गीत : हम भी रुके नहीं।। (स्थायी : १६,१० /अंतरा : १६,१२) हम जब अपना दर्द संभाले, उठकर खड़े हुए, तुम भी हम को रोक न पाए, हम भी रुके नहीं।। भोले बचपन ने भविष्य की, कुछ गुठलियां उछाली। सात गगन से ऊपर उसने, अपनी नगरी पा ली। दिशा-दशा के, दूर-पास के सपने सरस सजाकर, आंखों के रंगीन देश में, दुनिया नई बसा ली। जहां हमेशा मधुऋतु रहती, पतझर कभी न आता, अमृत-निर्झर बहे रात-दिन, फिर भी चुके नहीं। फिर प्रचंड यौवन ने उड़ना सीख लिया, अनजाने। घात लगाए गिद्धों के थे, नभ पर ताने बाने। पाना-खोना, मिलन-विरह की सतरंगी घटनाएं, दिल को जीने के सिखलातीं, सौ जीवंत बहाने। भीड़-भाड़ में जुगत भिड़ा कर, रस्ता बना लिया है, इस हिसाब चले कि गाड़ी, अपनी ठुके नहीं। बहियां सारी फाड़ रहे हैं, जला रहे सब खाते। कच्चे-चिट्ठे पढ़ते-लिखते, हम कितने थक जाते। आवक-जावक, आय-व्ययों के, घातक समीकरण में, केवल उलझन ही उलझन हैं,इनसे सुलझ न पाते । ऊंचे-ऊंचे भव्य-गगन की, आकाशी गंगा की, कथा सुनाते झुकी कमर पर, सपने झुके नहीं। ** @ आर. आर. कुमार वेणु, २-१६.१०.१९, फ्लैट 205, किंग्स कैसल रेजीडेंसी, ऑरम सिटी, नवेगांव...