Skip to main content

१२ जनवरी २१ : विवेकानंद जयंती*

१२ जनवरी २१ : विवेकानंद जयंती*

*(१२.१.२१, उत्तर से पढ़ो या दक्षिण से, एक ही है। यह तिथि 12 बजे रात तक मान्य है। फिर अगले 100 साल प्रतीक्षा करना।😊👍)
*
विवेकानन्द
आज राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के शलाका पुरुष विवेकानंद का जन्म दिन है। यह दिन युवा दिवस और योग दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। विगत तीन दशकों से यह एक वृहद शासकीय आयोजन के रूप में प्रत्येक शासकीय शिक्षण संस्थानों और कार्यालयों में सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ाने का अनिवार्य उपक्रम बन गया है।
राष्ट्रीय सेवा योजना विवेकानंद को समर्पित है। विवेकानंद के वैज्ञानिक और कर्मकांड के विरोध में प्रकट विचारों ने विज्ञानवादी प्रगतिशील जनमानस पर भी गहरी छाप छोड़ी। संन्यासी और वेदांती होने के बावजूद वे सामाजिक क्रांति के युवकों के प्रणेता बने रहे। 'गर्व से कहो हम हिन्दू हैं' का नारा उनके साथ जुड़ा और हिंदुत्व के वे प्रतीक बन गए।
भले ही हिंदुत्व की स्थापना में अपने अक्षुण्य योगदान के कारण वे एक सीमित सत्तावर्णी उच्च वर्ग के पूर्वज हो गए हों किन्तु उनके कुछ विचार हर ऊर्जावान क्रांतिकारी को प्रेरणा तो देता ही है।

भारत के किसान

आज भारत के अन्न उत्पादक कृषकों की क्रांति का 48 वाँ दिन है। 'कुछ पूंजीपतियों के हाथों में भारत की भूमि का वर्चस्व, कन्याकुमारी से कश्मीर तक करने के कानून लागू कराए जा रहे हैं। सत्ता पर कुलीनों का एकाधिकार और समाज में विशिष्ट जनों का प्रभुत्व का विधान रच जा रहा है।' ऐसे विचार उन बहुसंख्य जनमानस में आ रहे हैं जो वंचित और विस्थापित होने के भ्य से आक्रांत हैं। जबरन कार्यवाहियों का सिलसिला तेज़ी से चल रहा है। आज वे भी क्रांतिकारियों की श्रेणी में आ गए हैं जो भारत को पूंजीपतियों की संपत्ति और जागीर होने का निरंतर विरोध कर रहे हैं।

रंगभूमि
जिन्होंने उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि को पढ़ा है वे पांडेपुर के संघर्ष और पांडेपुर की बस्ती को जबरिया सरकार द्वारा उजाड़कर एक पूंजीपति को सौंपने की कवायद का कच्चा चिट्ठा पढ़ सकते हैं। 'रंगभूमि' भारत में नादिरशाही के प्रत्यक्ष दर्शन करनेवाला उपन्यास है और बहुत अर्थों में प्रासंगिक भी। 'रंगभूमि' 1924 यानी बीसवीं सदी के तीसरे दशक का उपन्यास है। भारत स्वतंत्रता का समर लड़ रहा था। उस समय ईसाई पूंजीपति सरकार, राजे रजवाड़ों के साथ मिलकर कैसे जबरन बस्तियां उजाड़कर अपना उद्योग खड़ा करते थे, इसका चित्रण इस उपन्यास में किया गया है। यह सत्ता-कर्म आज भी प्रासंगिक है। ईसाइयों की जगह उन लोगों ने ले ली है जो पारंपरिक सत्तावर्गीय वर्णों से संबंधित हैं और सरकार जिनकी 'सेवक' है। संयोग से 'रंगभूमि' का प्रमुख ईसाई पूंजीपति 'मि. सेवक' ही हैं। मि. सेवक, सूरदास, सोफिया और मिसेस सेवक की दौड़ के साथ ही उपन्यास 'रंगभूमि' प्रारम्भ होता है। सम्पूर्ण उपन्यास भूमि, सामान्य जन जीवन, घर, समाज की रक्षा और औद्योगिकरण के शासकीय दुरभिसंधि के बीच संघर्ष से भरा हुआ है। सरकार द्वारा आरक्षित पूंजीवाद और औद्योगिकीकरण जीत जाता है और जनता का सामान्य जीवन हार जाता है। दलित नायक सूरदास अंग्रेज जिलाधीश की गोली का शिकार होता है। राजपुत्र सिद्धांतवादी कुंवर विनय सिंह इस संघर्ष में मर जाते हैं। लोक नेता इंद्र, भारतीय राजशाही का विकृत और गद्दार पात्र राजा महेंद्र अपनी ही साजिश में मरता है। पूंजीपति ईसाई मि.सेवक की पुत्री और लोकसेविका सोफ़िया (विनय की प्रेमिका) आत्मबलिदान करती है। लोक आंदोलन का ढोंग करनेवाले राजा भरतसिंह (विनय के पिता) सत्ता के पक्ष में अपना राज्य समर्पित करते हैं और गुलामी का मासिक भत्ता बंधवा लेते हैं।

