया। मिले हर  तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया। बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा, थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम, रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।         जो भी सोचता,जो भी बोलता,कहा ख़ुद से,ख़ुद ने सुना किया, मैं रहा ख़ुदी से ख़ुदा तलब, मेरा हर असर मेरे सर गया।   मेरी आरज़ू थीं मुहब्बतें, मुझे हर क़दम मिली नफ़रतें, मेरी चाहतें हुईं चाक ...

अच्छा लगता है, क्यों लगता है?

अच्छा लगता है, क्यों लगता है?        यह सब अच्छा लगता है कि किसी को साहित्य का पुरस्कार मिला। अपने प्रिय गीतकार लेखक साहित्यकार को मिलनेवाले ये पुरस्कार हमें ख़ुशी के सिवाय और क्या देते हैं? वास्तव में हम उनसे चाहते भी क्या हैं? फिर क्यों अच्छा लगता है? हम तो सिर्फ़ एक साधारण पाठक हैं या उस क्षेत्र के प्रति रुचिवान लोग हैं। उसे जानते नहीं, वह हमें नहीं जानता। फिर क्यों होती है यह प्रसन्नता? इसकी क्या सार्थकता है हमारे जीवन में? जिसे मिला है उसके जीवन में इसकी सार्थकता हो सकती है। उसका उसे लाभ होगा, उसकी प्रतिष्ठा होगी। हमारा क्या? बैठे बिठाए की यह निरर्थकता किसलिए? यह इसलिए क्योंकि यह हमारे जीवन के उस रुझान की प्रसन्नता है, जिससे जुड़कर या जुड़े रहकर हमें प्रसन्नता होती है। इसी प्रसन्नता के लिए अथवा इसी प्रसन्नता के भरोसे तो जीवन में गतिशीलता आती है, सक्रियता आती है, जीवन हल्का बना रहता है। यही इस प्रसन्नता की सार्थकता है। एक अदृश्य, अनदेखी, अनाकार, अभौतिक मात्र आत्मिक अस्तित्व रखनेवाली यह प्रसन्नता इसलिए भी सार्थक है क्योंकि जो कुछ भी भौतिक मिलता है उसकी सार्थकता भी...

अंतर्ध्वनि

अंतर्ध्वनि शब्दों का ध्वन्यार्थ-विचलन और सम्वेदनाओं का संश्लेषण शब्दों की अपनी अंतर्ध्वनि होती है। श्रुतियों के गव्हर में उसकी अनुगूंज यथावत भी हो सकती है और तथागत भी। तथागत अर्थात जो ग्राही जैसा है, उसी के अनुरूप। स्मृतियों की रंगभूमि तक आते आते यह अनुगूंज जिस प्रतिध्वनि में बदल जाती है, वह अन्तरानुभूति से विरेचित होकर अपना मूल स्वरूप खो भी सकती है। इसलिए प्रायः अच्छी स्मृति और बुरी स्मृति की चर्चाएं होती रहती हैं। श्रुतियों और स्मृतियों का चरित्र शब्दों की अंतर्ध्वनि में शताब्दियों से विचलन के ही उत्पाद देता रहा है। अंतर्बोध और युगबोध ने शब्दों को श्रुतियों और स्मृतियों के खलबट्टे में कूटकर बड़े उपद्रव किये हैं। जिन्हें श्रुतियों और स्मृतियों का संस्करण कहा जाता है वह वास्तव में अपने मूल का विचलन ही है। एक बहुचर्चित शब्द है- यथार्थ, उसका अपना ही एक अर्थ है। वह वस्तुगत है, अन्य शब्दों में वास्तविक है। साधारण लोक में इसका अर्थ सत्य के पर्यायवाची के रूप में दैनिक और भौतिक हो गया है। अर्थ-साम्य की अवस्था या स्थिति में जब अनुभूतियां गुंजित होती हैं तो शब्द का समर्थन-मूल्य 'यथार्थ ...

