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मुकरियाँ : हिंदी पर विशेष

 हिंदी के उद्गाता कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ससम्मान कहा है-


निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल।

हिंदी और हिंदुस्तान की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने खड़ी बोली हिंदी को जन जन की भाषा और बोली बनाने के लिए गद्य और पद्य में नए नए औजारों का उपयोग करते हुए आजीवन संघर्ष किया। ऐसे देश और भाषा की स्वतंत्रता के शब्द-सेनानी ने खुसरो की खुखरी 'मुकरी विधा' का भी भरपूर उपयोग किया। उसी 'मुकरी विधा' में हिंदी के सम्मान में पांच मुकरियाँ प्रस्तुत हैं:

मुकरियाँ

१.
अपने गैर सभी से मिलती
वह सबके होंठों पर खिलती
बात किया करती है दिल की
रेशम पहने चाहे चिन्दी
क्या अभिनेत्री?
न भई हिंदी।

२.
सबसे उसका लेना-देना
जनता हो या चाहे सेना
बहरा, अंधा, लँगड़ा, केना,
गुजराती हो या फिर सिंधी
क्या व्यापारी,
न भई हिंदी।
३.
मुंह लगती है, गले लिपटती।
आगे पीछे रहे झमकती।
मेरे सुख  दुःख ख़ूब समझती।
उस पर कोई नहीं पाबंदी -
क्यों भई पत्नी,
न भई हिंदी।

४.
खुश होकर गाना गाती है
पीड़ा खुलकर बतलाती है
साफ समझ में आ जाती है
मन में रखे न कोई ग्रंथी
क्यों भई अम्मा
न भई हिंदी।


५.
ज्ञान और विज्ञान उसी से
लक्ष्यों का संधान उसी से
मान वही, अभिमान उसी से
उसके बिना है दुनिया अंधी
वे तो आंखें,
न भई हिंदी।

@कुमार,
१४ सितंबर २०२०,
1. प्रातः ७.२०, सोमवार।
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