रंगभूमि, गबन, कर्मभूमि और गोदान पढ़नेवाले आश्चर्यचकित रह जाते हैं कि किस प्रकार प्रेमचंद बनते बिगड़ते विचारों का बड़ा बारीक बुनाव करते हैं।

काव्योक्तियाँ
नव विचारों के उद्गाता विवेकानंद को याद करते ही विचारों के कई झरने फूट पड़ते हैं। ये विचार के झरने ही विचारधारा की नदी बन जाते हैं। विवेकानंद क़् विश्वास था कि हर समय विचारों की नदियां बनती रहेंगी और नई फसलों को उगाती, लहलहाती चलेंगी। उन्हीं के कथन का मुक्तकरूप..

१. नव युग के विवेकानंद

नये उपवन में फिर नव-पुष्प नव-मकरन्द छाएंगे!!
विचारों के भ्रमर नव-रस, नया आनन्द पायेंगे!!
अंधेरों की अभी कुछ और उलझी सी पहेली हैं,
इन्हें सुलझाने नव-युग के विवेकानन्द आयेंगे!

उन्होंने कठोनिषद के कथन को अपना अभियान बनाया..

२. उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत..

"मिला अनमोल जीवन, जीत का इतिहास रचना है।
सफलता के लिए प्रण-प्राण से संघर्ष करना है।"
विवेकानंद भी कहते - "उठो, जागो, बढ़ो आगे-
तुम्हें अविचल, बिना ठहरे, ठिकाने तक पहुंचना है।"
(कठोपनिषद, अध्याय 1, वल्ली 3)

३. अतः

विचारों के तुरंगों को उमंगों की डगर दे दो।
जो धरती के हैं मृत-सागर उन्हें जीवन लहर दे दो।
नए नभ में नया सूरज, नया चंदा, नए तारे,
नए सपने, नई दुनिया, नया माया-नगर दे दो।

चलें, नई करवट लें, क्योंकि दो दिन बाद सूरज भी दिशा बदलनेवाले हैं।

डॉ. रा. रामकुमार,
१२.१.२१. *
(*यह तिथि भी अब से 100 साल बाद आएगी।)

पर्यटन या टाइम पास

इस दिन को यादगार बनाने के लिए नर्मदा नदी उर्फ चिर कुंवारी रेवा की मेखला पर सब्र के बांध की तरह बंधे बरगी बांध की ममतामयी छाती पर क्रूज़ पर सवार होकर लाढ़ के 45 मिनट्स अठखेलियों में बिताए और जुड़वाद्वीप के बीच से गुज़रे।
सब्र के बांध और बरगी बांध की एक जैसी विशेषता है। सब्र का बांध टूटता है तो तहलका मच जाता है और बरगी बांध 13 द्वार खोलकर जब निकलता है तो मध्यप्रदेश का प्रसिद्ध जलप्रपात अपने साथ भेड़ाघाट को भी ले डूबता है।

