महाप्राण निराला
हिंदी साहित्य के काल-विभाजन में छायावाद एक युगीन पड़ाव है। इस युग की प्रतिभा चतुष्टयी में आयु-क्रम से प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी ये चारों अपनी अपनी नितांत भिन्न प्रवृत्तियों के लिए जाने जाते हैं। प्रसाद अपने इतिहास बोध के लिए, निराला अपने प्रखर यथार्थ बोध के लिए, पंत अपने प्रकृति प्रेम और महादेवी करुणा की अभिव्यक्ति के लिये।
प्रतिभा का द्रवीकरण नहीं होता इसलिए उनका यौगिक नहीं बनता। एक मिश्रण की तरह किसी काल-पात्र में रहकर भी अपने वस्तु-स्वरूप, विचार-रंग और ध्येय-आस्वाद के कारण वे अलग से पहचान में आ जाती हैं।आज की तिथि/तारीख 15 अक्टूबर को निराला जी की मृत्यु हुई थी। यह एक प्रसंग हो सकता है कि उनकी याद की जाए, उनकी रचनाओं की चर्चा की जाए। लेकिन जिनकी प्रतिभा, लेखन और वैचारिकी ने अपने युग में रचनात्मक क्रांति की है, वे क्या किसी दिन, दिनांक या प्रसंग की प्रतीक्षा करते हैं? न जाने कब कब और किस किस प्रसंग में वे याद आते ही रहते हैं। जीवन सभी के सरल नहीं है, सबके लिए दुष्कर और कठिन है। यह बात अलग है कि जीवन को बहुमूल्य मानकर संघर्षों को महत्त्व नहीं देते। ऐसे ही अपने मरणांतक जीवन-संघर्ष और यथार्थ-बोध के कारण वे महाप्राण कहलाये और जीवन के प्रति अपने जीवंत रवैए के कारण निराला हुए।
यद्यपि निरालाजी छायावाद के युगीन काल-पात्र में आयु के आधार पर दूसरे क्रम में आते हैं, तथापि उन्होंने अपना अलग ही प्रभाव-क्षेत्र निर्मित किया। वे अपने चयनित पात्रों के कारण रोज़ कहीं न कहीं दिख जाते हैं। जहां एक ओर उनकी लंबी कविताएं - 'सरोज स्मृति', 'तुलसीदास' और 'राम की शक्ति पूजा' क्रमशः आत्यंतिक दुख, मोहभंग और संघर्ष की पृष्ठभूमि में आंदोलित करनेवाली रचनाएं हैं, वही दूसरी ओर उन्होंने समाज में छोटे समझे जाने वाले 'भिक्षुक' और 'पत्थर तोड़ने वाली'(वह तोड़ती पत्थर) पर भी अपनी निर्व्याज संवेदना व्यक्त की और कविताएं लिखीं। ऐसी रचनाएं केवल कथ्य के कारण ही नहीं वरन अपनी संवेदनशीलता के कारण जनमानस में ठहर गईं। उनकी 'देवी', 'चतुरी चमार' जैसी गद्य रचनाओं (कहानियों) का आज भी याद-कदा जिक्र आ ही जाता है।
यहां प्रस्तुत है उनकी भिक्षुक पर लिखी एक प्रतिनिधि कविता, जिसका अंत अपनी संवेदना के कारण सीधा मस्तिष्क पर प्रभाव छोड़ती है.
*भिक्षुक*
वह आता
दो टूक कलेजे को करता,
पछताता पथ पर आता।
पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक,
चल रहा लकुटिया टेक,
मुट्ठी भर दाने को —
भूख मिटाने को
मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता —
दो टूक कलेजे के करता पछताता
पथ पर आता।
साथ दो बच्चे भी हैं सदा हाथ फैलाए,
बाएँ से वे मलते हुए पेट को चलते
और दाहिना दया दृष्टि-पाने की ओर बढ़ाए।
भूख से सूख ओठ जब जाते
दाता-भाग्य विधाता से क्या पाते?
घूँट आँसुओं के पीकर रह जाते।
चाट रहे जूठी पत्तल वे सभी
सड़क पर खड़े हुए,
और झपट लेने को उनसे कुत्ते भी
हैं अड़े हुए !
ठहरो! अहो मेरे हृदय में है अमृत,
मैं सींच दूँगा
अभिमन्यु जैसे हो सकोगे तुम
तुम्हारे दुख मैं अपने हृदय में खींच लूँगा।
- *सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला* "
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