यश दड़बों में बंद
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लहक-चहक कर गीत-ग़ज़ल ने,
उम्र गुज़ारी, फिर -
धूल खा रहीं रचनावलियाँ,
यश-दड़बों में बंद।
जो कुछ मिला है उससे बेहतर,
पाने की आशा है।
दुनिया को लफ़्ज़ों से ज़्यादा,
जिन्सों की इच्छा है।
इसीलिए मंचों पर सजकर
और संवरकर रहते,
कमरों में साजिश रचते हैं,
मिले-जुले छल-छंद।
परिश्रमों की एक तमन्ना,
मिले दिहाड़ी, जाएं।
जो कुछ आ जाये इतने में,
उसे बांटकर खाएं।
जगी हुई चिंता से सुख दु:ख,
कहते नींद भरे,
आख़िर बिस्तर हो जाते हैं,
अंधियारों के खंद।
भूखी-वंचित, दीन-हीन,
बेबस-निर्बल लाशों को।
रौंद चले नासा इसरो,
हथियाने आकाशों को।
उन्नत शीत-युद्ध में उलझी,
कूटनीतियाँ,
जिसमें
अपने-अपने ताने-बाने,
अपने-अपने फंद।
@१०.१२.२२
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