मित्रों ! देखना किसी के सब्र का बांध न् टूटने पाए।

सबका मंगलवार मंगलमय हो।

डॉ. आर रामकुमार,
१२.१.२१, मंगलवार, मेकल रिसॉर्ट, बरगी-डैम, जबलपुर

Comments

Popular posts from this blog

तोता उड़ गया

और आखिर अपनी आदत के मुताबिक मेरे पड़ौसी का तोता उड़ गया। उसके उड़ जाने की उम्मीद बिल्कुल नहीं थी। वह दिन भर खुले हुए दरवाजों के भीतर एक चाौखट पर बैठा रहता था। दोनों तरफ खुले हुए दरवाजे के बाहर जाने की उसने कभी कोशिश नहीं की। एक बार हाथों से जरूर उड़ा था। पड़ौसी की लड़की के हाथों में उसके नाखून गड़ गए थे। वह घबराई तो घबराहट में तोते ने उड़ान भर ली। वह उड़ान अनभ्यस्त थी। थोडी दूर पर ही खत्म हो गई। तोता स्वेच्छा से पकड़ में आ गया। तोते या पक्षी की उड़ान या तो घबराने पर होती है या बहुत खुश होने पर। जानवरों के पास दौड़ पड़ने का हुनर होता है , पक्षियों के पास उड़ने का। पशुओं के पिल्ले या शावक खुशियों में कुलांचे भरते हैं। आनंद में जोर से चीखते हैं और भारी दुख पड़ने पर भी चीखते हैं। पक्षी भी कूकते हैं या उड़ते हैं। इस बार भी तोता किसी बात से घबराया होगा। पड़ौसी की पत्नी शासकीय प्रवास पर है। एक कारण यह भी हो सकता है। हो सकता है घर में सबसे ज्यादा वह उन्हें ही चाहता रहा हो। जैसा कि प्रायः होता है कि स्त्री ही घरेलू मामलों में चाहत और लगाव का प्रतीक होती है। दूसरा बड़ा जगजाहिर कारण यह है कि लाख पिजरों के सुख के ब

काग के भाग बड़े सजनी

पितृपक्ष में रसखान रोते हुए मिले। सजनी ने पूछा -‘क्यों रोते हो हे कवि!’ कवि ने कहा:‘ सजनी पितृ पक्ष लग गया है। एक बेसहारा चैनल ने पितृ पक्ष में कौवे की सराहना करते हुए एक पद की पंक्ति गलत सलत उठायी है कि कागा के भाग बड़े, कृश्न के हाथ से रोटी ले गया।’ सजनी ने हंसकर कहा-‘ यह तो तुम्हारी ही कविता का अंश है। जरा तोड़मरोड़कर प्रस्तुत किया है बस। तुम्हें खुश होना चाहिए । तुम तो रो रहे हो।’ कवि ने एक हिचकी लेकर कहा-‘ रोने की ही बात है ,हे सजनी! तोड़मोड़कर पेश करते तो उतनी बुरी बात नहीं है। कहते हैं यह कविता सूरदास ने लिखी है। एक कवि को अपनी कविता दूसरे के नाम से लगी देखकर रोना नहीं आएगा ? इन दिनों बाबरी-रामभूमि की संवेदनशीलता चल रही है। तो क्या जानबूझकर रसखान को खान मानकर वल्लभी सूरदास का नाम लगा दिया है। मनसे की तर्ज पर..?’ खिलखिलाकर हंस पड़ी सजनी-‘ भारतीय राजनीति की मार मध्यकाल तक चली गई कविराज ?’ फिर उसने अपने आंचल से कवि रसखान की आंखों से आंसू पोंछे और ढांढस बंधाने लगी। दृष्य में अंतरंगता को बढ़ते देख मैं एक शरीफ आदमी की तरह आगे बढ़ गया। मेरे साथ रसखान का कौवा भी कांव कांव करता चला आया।

सूप बोले तो बोले छलनी भी..

सूप बुहारे, तौले, झाड़े चलनी झर-झर बोले। साहूकारों में आये तो चोर बहुत मुंह खोले। एक कहावत है, 'लोक-उक्ति' है (लोकोक्ति) - 'सूप बोले तो बोले, चलनी बोले जिसमें सौ छेद।' ऊपर की पंक्तियां इसी लोकोक्ति का भावानुवाद है। ऊपर की कविता बहुत साफ है और चोर के दृष्टांत से उसे और स्पष्ट कर दिया गया है। कविता कहती है कि सूप बोलता है क्योंकि वह झाड़-बुहार करता है। करता है तो बोलता है। चलनी तो जबरदस्ती मुंह खोलती है। कुछ ग्रहण करती तो नहीं जो भी सुना-समझा उसे झर-झर झार दिया ... खाली मुंह चल रहा है..झर-झर, झरर-झरर. बेमतलब मुंह चलाने के कारण ही उसका नाम चलनी पड़ा होगा। कुछ उसे छलनी कहते है.. शायद उसके इस व्यर्थ पाखंड के कारण, छल के कारण। काम में ऊपरी तौर पर दोनों में समानता है। सूप (सं - शूर्प) का काम है अनाज रहने देना और कचरा बाहर निकाल फेंकना। कुछ भारी कंकड़ पत्थर हों तो निकास की तरफ उन्हें खिसका देना ताकि कुशल-ग्रहणी उसे अपनी अनुभवी हथेलियों से सकेलकर साफ़ कर दे। चलनी उर्फ छलनी का पाखंड यह है कि वह अपने छेद के आकारानुसार कंकड़ भी निकाल दे और अगर उस आकार का अनाज हो तो उसे भी नि