Skip to main content

सहज, सरल, सहृदय भाई रामेश्वर वैष्णव

सहज_सरल_सहृदय_भाई_रामेश्वर_वैष्णव 

राजनांदगांव की स्वर्णमयी यादों में, फुर्सत और लगाव के वो क्षण याद हैं, जब कंपनी विशेष के ट्रांज़िस्टर में विविध-भारती और आकाशवाणी के विविध कार्यक्रम सुनते थे, उनमें भाग लेते थे। कविता, आलेख, परिचर्चा, गीत आदि प्रस्तुत करते थे।
 आकाशवाणी भोपाल के लिए भी तब छत्तीगढ़ ( तब मध्यप्रदेश) में निवास करनेवाले रचनाकारों की रेकॉर्डिंग रायपुर में ही हो जाती थी। रायपुर में अपनी पहली कहानी की रिकॉर्डिंग के लिए जब पहली बार रायपुर गया तो सायकल रिक्शावाला मुझे शहर से बाहर ले गया। वहीं भाई मिर्ज़ा मसूद से पहली मुलाकात हुई जो मुझे काली चौक के पास रिकॉर्डिंग स्टूडियो ले आये और रिकॉर्डिंग करवाई। फिर तो बाद के 15-20 साल विविध कार्यक्रमों की रिकॉर्डिंग का सिलसिला वहीं चलता रहा।
बहरहाल, उन्हीं दिनों में किसी दिन, एक शाम को, रायपुर आकाशवाणी से प्रसारित एक गीत सुना तो उसकी प्रस्तुति, लय, भाषा, विषय, शिल्प आदि मन को लुभा ले गए। गीतकार का नाम सुनने की जिज्ञासा स्वाभाविक थी। गीत समाप्त होने के बाद गीतकार का नाम उद्घोषित हुआ.. "अभी आप रामेश्वर वैष्णव से उनका गीत सुन रहे थे.." गीतकार का नाम स्मृति में अंकित हो गया।

गीत के बोल  प्रायः मैं यथावत याद नहीं रख पाता। मेरा भाषा-ज्ञान, भावना, अवधारणा आदि उसे अपने ढंग से याद रखा करती थी और वर्षों में उसी रूप में गुनगुनाता रहता।
रामेश्वर भाई के गीत को मैंने 8 अप्रैल 2021 तक, लगभग 46 वर्ष इस तरह गुनगुनाया :-
सुबह शाम फ़ाइल में गड़े रहे
टीप तो बने हम हस्ताक्षर न बन पाए.. सुबह शाम...

हालांकि भिलाई इस्पात संयंत्र में सात वर्षों तक काम करने के दौरान रामेश्वर वैष्णव भाई से कई बार भेंट हुई पर पता नहीं क्यों इस गीत को मैं उनसे प्राप्त नहीं कर सका। अन्य विषयों में व्यस्तता एक बड़ा कारण है।
अब जब सेवा-निवृत्ति और एकांतवास जैसी स्थिति निर्मित हो गयी है तो पुराने सभी पन्ने पलटने, जिम्मेदारियों की भागदौड़ और दूरियों ने जिन्हें असम्पर्कित कर रखा था, उनसे दूरभाष से यथासंभव संपर्क करने का प्रयास कर रहा हूँ। बहुतों के नंबर खो गए, बदल गए, बहुत से उठा नहीं पाए ... किन्तु जिन्होंने उठा लिए उनसे तो बात हुई तो खूब हुई।
भाई रामेश्वर वैष्णव भी उपलब्ध हो जानेवाले सरल व्यक्तियों में से एक हैं। किंतु उन तक पहुंचना भी किसी अज्ञात अंधेरी सुरंग से गुजरने जैसा था। कारण उनका फोन नंबर उपलब्ध न होना। अपने मित्रों से बात की। जिन जिन लोगों ने फेसबुक में रामेश्वर भाई के इंटरव्यू और गीत डालने का #बड़ा_काम किया है उनसे वाल में नंबर मांगा। 
इसी कड़ी में अपने फेसबुक फ्रेंड और छत्तीसगढ के महिमावान ग़ज़ल, गीतकार, पत्रकार और अनेक पुस्तकों के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित साहित्यकार भाई गिरीश पंकज की वाल में नंबर मांगा। 
उन्होंने यथाशीघ्र नंबर उपलब्ध करा दिया। (धन्यवाद गिरीश पंकज भाई!)
नंबर प्राप्त होते ही 8 अप्रैल 2021 को भाई रामेश्वर वैष्णव को फ़ोन किया और उन्होंने उस समय फोन उठा लिया जब वे स्नानघर से पूजा-कक्ष में जा रहे थे। पूरी बात करने के बाद उन्होंने पूजा की। मैं तो उनकी इस सहृदयता और सुहृदता पर निशब्द हो गया।
9 अप्रैल को रामेश्वर वैष्णव भाई ने मेरी वाल पर यह डायरी लिखी और अपने स्वर में गाकर अपना गीत भेजा। आज (१० अप्रैल 21 को) इस गीत के ऑडियो से प्रिंट-वर्शन बना लिया। दोनों संस्करण रामेश्वर वैष्णव भाई के चाहनेवालों के लिए यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ, एक शब्द भी बिना बदले।