असफलताओं के मलबों से फूट पड़ती हैं प्रतिभाएं

 असफलताओं के मलबों से फूट पड़ती हैं प्रतिभाएं   एक आजन्म संघर्षशील होने के नाते मुझे हमेशा किसी सफल व्यक्ति की असफलताओं और संघर्ष की कहानी पढ़ने में रोमांच होता रहा है। ऐसी ही एक कहानी मुझे आज (८.५.२५ ) अचानक मिली। यथावत प्रस्तुत। (यथासंभव सरल अनुवाद के साथ) ० लगभग डेढ़ सौ साल पहले 1864 में कैमिली जन्मी और 1943 में मर गई। दुनिया उसे पागलखाने में ठूंसकर भूल गई थी। क्या थी उसकी कहानी? कैमिली उस समय कला का अध्ययन करने पेरिस आई थी जब पुरुषों के लिए इकोले डेस बिआकस खुला था। वह हतोत्साहित नहीं हुई। वह महिलाओं के कलाघर से जुड़ गई। वहां वह नामवर शिल्पकार ऑगस्टे रोडीन से मिली और उसकी मुरीद हो गई। उनका संबंध बहुत गहरा और प्रगाढ़ था, उन्होंने मिलकर ढेरों कलाकृतियां बनाई। उनकी संयुक्त कृतियां आज भी रोडीन म्यूज़ियम और म्यूजी डी आर्से की शोभा हैं।  लेकिन रोडिन तो लंबे समय से ही किसी अन्य महिला से  संबंध बनाए हुए था, आख़िर वह कैमिली को छोड़कर चला गया। इस घटना के बाद रोडिन की भी प्रतिष्ठा को कलंकित हुई और कैमिली को भी लज्जित होना पड़ा। वह अपमान, बहिष्कार और अवसाद में घिर गई। कला से ...

अप्रैल फूल दिवस है एक मूर्ख बनाओ दिवस

  1अप्रैल 2025, मंगलवार अप्रैल फूल दिवस है एक मूर्ख बनाओ दिवस मि. अल्वर्ड विकी ने बड़ी शालीन भाषा में इस दिवस, अप्रैल फूल, मूर्ख दिवस,सकल मूर्ख दिवस को महिमामण्डित करते हुए लिखा है :' अप्रैल फूल दिवस ' पश्चिमी देशों में प्रत्येक वर्ष पहली अप्रैल को मनाया जाता है। कभी-कभी इसे ऑल फ़ूल्स डे (सकल मूर्ख दिवस)के नाम से भी जाना जाता हैं।  अप्रैल आधिकारिक छुट्टी का दिन नहीं है परन्तु इसे व्यापक रूप से एक ऐसे दिन के रूप में जाना और मनाया जाता है जब एक दूसरे के साथ व्यावाहारिक परिहास और सामान्य तौर पर मूर्खतापूर्ण हरकतें की जाती हैं। इस दिन मित्रों, परिजनों, शिक्षकों, पड़ोसियों, सहकर्मियों आदि के साथ अनेक प्रकार की नटखट हरकतें और अन्य व्यावहारिक परिहास किए जाते हैं, जिनका उद्देश्य होता है, बेवकूफ और अनाड़ी लोगों को शर्मिंदा करना।" वैसे देखा जाए तो आज जिसको प्रैंक कहते हैं वह बहुत पुराना खेल है। कुछ ऐसा कहना, करना या दिखाना जिसे  सामनेवाला व्यक्ति सच मन जाए। इसका उद्देश्य धोखा देकर नुकसान पहुंचाना नहीं है, बस लोकरंजन है, मज़े लेना है।  परम्परा बन गई है कि एक अप्रैल को लोग मूर...

