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झूठा है शांतिपाठ?


झूठा है शांतिपाठ?

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।।
                              ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः।।
यह मंत्र तैत्तिरीय उपनिषद् से लिया गया है, जो आज भी शांतिपाठ के रूप में प्रचलित है। कुछ लोग इसकी विषयवस्तु के आधार पर मृत्यु के समय पाठ किये जानेवाले गरुण-पुराण से इसे उद्धृत  मानते हैं।

इस श्लोक का अर्थ है  कि सभी (प्राणि-मात्र) सुखी हों, सभी रोगमुक्त रहें, सब लोग सभी में भद्रता (सज्जनता) देखें, जिससे कोई दुःख के भागी न बन सके।"

मंत्र श्रुति और परम्परा से वेद, उपनिषद और पुराणों का आधार रहे हैं। मंत्र या श्लोक स्मृतियों की वो नींव हैं जिस पर हमारे विचारों और आचरणों के भवन खड़े हैं। आश्चर्य की बात है कि ये समस्त श्लोक, ऋषि-मुनियों द्वारा समाज छोड़कर वनों में जाकर, तपस्या और ध्यान से मस्तिष्क को एकाग्र करके सृजित किये गए हैं। मौखिक-वाचिक परम्परा से इनको शिष्य या जिज्ञासु समुदाय ने सुना (श्रुति) और याद रखा (स्मृति) ताकि इनको, 'मानवीय राग-विराग, द्वेष-ईर्ष्या, अहंकार-उन्माद, आवेश-प्रमाद से संपृक्त समाज' के बीच जाकर, उसके कल्याण के लिए प्रसारित किया जा सके।
यह खेद का विषय है कि *मानवीय राग-विराग, द्वेष-ईर्ष्या, अहंकार-उन्माद, आवेश-प्रमाद से संपृक्त समाज* ने ऋषियों, मुनियों और उनके शिष्यों के इस आयोजन को उत्सव के रूप में लिया। ऊपरी मन से भजन किया और मन लगाकर भोजन किया। दिखा दिखाकर दान-दक्षिणा की और कल्याणकारी आयोजन को भेदभाव और स्वार्थ में पड़कर  बर्बाद कर दिया।
समाज को छोड़कर एकांत में जाकर तपस्चर्या और ध्यान-साधना करते हुए मधुमक्खियों की भांति जो 'अमृतरस'
ऋषियों ने संग्रहित किया और वापस लौटकर उसी समाज को बाँटना चाहा, उस समाज ने 'मानवीय राग-विराग, द्वेष-ईर्ष्या, अहंकार-उन्माद, आवेश-प्रमाद'  के साथ भोजन और प्रसाद बांटते हुए उस अमृत रस को विष बना दिया।
ऋषियों की ऋचाओं का कितने ही पाखंडी और कुविचारों से भरे हुए लोग शान्तिपाठ की भांति प्रयोग करते हैं किंतु उनका नहीं तो अर्थ समझते न भाव।
अब तैत्तरीय उपनिषद से उद्धृत यह मंत्र ही ले लो। जो लोग किसी का सुख नहीं देख सकते, किसी का बड़प्पन या बड़ाई स्वीकार नहीं कर सकते। दूसरों को महत्व मिलता है तो उनका रक्तचाप बढ़ जाता है। जब ये लोग शांति पाठ करते हुए कहते हैं 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' तो इसका लाभ उन्हें नहीं मिलता। सर्वे भवन्तु सुखिनः का अर्थ तो यही है सभी सुखी हो। उन सभी में वह भी तो आता है। किंतु द्वेष के कारण, अहंकार के कारण, ईर्ष्या के कारण, जलन और कुढ़न के कारण, महत्व पाने की लालसा के कारण उसने अपने आसपास इतने कांटे बिछा रखे हैं कि सुख के रास्ते ही बंद हो गए। इन कांटों को लांघकर सुख कैसे अन्दर जाए। जिसके जीवन में दूसरों के सुख के लिए स्थान नहीं उसके सुख के लिए सुख भी कांटे कूद कर क्यों आएगा। इस प्रकार अज्ञान के कारण केवल अपना स्वार्थ साधनेवाले लोगों ने ऋषियों की प्रार्थना का पहला मंत्र ही निष्फल कर दिया।

