मोर संग चलव रे उर्फ संगच्छध्वम्
किसी भी शहर की सुंदरता, सुगढ़ता और जीवंतता की रीढ़ उस शहर के मजदूर हुआ करते हैं जो अनेक भेष में हमें मिल जाते हैं। कोई रिक्शा खींच रहा है, कोई हाथ ठेला पर भरे हुए बारदाने ढो रहा है। कोई गड्ढे खोद रहा है, घास खरपतवार उखाड़ रहा है, बगीचे साफ़ कर रहा है। मजदूरों को काम करते हुए देखकर ही लगता था कि शहर के फेफड़े कैसे और किनसे धड़कते हैं। एक तरह से जीवन की धड़कने सुनने मैं उस राह से गुज़रता था जहां मजदूर दिखाई पड़ते थे।
राजनांदगांव में उस समय बंगाल नागपुर कॉटन मिल (कपड़े का कारखाना) हुआ करती थी। इस कारखाने में ही जगत्प्रसिद्ध मच्छरदानियाँ बना करती थीं। शाम को साढ़े पांच - छः के आसपास कारखाने के सामने कतारों में बैठे हुए मजदूर, अपने सामने बैठी हुई अपनी पत्नियों द्वारा लाया हुआ भोजन या कलेवा करते थे। मेरे लिए यह दृश्य दुख, पीड़ा और सुख की द्वंद्वात्मक अनुभूति कराया करते थे। फिर भी, मैं प्रायः रोज़ उसी रास्ते का उपयोग करता था, जो आगे चलकर रानी सागर के सामने से गुज़रते राष्ट्रीय राजमार्ग 7 उर्फ़ गांधी नेहरू रोड पर खुलता था।
उस दिन भी मैं इसी रास्ते गुज़र रहा था। मज़दूर बैठे भोजन कर रहे थे। पत्नियां अपने घुटनों के ऊपर कुहनियां टिकाए आंखों से पतियों के चेहरे की तुष्टियों का वज़न ले रहीं थीं। तभी बायीं ओर बसी मिल कॉलोनी से ट्रांज़िस्टर में एक लोकस्वर गूंज उठा। स्वरलहरी और संगीत इतना कर्णप्रिय था कि मेरे पांव वहीं जम गए..अकाशवाणी से आते गीत के एक-एक शब्द जैसे मजदूरों के लिए ही थे। गीत के बोल सीधे मेरे दिमाग़ में जब्त होते चले गए।
बोल थे...
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी।
*
{मेरे जैसे समर्पित पाठकों और रसिकों के लिए पूरा गीत इस प्रकार है....
मोर संग चलव रे!, मोर संग चलव जी!!
मोर संग चलव ग!!!, मोर संग चलव रे!!!!
ओ गिरे, थके, हपटे मन!
अउ परे, डरे मनखे मन!
मोर संग चलव रे, मोर संग चलव जी
अमरइआ कस जूड़-छांव मैं मोर संग बैठ जुड़ा लव।
पानी पी लव मैं सागर अउं, दुख पीरा बिसरा लव।
नया जोत लव, नवा गांव बर, रस्ता नवा गढ़व रे...मोर संग चलव रे,
मैं लहरी अवं मोर लहर मं फरव फुलव हरयावव।
महानदी मैं अरपा, पैरी, तन मन धो फरया लव।
कहां जाहु बड़ दूर है गंगा पापी इहें तरव रे...मोर संग...