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से फेसबुक के अपने पेज पर, मैंने आ. विनोदकुमार शुक्ल पर दो आलेखों की लिंक भी शामिल की थी, इस टिप्पणी के साथ...             यह स्मरण-पत्र विनोदकुमार शुक्ल भाई के जन्मदिन पर तैयार किया था। लगभग तीन महीने बाद जब उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और वे पुनः एक बार फिर बेहद चर्चित हुए। उन्हें कनक तिवारी जी (राजनांदगांव, दुर्ग), अशोक वाजपेई (दुर्ग, दिल्ली), राधावल्लभ त्रिपाठी (भोपाल), रवीशकुमार (दिल्ली), अशोककुमार पांडे (दिल्ली) आदि ने याद किया तो मैंने भी अपने लुप्तप्राय प्रयास को हवा में उछाल दिया। देखें कितनों के हाथ आए। ० इस प्रस्तुति पर मित्र हेमंत व्यास ने अहमदाबाद से टिप्पणी की -  "नौकर की कमीज" पुस्तक मैने हिमांशु के यहा पढी थी, उसमें राजनांदगांव की कुछ जगहों का जिक्र किया है। ० उनकी इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने विनोदकुमार शुक्ल की नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव पर लिखी यह कविता भेजी, इस टिप्पणी के साथ -  'राजनांदगांव जिसे नांदगांव कहना, नन्दूलाल जी भी सही मानते थे, विनोद कुमार जी को भी...

समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य : विनोद कुमार शुक्ल

 समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य :  विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं           'विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता के वृहत्तर परिदृश्य में अपनी विशिष्ट भाषिक बनावट और संवेदनात्मक गहराई के लिए जाने जाते हैं।' ये विशिष्ट विशेषताएं कविताएं ही बताएं, 'सब कुछ होना बचा रहेगा' काव्य संग्रह से कुछ कविताएं   1.      जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे / विनोद कुमार शुक्ल  जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊँगा। +++ पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत कभी नहीं आयेंगे मेरे घर खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा। जो लगातार काम से लगे हैं मैं फुरसत से नहीं उनसे एक जरूरी काम की तरह मिलता रहूँगा।-- इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा। 2. समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य / विनोद कुमार शुक्ल  समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य इस तरह डूब रहा था कि पश्चिम की दिशा भी उसके साथ डूब रही थी।  समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है सूर्य एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह जो निकलने की कोश...

नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा

जन्म दिन विशेष : नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा   साहित्य के कंचनजंगा और कैलाश पर अपने नाम का ध्वज लहराने का सपना देखनेवाली नई पीढ़ी के लिए भारतेंदु युग, द्विवेदी युग या छायावादी युग साहित्यिक सफ़र के पड़ाव यानी थकान मिटाने के केंद्र हो सकते हैं, किंतु शायद प्रेरक-चषक न हों कि जिनका एक घूंट भरकर उत्साह और ऊर्जा मिल जाए। साहित्यिक पीढी की एक और बिरादरी, जो पढ़ने या लिखने अथवा लिखने और पढ़ने के कई युग बिताकर, कुछ उपलब्धियों के पदक और स्मृतिचिन्हों को बाजमौकों में चमकाकर अथवा झाड़-पोंछकर अपने अतीत से जुड़कर ताज़ा हवा का झोंका लेते रहते हैं, उनके लिए साहित्य के आधुनिक काल की हस्तियां अभी भी पुरानी पड़ गईं आयुर्वेदिक औषधियों की भांति कीमती और फायदेमंद हो सकती है। इनके अलावा तात्कालिक लाभ, ठहाके और तालियों के बीच राष्ट्रीयकरण के कोलाज में कृत्रिम साहित्य का फ्लेवर डालकर चटखारे लेनेवाली इलेक्ट्रॉनिक्स पीढी के लिए दस साल पुरानी प्रतिभा और ट्रेंड भी एंटीक हो जाता है, दकियानूस और बकवास हो जाता है। वे उनका नाम लेना भी पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं।  ऐसा ही एक नाम है महादेवी वर्मा...

दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल - १

 १ जनवरी जन्मदिन पर विशेष संस्मरण दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल   ०  एक जनवरी का आना तारीख और सन से भरे कैलेंडर का बदलना ही है। रात के बारह बजे के बाद तारीख के बदलने के अतिरिक्त और बदलता क्या है? बदलने की कुछ अप्रिय यादों को धक्का देकर दूर धकेलने का अभ्यास लोगों ने कर लिया है। अब तो मनोचिकित्सकों के परामर्श के अनुसार बेहतर और स्वस्थ अनुभव करने के लिए अच्छा सोचो या सोचने का बहाना करो या वह भी नहीं कर सकते तो केवल आइने में ख़ुद को देखकर मुस्कुराने का अभ्यास करो। इस मुस्कान को असाधारण बनाने का अभ्यास करो। इससे बाहर कुछ हो न हो, तुम्हारे अंदर कुछ अच्छा घटेगा। मन चंगा होगा और 'मन चंगा तो कठौती में गंगा...'  इक्कीसवीं सदी का सन 2025 सिर्फ़ साल का बदलना नहीं है। यह वर्ष इस सदी का रजत जयंती वर्ष है। अर्थात् अब जो भी होगा, रजत जयंती का स्मारक होगा। हम सब की उपस्थिति रजत जयंती है। साल भर अब जो भी अकस्मात आएगा वह रजत जयंती आगंतुक होगा।  पर इस बार कुछ नया हो गया।  सुबह सुबह इस चाव में थे कि नए साल की बधाइयां दोस्तों और प्रियजनों को देंगे। ज़रा चाय पीकर गए साल...

द बॉस बेबी : बाल मनोविकार पर फ़िल्म

द बॉस बेबी :  बाल मनोविकारों पर आधारित एक संवेदनशील अमेरिकन फ़िल्म। ०            आज दोपहर में अपने आठ वर्षीय दौहित्र को मैंने स्मार्ट टीवी स्क्रीन में 'नेट फ्लिक्स' के ज़रिए 'द बॉस बेबी' देखते हुए पकड़ लिया। वह कभी खिलखिलाकर हंस रहा था और कभी संवेदनशील होकर ख़ामोशी के नाख़ून कुतरने लगता था।           लिविंग-रूम में वह अकेला था। खाना खाकर मामा काम से बाज़ार जा चुके थे, मम्मी और डैडी स्कूल की प्रिंसिपल के साथ मीटिंग में थे। दोपहर के दो बज रहे थे, नानी भी मास्टर-बेड-रूम में सोने जा चुकी थी। बचा मैं (नाना) जो फैंटम की तरह कभी स्टडी-रूम में पुस्तकों के पहाड़ों को खोदकर, दसरथ मांझी की भांति एक सरल और सुगम रास्ता निकालने में लगा हुआ था, जिससे निरन्तर पानी की तलाश में भटकती बहत्तर बसन्त पी कर भी प्यास से तड़पती ज़िंदगी को दो घूंट सुरति का अमृत मिल सके। बीच-बीच में भौतिक कण्ठ सूखता तो पानी पीने रसोई में जाना पड़ता था। रसोई कक्ष लिविंग-रूम के दाईं ओर था।         ...

महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया

  महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया   एक व्यंग्य गीत : भूरी आँखें      ० भूरी आँखें नहीं तो, कुंभ में रखा है क्या? कुम्भ की जान हैं ये, धर्म का प्राण हैं ये,  शास्त्र का सार हैं ये, पढ़ ज़रा लिखा है क्या।  ये गज़ल, गीत का उनवान हैं, रस, छन्द हैं ये।  मायावादी इन्हें कहते हैं कि छल-छन्द हैं ये।  और ख़य्याम, गुप्त, पंत या बच्चन के लिये, मद्य हैं, फूल हैं, मधुरस भरे मकरंद हैं ये।  सोमरस, रामरस पीकर भी जिन्हें होश रहे, उनसे पूछो कि 'नयन-रस' कभी चखा है क्या?  इनके दर्शन में नवों दर्शनों की गहराई।  त्याग, संयम नहीं संन्यास, समझ ये आई। पाप और पुण्य हैं बेकार की बातें, सच्ची, जिसने इन आँखों में डुबकी ली तो मुक्ती पाई।  आज संगम में नहाने का अर्थ ज्ञात हुआ, हम यहां देखने क्या आये थे, दिखा है क्या? आदमी चाहता कुछ है, उसे मिल जाता कुछ। दांव में क्या-क्या लगाता कि हाथ आता कुछ। मन में पलते हुए अरमान धरे रह जाते, सोचता कुछ है, मगर वक़्त है, दिखाता कुछ। वो जो चाहेगा वही देगा, लाख सर पटको,  शिव के उपहार हैं ये नेत्र, कुछ बचा है क्या? @कुमार, २१....