सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना मनुष्य में निजत्व की सदा रहे गवेषणा। सदाम काम नाम की अदृश्य दृश्य एषणा। अवृत्ति-वृत्ति की प्रवृत्ति प्राण में बसी रहे। सुमिष्ट-तिक्त स्वाद-भोग में सदा रसी रहे। यहां वहां जहां तहां कहां कहां पुकारता। जमीन आसमान में, समुद्र में निहारता। मिले अयत्न चाह यह सदैव व्यक्ति चाहता। अशेष स्नेह से भरा हृदय, अशुष्य स्निग्धता। विनम्रता, सहिष्णुता, सुग्राह्यता, उदारता। मिले सदा, मिले नहीं कभी कुटिल मदांधता। मरुप्रदेश में ममत्व कुंज मैं तलाशता। पहुँच गया वहां जहां वितृष्ण थी विलासिता। सहज, सलज, सरल, अमल मनुष्य; मूल्यहीन है। प्रवंचकों के विश्व में छली-बली प्रवीण है। जगत अतीत वर्तमान में भविष्य देखता। अनूप, दिव्य, भव्य, नव्य प्राप्य में विशेषता। सुसंगठित वही जिन्हें पता है लाभ हानि का। विकास ह्रास त्रास का विनाश क्षोभ ग्लानि का। सतत सुदृढ़ प्रतिज्ञ को, थकान क्या, विराम क्या। स्वयं गिरे उठे चले, सहायकों का काम क्या। अतः अभय अशंक आत्म आधरित बने चलो। अशक्त भाव की समस्त क्षीणता हने चलो। सुलक्ष्यवान की अलक्ष्य साधना सुगम रहे। अदाम नाम-कामना-विरक्तता मे...