महाकुंभ, मोनालिसा और मीडिया एक व्यंग्य गीत : भूरी आँखें ० भूरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा है क्या? कुम्भ की जान हैं ये, धर्म का प्राण हैं ये, शास्त्र का सार हैं ये पढ़ ज़रा लिक्खा है क्या। ये गज़ल, गीत का उनवान हैं, रस, छन्द हैं ये। मायावादी इन्हें कहते हैं कि छल-छन्द हैं ये। और ख़य्याम, गुप्त, पंत या बच्चन के लिये, मद्य हैं, फूल हैं, मधुरस भरे मकरंद हैं ये। सोमरस, रामरस पीकर भी जिन्हें होश रहे, उनसे पूछो कि 'नयन-रस' कभी चक्खा है क्या? इनके दर्शन में नवों दर्शनों की गहराई। त्याग, संयम नहीं संन्यास, समझ ये आई। पाप और पुण्य हैं बेकार की बातें, सच्ची, जिसने इन आँखों में डुबकी ली तो मुक्ती पाई। आज संगम में नहाने का अर्थ ज्ञात हुआ, हम यहां देखने क्या आये थे, दिक्खा है क्या? आदमी चाहता कुछ है, उसे मिल जाता कुछ। दांव में क्या-क्या लगाता कि हाथ आता कुछ। मन में पलते हुए अरमान धरे रह जाते, सोचता कुछ है, मगर वक़्त है, दिखाता कुछ। वो जो चाहेगा वही देगा, लाख सर पटको, शिव के उपहार हैं ये नेत्र, कोई भिक्षा है क्या? @कुमार, २१.०१....