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Showing posts from 2025

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से

नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव : विनोदकुमार शुक्ल की दृष्टि से फेसबुक के अपने पेज पर, मैंने आ. विनोदकुमार शुक्ल पर दो आलेखों की लिंक भी शामिल की थी, इस टिप्पणी के साथ...             यह स्मरण-पत्र विनोदकुमार शुक्ल भाई के जन्मदिन पर तैयार किया था। लगभग तीन महीने बाद जब उन्हें भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला और वे पुनः एक बार फिर बेहद चर्चित हुए। उन्हें कनक तिवारी जी (राजनांदगांव, दुर्ग), अशोक वाजपेई (दुर्ग, दिल्ली), राधावल्लभ त्रिपाठी (भोपाल), रवीशकुमार (दिल्ली), अशोककुमार पांडे (दिल्ली) आदि ने याद किया तो मैंने भी अपने लुप्तप्राय प्रयास को हवा में उछाल दिया। देखें कितनों के हाथ आए। ० इस प्रस्तुति पर मित्र हेमंत व्यास ने अहमदाबाद से टिप्पणी की -  "नौकर की कमीज" पुस्तक मैने हिमांशु के यहा पढी थी, उसमें राजनांदगांव की कुछ जगहों का जिक्र किया है। ० उनकी इस टिप्पणी के उत्तर में मैंने विनोदकुमार शुक्ल की नांदगांव उर्फ़ राजनांदगांव पर लिखी यह कविता भेजी, इस टिप्पणी के साथ -  'राजनांदगांव जिसे नांदगांव कहना, नन्दूलाल जी भी सही मानते थे, विनोद कुमार जी को भी...

समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य : विनोद कुमार शुक्ल

 समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य :  विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं           'विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता के वृहत्तर परिदृश्य में अपनी विशिष्ट भाषिक बनावट और संवेदनात्मक गहराई के लिए जाने जाते हैं।' ये विशिष्ट विशेषताएं कविताएं ही बताएं, 'सब कुछ होना बचा रहेगा' काव्य संग्रह से कुछ कविताएं   1.      जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे / विनोद कुमार शुक्ल  जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे मैं उनसे मिलने उनके पास चला जाऊँगा। +++ पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब असंख्य पेड़ खेत कभी नहीं आयेंगे मेरे घर खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा। जो लगातार काम से लगे हैं मैं फुरसत से नहीं उनसे एक जरूरी काम की तरह मिलता रहूँगा।-- इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा। 2. समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य / विनोद कुमार शुक्ल  समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य इस तरह डूब रहा था कि पश्चिम की दिशा भी उसके साथ डूब रही थी।  समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है सूर्य एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह जो निकलने की कोश...

नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा

जन्म दिन विशेष : नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा   साहित्य के कंचनजंगा और कैलाश पर अपने नाम का ध्वज लहराने का सपना देखनेवाली नई पीढ़ी के लिए भारतेंदु युग, द्विवेदी युग या छायावादी युग साहित्यिक सफ़र के पड़ाव यानी थकान मिटाने के केंद्र हो सकते हैं, किंतु शायद प्रेरक-चषक न हों कि जिनका एक घूंट भरकर उत्साह और ऊर्जा मिल जाए। साहित्यिक पीढी की एक और बिरादरी, जो पढ़ने या लिखने अथवा लिखने और पढ़ने के कई युग बिताकर, कुछ उपलब्धियों के पदक और स्मृतिचिन्हों को बाजमौकों में चमकाकर अथवा झाड़-पोंछकर अपने अतीत से जुड़कर ताज़ा हवा का झोंका लेते रहते हैं, उनके लिए साहित्य के आधुनिक काल की हस्तियां अभी भी पुरानी पड़ गईं आयुर्वेदिक औषधियों की भांति कीमती और फायदेमंद हो सकती है। इनके अलावा तात्कालिक लाभ, ठहाके और तालियों के बीच राष्ट्रीयकरण के कोलाज में कृत्रिम साहित्य का फ्लेवर डालकर चटखारे लेनेवाली इलेक्ट्रॉनिक्स पीढी के लिए दस साल पुरानी प्रतिभा और ट्रेंड भी एंटीक हो जाता है, दकियानूस और बकवास हो जाता है। वे उनका नाम लेना भी पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं।  ऐसा ही एक नाम है महादेवी वर्मा...

दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल - १

 १ जनवरी जन्मदिन पर विशेष संस्मरण दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल   ०  एक जनवरी का आना तारीख और सन से भरे कैलेंडर का बदलना ही है। रात के बारह बजे के बाद तारीख के बदलने के अतिरिक्त और बदलता क्या है? बदलने की कुछ अप्रिय यादों को धक्का देकर दूर धकेलने का अभ्यास लोगों ने कर लिया है। अब तो मनोचिकित्सकों के परामर्श के अनुसार बेहतर और स्वस्थ अनुभव करने के लिए अच्छा सोचो या सोचने का बहाना करो या वह भी नहीं कर सकते तो केवल आइने में ख़ुद को देखकर मुस्कुराने का अभ्यास करो। इस मुस्कान को असाधारण बनाने का अभ्यास करो। इससे बाहर कुछ हो न हो, तुम्हारे अंदर कुछ अच्छा घटेगा। मन चंगा होगा और 'मन चंगा तो कठौती में गंगा...'  इक्कीसवीं सदी का सन 2025 सिर्फ़ साल का बदलना नहीं है। यह वर्ष इस सदी का रजत जयंती वर्ष है। अर्थात् अब जो भी होगा, रजत जयंती का स्मारक होगा। हम सब की उपस्थिति रजत जयंती है। साल भर अब जो भी अकस्मात आएगा वह रजत जयंती आगंतुक होगा।  लेकिन वह कहते हैं न'श्रेयांसि बहु विघ्नानी' और यह भी कि 'प्रथमग्रासे माक्षिका पाते..'  सुबह सुबह इस चाव में थे कि नए साल की...

द बॉस बेबी : बाल मनोविकार पर फ़िल्म

द बॉस बेबी :  बाल मनोविकारों पर आधारित एक संवेदनशील अमेरिकन फ़िल्म। ०            आज दोपहर में अपने आठ वर्षीय दौहित्र को मैंने स्मार्ट टीवी स्क्रीन में 'नेट फ्लिक्स' के ज़रिए 'द बॉस बेबी' देखते हुए पकड़ लिया। वह कभी खिलखिलाकर हंस रहा था और कभी संवेदनशील होकर ख़ामोशी के नाख़ून कुतरने लगता था।           लिविंग-रूम में वह अकेला था। खाना खाकर मामा काम से बाज़ार जा चुके थे, मम्मी और डैडी स्कूल की प्रिंसिपल के साथ मीटिंग में थे। दोपहर के दो बज रहे थे, नानी भी मास्टर-बेड-रूम में सोने जा चुकी थी। बचा मैं (नाना) जो फैंटम की तरह कभी स्टडी-रूम में पुस्तकों के पहाड़ों को खोदकर, दसरथ मांझी की भांति एक सरल और सुगम रास्ता निकालने में लगा हुआ था, जिससे निरन्तर पानी की तलाश में भटकती बहत्तर बसन्त पी कर भी प्यास से तड़पती ज़िंदगी को दो घूंट सुरति का अमृत मिल सके। बीच-बीच में भौतिक कण्ठ सूखता तो पानी पीने रसोई में जाना पड़ता था। रसोई कक्ष लिविंग-रूम के दाईं ओर था।         ...

महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया

  महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया   एक व्यंग्य गीत : भूरी आँखें      ० भूरी आँखें नहीं तो, कुंभ में रखा है क्या? कुम्भ की जान हैं ये, धर्म का प्राण हैं ये,  शास्त्र का सार हैं ये, पढ़ ज़रा लिखा है क्या।  ये गज़ल, गीत का उनवान हैं, रस, छन्द हैं ये।  मायावादी इन्हें कहते हैं कि छल-छन्द हैं ये।  और ख़य्याम, गुप्त, पंत या बच्चन के लिये, मद्य हैं, फूल हैं, मधुरस भरे मकरंद हैं ये।  सोमरस, रामरस पीकर भी जिन्हें होश रहे, उनसे पूछो कि 'नयन-रस' कभी चखा है क्या?  इनके दर्शन में नवों दर्शनों की गहराई।  त्याग, संयम नहीं संन्यास, समझ ये आई। पाप और पुण्य हैं बेकार की बातें, सच्ची, जिसने इन आँखों में डुबकी ली तो मुक्ती पाई।  आज संगम में नहाने का अर्थ ज्ञात हुआ, हम यहां देखने क्या आये थे, दिखा है क्या? आदमी चाहता कुछ है, उसे मिल जाता कुछ। दांव में क्या-क्या लगाता कि हाथ आता कुछ। मन में पलते हुए अरमान धरे रह जाते, सोचता कुछ है, मगर वक़्त है, दिखाता कुछ। वो जो चाहेगा वही देगा, लाख सर पटको,  शिव के उपहार हैं ये नेत्र, कुछ बचा है क्या? @कुमार, २१....