प्रार्थना का दूसरा चरण है, 'सर्वे संतु निरामया'। सभी निरोगी हों। उन्हें किसी प्रकार का रोग न हो, न छोटा, न बड़ा। न बीमारी हो न महामारी। और याद रखो तुम यह भी कह है हो कि किसी को न हो। इस किसी में तुम भी सम्मिलित हो। तुम्हारे अपने भी सम्मिलित है। स्वजन परिजन भी सम्मिलित है, पड़ोसी भी सम्मिलित हैं। मित्र तो शामिल ही हैं, शत्रु भी शामिल हैं। यहां तुम फंस गए। कौन करता है अपने शत्रुओं को शामिल? जिनसे जरा भी मनमुटाव है, कोई भी मतभेद है, उसका अच्छा बोलना भी तुम्हें ज़हर जैसा लगता है। जिसके लिये तुम बड़ी बीमारी हो जाये, दुर्घटना हो जाये, यह चाहते रहते हो। वह दुखी हो, परेशान हो और तुम उसकी जानबूझ कर मदद भी न करना चाहो, उसकी परेशानी का मज़ा लेने की सोचो, ऐसे व्यक्ति, ऐसे शत्रु का सुख, ऐसे शत्रु का निरामय होना, निरोग होना तुम क्या चाहोगे? तुम तो पढ़ने के लिए मंत्र पढ़ रहे हो।  कोई लाभ नहीं। तुम दूसरों को निरोग नहीं देख सकते तो मंत्र में 'सर्वे सन्तु निरामय' की शर्त तो तुम्हारी ही तरफ से खारिज़ हो गई, निरस्त हो गयी। इस 'सर्वे' में सबसे पहले तुम्हारा नाम कट गया। अपने लिए शत्रु चिन्हित करके तुमने अपने लिए बीमारी मोल ले ली और निरोगता का रास्ता बंद कर दिया। अब कहते फिरना कि मंत्र में दम नहीं है। सचमुच तुम भी कम नहीं हो।
मंत्र का तीसरा चरण है 'सर्वे भद्राणी पश्यन्तु'। यह बड़ा मज़ेदार चरण है। इस समय जब कोई किसी में अच्छाई नहीं देख रहा है, किसी पर किसी को विश्वास नहीं, प्यार और आत्मीयता किसी से किसी को नहीं। सब सामने सामने दूसरों की नज़रों में अच्छा बनने की कोशिश में और पीठ पीछे बुराई कर रहे हैं, ऐब निकल रहे हैं, निंदा करते नहीं अघा रहे हैं, वही भले मानस मंत्र पढ़ रहे हैं सब लोग सब में अच्छाई देखें, सबके लिए अच्छा अच्छा सोचें? सही में सब ऐसा ही सोच रहे हैं? क्या सचमुच सब सभी के लिए अच्छा सोच रहे है। ज़रा ठीक से अपनी सभी वाली सूची देख लेना। सच बताना धोखे से उसे तो नहीं छोड़ दिया। अरे,उसी बुरे आदमी को जिसके साथ तुम्हारी नहीं जमती। अब जो भला है ही नहीं उसे भले की श्रेणी में रखा नहीं जा सकता। उसे भद्र कहने का मन नहीं करता। कोई भद्र है ही नहीं उसे कोई कैसे भद्र देखे भला?  झूठा है शांतिपाठ। मंत्र ही है दोष पूर्ण। जंगल में जाकर ही लिखे जा सकते हैं ऐसे हवाई मंत्र। समाज के अंदर घुसकर देखो बाबाजी, एक से बढ़कर एक अभद्र, तुच्छ, दो कौड़ी के लोग भरे पड़े हैं। आकर देखो तब कहना कि सब को भद्र देखो, सज्जन देखो, शालीन देखो, भला देखो।
तीसरा चरण तो औंधे मुंह गिर पड़ा। यही तो मज़ा है इस मंत्र का। वजन उठानेवाले पहलवान की सलाख में धीरे धीरे वज़न बढ़ाता है। चालीस किलो उठा लिया तो अब पचास उठा।
अब उल्टा करते हैं और दूसरों को देखने की बजाय खुद को देखते हैं। लेकिन शर्त ये है कि ईमानदारी से देखेंगे ख़ुद को। ज़रा आईने के सामने दिल पे हाथ रखकर उन तमाम दोषों के पत्थर उठाओ जो दूसरों पर फेंक रहे थे और उन पर ख़ुद को कसकर देखते जाओ। दुनिया भर में अपने को ईमानदार, भद्र, बुद्धिमान समझनेवाले भले मानुस सच बताना इस कसौटी पर तुम कितने खरे उतरे।
सर्वे भद्राणी पश्यन्तु की गणित स्वयं से हल करना शुरू करो। अगर कबीर की तरह कह सको की मुझसे बुरा न कोई यो इस सर्वे भद्राणी पश्यन्तु का चरण तुम पार कर लोगे।
मंत्र के तीन चरण सिद्ध कर लिये तो चौथे को सिद्ध करना कठिन नहीं होगा।
चौथा चरण कहता है 'मा कश्चित दुःखभाग भवेत।' अर्थात दुःख का किंचित भाग, दुःख का एक अंश भी कभी न हो। यह परिणाम वाला अंश है। अंशमात्र दुख कभी न हो, यह एक असम्भव सी प्रार्थना नहीं लग रही? 'देह धरे का दंड' तो 'सबको' मिलता है। लेकिन निदान भी है 'ज्ञान'। ज्ञान हो तो उसे ज्ञान से भुगत लेगा, जुगत लगा लेगा। अज्ञानी ही रोता रहता है कि कितना दुख है, कितनी तकलीफ है। दुख आता है तो ज्ञानी तैयारी करने लगता भुगतने की। मूर्ख रोना रोने लगता है। ज्ञानी को दुःख का सुख बनाने की कला आती है।
तुमने पहला चरण यही तो पार किया था दुख को सुख बनाने का। सर्वे भवन्तु सुखिनः का ज्ञान होते ही तुम समझ गए कि अपना सुख तो सबके सुख के साथ बंधा हुआ है। वही गणित यहां लगाना है। अपने दुख को घर में बंद करो और दूसरे के सुखों को देखकर सुखी होने की दशा का तमाशा देखो। तुम्हीं तो हो न जिसे सदैव शिकायत रहती है कि सारे दुख दूसरों के पास हैं। तुम्हारे ही सर पर सारा दुःख भाग्य रखकर भाग गया है। तुम्हारे घर की चीनी खत्म तो दूसरों के घर से ले नहीं आते। सर्वे भवन्तु सुखिनः को सिद्ध करना ही मा कश्चित दुःख भाग भवेत तक पहुंचना है।
बस फिर शांति ही शांति है। ॐ शांतिः शान्तिः शांतिः!!
               @स्वामी श्रुतिदास स्मर्त्यायन के प्रवचन - (१.६८)

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