बीपत संग जूझे बर भाई मैं बाना बाँधै हवं।
सरग ल पिरथी मं ला देहूं प्रन अइसन ठानै हवं।
मोर सुमत के सरग नसैनी हिलमिल सबै चढ़व रे...मोर संग}
गीत का संबंध सीधा-सीधा गिरे, पड़े, हपटे, थके, डरे, मनुष्यों से अर्थात अर्थ-विहीन, निर्धन, असहाय, निराश, हताश लोगों से था। गीतकार उनको समेटने, सहेजने, पोटने और साथ चलने का आव्हान कर रहा है।
वह स्वयं अमराई की सी शीतल छांव है जहां बैठकर मन को ठंडक मिलेगी। दुख पीड़ा भुला देनेवाले पानी का समुद्र है गीतकार स्वयं। गीतकार आवाहन कर कह रहा है कि नई ज्योति और नए गांव तक जाने के लिए, नया रास्ता गढ़ना है आओ, मेरे साथ चलो।
आगे गीतकार कहता है कि वह ऐसी भरी हुई नदी है जिसके सानिध्य में फूलने-फलने और हरे-भरे रहने, समृद्ध बने रहने की क्षमता है।
छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी प्रमुख नदियों में महानदी, अरपा और पैरी है गीतकार, जिसमें तन-मन धोकर फहराने की सुविधा है, जिससे अभी तक ये गिरे-पड़े लोग वंचित रहे हैं।
गीतकार का अगला तर्क बड़ा शक्तिशाली है जिसमें वह कहता है कि तुम कहां गंगा के लिए भटक रहे हो। बहुत दूर है गंगा। भारत की हर नदी गंगा है। प्यारे पापियों! तरना है तो इन्हीं महानदी, अरपा, पैरी,( शिवनाथ, खैरुन) में डुबकी लगाओ।
अंतिम पद में गीतकार वंचित-समाज के प्रति अपना संकल्प उद्घाटित करते हुए कहता है कि विपत्तियों से लड़ने के लिए उसने जिरह-बख्तर बांध लिए हैं और पृथ्वी पर स्वर्ग ले आने का प्रण ले लिया है। वह वंचितों को संबोधित कर कह रहा है कि उसकी सुमति के इस स्वर्ग-सोपान (सरग नसैनी) पर हिल मिल कर सभी लोग आएं और चढ़ें।
गीत समाप्त हो गया और आकाशवाणी हुई 'आप सुन रहे थे, गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया का गीत उन्हीं के स्वर में।'
मैं कुछ क्षण के लिए शून्य में आ गया। जब आगे बढ़ा तो गीत का संगीत और गीत का नयापन मेरे साथ-साथ चला। गीत का संगीत पक्ष और भाव हमेशा के लिए मेरे अंदर पैठ गए। यदा कदा रेडियो में गीत बजता और मैं फिर-फिर गीत के सौंदर्य में बंध जाता।
राजनांदगांव में महाविद्यालयीन अध्ययन के दौरान संकल्प नाट्य संस्था और इप्टा के नाटकों में काम करते हुए अनेक स्थानों पर मंचन करते हुए नामचीन कलाकारों और नाट्य विभूतियों को पास से देखने का अवसर आया।
सम्भवतः 1976-77 की बात होगी। दुर्ग के पास पैरी नदी के किनारे बसे ग्राम पैरी में मेरे एक मित्र किशोर शर्मा बब्बू के शास्त्री नाना के पौरोहित्य में भागवत का समापन था। दुर्ग के कनिया-गांव बघेरा के दाऊ रामचन्द्र देशमुख की संस्था 'चंदैनी गोंदा' का कार्यक्रम था। नाट्यकर्मी किशोर शर्मा बब्बू के आमंत्रण पर हम लोग भी शिक्षक, गायक एवं अभिनेता भैया लाल हेड़ाऊ के नाटक में साथी कलाकार के रूप में शामिल हुए थे। राजनांदगांव के भैयालाल हेड़ाऊ चंदैनी गोंदा के स्थापित गायक थे और चंदैनी गोंदा के गीतों का सुमधुर और प्रभावशाली संगीत तैयार किया था राजनांदगांव के ही शिक्षक संगीतज्ञ खुमान साव ने। यही गीतकार और गायक लक्ष्मण मस्तुरिया
से एक हवाई मुलाक़ात हुई। उन्होंने चंदैनी गोंदा के अधिकांश गीत लिखे थे और गाये थे। राजनांदगांव की गायिका कविता हिरकने के साथ उनके गाये गीत 'बखरी के तूमा' और 'डोंगरी के पाके चार' बहुत लोकप्रिय हुए।
गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया का लिखा और गायक भैयालाल हेड़ाऊ तथा कविता हिरकने का गाया 'मोर गांव ई गंगा हे' एक अद्भुत गीत है। इसमें शहर आकर्षित करते हुए कहा रहा है कि गांव में क्या रखा। आजा, शहर आजा। मगर गांव हाथ पकड़कर रोक रहा है कि गांव में गंगा है। और गंगा तो एक गांव क्या, अनेक प्रदेशों की जीवन दायिनी है।
जिन भाव और वस्तुओं को केंद्र में रखकर लक्ष्मण मस्तुरिया गीत रच रहे थे वे सब गांव से जुड़ाव रखती थीं। बिलासपुर के पास अरपा नदी के किनारे का यह कवि महानदी, शिवनाथ और पैरी के पानी के स्वाद जानता था। बाड़ी-बखरी के तूम्बा और जंगल-झाड़ी के चार को पहचानता था। सब मिलकर वह निरा ग्रामीण भारत का कवि था।
छत्तीसगढ़ के सबसे लाड़ले लक्ष्मण के अंदर छत्तीसगढ़िया यह पीर तो थी कि वह समाज कितना पिछड़ा हुआ है जहां वह सांस ले रहा है। किस प्रकार का अज्ञान और अशिक्षा लोगों का शोषण कर रही है। वंचितों को वह उनसे मुक्त करना चाहता था। उसके पास उसका उपचार था तभी वह पूरे आत्मविश्वास के साथ लोगों को साथ चलने का आह्वान करता है। 'मोर संग चलव रे' अमर-गीत उसके दिल से निकला हुआ गीत है।
भारत की परंपरा में आदिकलीन समय से सामाजिकता अर्थात साथ साथ होने का भाव है। 'एको अहं बहुस्यामि' से एक के अनेक होने भाव से समाज बना। यह शेर भी भारत का प्रतिनिधित्व करता है ..
मैं अकेला ही चला जानिबे मंज़िल लेकिन,
लोग मिलते गए और कारवां बनता गया।
संस्कृतकाल से हमारे श्रुति-स्मृति की ऋचाएं उद्घोष कर रही हैं..
संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना: उपासते ॥(ऋग्वेद 10/191)
अर्थात हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोलें; हमारे मन एक हों।
प्रााचीन समय में हमारे पूर्वज देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय है।
यही भाव इस गीत में ढल गया। ऋग्वेद ऋत का संज्ञान ही तो है। कवि ऋग्वेद नहींन गा रहा, रीतियों का पारायण कर रहा है।
कितनी पीड़ा से कविकुलगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर (टैगोर) ने "एकला चलो रे" कहा होगा। नहीं, कविगुरु सामाजिकता के विलोम के कवि
नहीं है। वे भारतीय परंपरा के कवि हैं। वास्तव में यह बात उन्होंने तब कही जब समाज भय, आतंक, स्वार्थ, आत्मरक्षा में छिन्न भिन्न हो रहा था। संगठन के नाम से कतरा रहा था। एक साथ चलने के नाम से भाग रहा था। कर्फ्यू के समय कैसे विदीर्ण हो जाता है समूह? यही हो रहा था। तब टैगोर कहते हैं .. यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई नहीं आता, तब अकेला चलो। कोई तुमसे बात नहीं करता,
भय के कारण तुम्हें छोड़ जाए, तब अंधेरे और कांटे भरे रास्ते में तुम अकेला चलो। ' और भी बातें हैं जिसमें समाज एक व्यक्ति से मुंह मोड़ लेता है, साथ छोड़ जाता है, तब कविगुरु कहते हैं कि साहस के साथ अकेले चलो।
यद्यपि यहां अकेले चलना कंडीशनल है, सकारण है। तथापि भयभीत समाज के कायराना व्यवहार से हिम्मत नहीं हारना है। पूरी ओजस्विता से आगे बढ़ना है ताकि अगले मोड़ पर साहसी समाज से भेंट हो जाये। तब तक अपनी आत्मा की आवाज़ सुनते हुए चलते रहो।
पर हम तो साथ साथ चलें। मेरे साथ आप चलें या आपके साथ मैं चलूं। साथ-साथ चलता रहे यह सामाजिक गान 'मोर संग चलव रे।'
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*आर. रामकुमार,
१४.०४.२०२१
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