एक चतुष्पदी, (चौपड़, चौसर)...तीसरी पंक्ति के मुक्त होने से- मुक्तक, टुकड़ा या क़ता (क़िता) और पूरी ग़ज़ल
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जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया।
मिले हर तरफ़ खंढर क़िले, मैं जहां गया, मैं जिधर गया।
बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा,थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम,
रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।
@ कुमार, २८-३० मई २५
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और ये ग़ज़ल, (छन्द पूर्णिका, निपुणिका,
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन)
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जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया।
मिले हर तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया।
और ये ग़ज़ल, (छन्द पूर्णिका, निपुणिका,
बहरे कामिल मुसम्मन सालिम, रुक्न- मुतफ़ाइलुन)
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जहां कोई भी थी न रहगुज़र, मैं वहां वहां भी गुज़र गया।
मिले हर तरफ़ खंढर मुझे, मैं जहां गया, मैं जिधर गया।
बड़ा अजनबी ये सफ़र रहा, थी मुसाफ़िरों की ज़ुबां क़लम,
रहा देखता, जो गया, गया, गईं बस्तियां, वो शहर गया।
जो भी सोचता,जो भी बोलता,कहा ख़ुद से,ख़ुद ने सुना किया,
मैं रहा ख़ुदी से ख़ुदा तलब, मेरा हर असर मेरे सर गया।
मेरी आरज़ू थीं मुहब्बतें, मुझे हर क़दम मिली नफ़रतें,
मेरी चाहतें हुईं चाक सब, मेरा घर तमाम बिखर गया।
मैं था गांधियों की ज़मीन पर, मेरे साथ भी ये सलूक था,
वो विलायती थे कि थे पेशवा, जां उतारते थे उतर गया।
@ कुमार, २८-३० मई २५
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(नोट : जो साहित्य के रामदेव बाबा ग़ज़ल के ऊपर गीतिका अथवा पूर्णिका का बिल्ला चिपकाकर अपनी दुकान चला रहे हैं, उनसे सावधान।)
(नोट : जो साहित्य के रामदेव बाबा ग़ज़ल के ऊपर गीतिका अथवा पूर्णिका का बिल्ला चिपकाकर अपनी दुकान चला रहे हैं, उनसे सावधान।)
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