काव्य प्रेमी तेरे रूप अनेक-३
००००००००००००००००००
८/४/२१

आज दोपहर दो बजे बालाघाट से वरिष्ठ साहित्यकार, सुमधुर गीतकार डॉ. रामकुमार रामरिया जी का मुझे फोन आया। मुझे पता चला था कि वे भिलाई स्टील प्लांट में सेवारत थे और सेवा निवृत्त होकर महाराष्ट्र में बस गए है। मैंने उन्हें पहचान लिया क्योंकि कई मंचों पर उनसे मुलाकात हो चुकी थी। वे अति-प्रसन्न हुए। कई प्रकार की मज़ेदार बातों के बाद उन्होंने याद दिलाया कि सन् १९७५ में मैंने आकाशवाणी रायपुर से एक नवगीत पढ़ा था
शाम सुबह फ़ाइल में गड़े रहे
जीवन में लेकिन हस्ताक्षर न बन पाए.


इस नवगीत को पुनः मेरी आवाज़ में रिकार्ड कर व्हाट्स-एप करने का आग्रह किया, क्योंकि यह गीत उन्हें बेहद पसंद हैं। मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि कोई व्यक्ति कैसे किसी रचना को ४६ वर्षों तक अपनी स्मृति में सुरक्षित रख सकता है। खासकर  जिसे मैं स्वयं भूल चुका हूं।
मुझे याद आया कि कवि और अभिनेता शैल चतुर्वेदी जी के आदेश पर अपने एक छत्तीसगढ़ी धुन पर मैंने एक छत्तीसगढ़ी नवगीत तैयार किया था।
कोन जनी काय पाप करें रहेंन।
ठड़गी कस जिनगी मं सुख ला फेर नइ जानेंन।।


कवि शैल चतुर्वेदी जी को छत्तीसगढ़ी नवगीत की धुन बहुत पसंद आई। उन्होंने इसी धुन में क्लर्क जीवन पर एक हिन्दी गीत लिखने का आदेशनुमा आग्रह किया। बात यह थी कि उन्हीं दिनों फिल्म निर्माता-निर्देशक-अभिनेता  मनोजकुमार फिल्म 'क्लर्क' बनाने की योजना बना रहे थे। जो हिंदी-गीत बनेगा उसे मनोजकुमार जी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी स्वयं शैल चतुर्वेदी जी ने ले ली। मैं तो प्रामाणिक क्लर्क था ही,  मैंने अपने क्लर्क जीवन के निचोड़ को नवगीत में ढाल दिया और शैल जी तक पहुंचा दिया। हालांकि मुझे पता नहीं चला कि यह गीत मनोजकुमार जी तक पंहुचा या नहीं। कोई सकारात्मक उत्तर न पाकर यही नवगीत मैंने आकाशवाणी रायपुर की कवि गोष्ठी में पढ़ दिया, जिसे रामरिया जी ने आज तक याद रखा।
बाद में छत्तीसगढ़ी नवगीत तो गायक केदार यादव की आवाज में ऐतिहासिक रूप से लोकप्रिय हुआ। यहां तक कि आंखों से दिव्यांग भिखारियों के लिए ('बने करे राम मोला अंधरा बनाये।') वरदान साबित हुआ और हिंदी नवगीत को डा.शम्भूनाथसिंह द्वारा सम्पादित "नवगीत अर्द्धशती" में स्थान मिला।
मैं अद्भुत काव्य-प्रेमी रामरिया जी का ४६ वर्षों तक हिंदी नवगीत को  याद रखने के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूं और उनका अभिनंदन करते हुए, अपनी आवाज में इसे भेज रहा हूं।
रा.वै.
(ऑडियो से प्रिंट/टाइप्ड)

हां जी, रामरिया जी, आपका नवगीत प्रस्तुत है..
**
शाम सुबह फ़ाइल में गड़े रहे,
जीवन में लेकिन हस्ताक्षर न बन पाए।

हम विनम्र सिर्फ निवेदन बनकर
कृपया तक दौड़ते रहे।
विवशता बिछाकर सुविधाओं पर
अनुशासन ओढ़ते रहे।
कागजी व्यवस्था में जड़े रहे
हर दिन विष पीकर भी शंकर न बन पाए।

हम मशीन के केवल पुर्जे हैं
बाहर अस्तित्व कुछ नहीं।
शायद बदनाम हैं इसी खातिर
अपना व्यक्तित्व कुछ नहीं।
शीशमहल के बाहर खड़े रहे
हाथ तो बने लेकिन पत्थर न बन पाए।

आजीवन पसीना बहाकर भी
हर न सके बस्ती की प्यास।
दूर हो गए हम जन-जीवन से
यूं रहे प्रशासन के पास।
डूबने-डुबाने पर अड़े रहे
बूंद-बूंद बिखरे हम सागर न बन पाए।

             रामेश्वर वैष्णव, पुनर्श्रुति दि.०९.०४.२०२१,

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि