अर्धांगिनी का जन्म-दिन अर्थात् विशुद्ध अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते
1. एक
वैसा हो ही जाता था
मैं दरवाजा खोलता तो
सामने के दरवाजे पर
एक 'कोई नहीं सी' मुस्कान
'हेलो' बोलती थी।
आज वह जा रही है
'न उसकी न मेरी' जगह से
अपना सारा सामान समेटकर
किसी और जगह
किसी और की जगह पर
फिर किसी 'कोई नहीं से' दरवाज़े पर
उसकी जीवंत मुस्कुराहट
खड़ी मिलेगी किसी और को
एक 'कुछ नहीं' होने के
'कुछ नहीं युहीं से' दस्तक की तरह।
उसका होना भी एक अनहोनी थी
कुछ न होते हुए भी
कुछ न करते हुए भी
काम आने की बिना किसी सम्भावना की तरह
आने-जाने की औपचारिकताओं से दूर
एक अपरिचित चेहरे के
एक चिरपरिचित अपनापे की तरह
भावुक रस्साकसी से विरक्त
अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते की तरह
तुलित, संतुलित और सतत संचरित।
2. दो
नींद, सपने और मैं-
अचेत की अचिंतित गहराइयों में डूबे
किसी अज्ञात पहेली को सुलझा रहे थे
एक तरह से ढाक के तीन पत्ते होकर
एक दूसरे को बहला-फुसला रहे थे
तभी...कहीं दूर...
चर्च का घड़ियाल बजा....
टिंग टांग .. टिंग टांग...
सगुन-असगुन की आशंकाओं से हड़बड़ाई
वाताहत लड़खड़ाती हुई पत्नी ने
मुझे, सपने और नींद को लांघकर
खोला था दरवाजा...
और ठीक उसी के साथ
खुल गईं थीं मेरी
बिना सिटकनीवाली पलकें।
दरवाज़े पर अस्मिता थी
सूर्य और भुविन के साथ
तीन स्वर गूंजे
'हैप्पी बर्थ डे आंटी!'
खिलखिलाती आंखों और
मुस्कुराते होंठों ने ही
जैसे हाथ बनकर थाम रखा था
मीठे अहसासात का लज़ीज़ केक
कितनी अद्भुत थी आत्मीयता की वह घड़ी
रात के बारह बजे थे
सितारे अभी भी जगे थे
आधी रात के बाद
जन्म लेती एक नवजात तारीख बनकर
वो जो थे, सिर्फ पड़ोसी नहीं थे
अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्तों में बंधे
वे हमारे अपनों में ही कहीं थे
पंचमी का चांद जब
अपनी यात्रा के आखरी सोपान पर था
हमारा उत्साह पूरे उफान पर था
उस अप्रत्याशित ज्वार में हमने
चौंकानेवाले विस्मित अभिभूत क्षणों को
दिल खोलकर जिया
कुछ गुदाज़ गुदगुदाते गदगद पलों को
एक दूसरे की भरी हुई आंखों से पिया।
3. तीन
जैसे आजकल वांछित अवांछित मौसम
अकस्मात आते हैं
जैसे कुछ अनानुमानित चक्रवात
चकमा दे जाते हैं
कहीं होने की खबर करते हैं
कहीं पहुंच जाते हैं
जैसे कभी कभी ऋतुएं
आंख मिचौनियों में बौराती हैं
जैसे कभी कभी
अचानक गड़गड़ाते हैं बादल
और नटखट बदलियां बरस जाती हैं
ऐसे ही आशु आशंकित विलंब से
अतीत के साथ
वर्तमान को मुंह पर लपेटे
दरवाज़े पर खड़ा था
सुबह के बाद और
दोपहर के पहले
मध्यमार्ग की तरह।
दरअसल
आता तो है हर साल जनम दिन
पर इस बार कुछ नई रीत के साथ आया है
वो जो सम्भव ही था और निश्चित था
आज कुछ कल्पनातीत के साथ आया है।
'जन्म दिन मुबारक तुम्हें
कितने वर्ष की हो गयी हो तुम?
त्रेपन की शायद!'
मैं सोच रहा हूं और उसी बीच
दस वर्षीय सारंग पूछ रहा है-
'दादी जी, आप मेरे दादाजी से
बड़ी हैं या छोटी?'
हम सब एक ठहाके के बाद
चुपचाप हैं
यह एक ऐसा सवाल है
जिसके कई पैमाने हैं
कई-कई परिमाप हैं।
@डॉ. रा. रामकुमार,
२७.०६.२०२०,
आषाढ़ शुक्ल पंचमी,
शनिवार,
1. एक
वैसा हो ही जाता था
मैं दरवाजा खोलता तो
सामने के दरवाजे पर
एक 'कोई नहीं सी' मुस्कान
'हेलो' बोलती थी।
आज वह जा रही है
'न उसकी न मेरी' जगह से
अपना सारा सामान समेटकर
किसी और जगह
किसी और की जगह पर
फिर किसी 'कोई नहीं से' दरवाज़े पर
उसकी जीवंत मुस्कुराहट
खड़ी मिलेगी किसी और को
एक 'कुछ नहीं' होने के
'कुछ नहीं युहीं से' दस्तक की तरह।
उसका होना भी एक अनहोनी थी
कुछ न होते हुए भी
कुछ न करते हुए भी
काम आने की बिना किसी सम्भावना की तरह
आने-जाने की औपचारिकताओं से दूर
एक अपरिचित चेहरे के
एक चिरपरिचित अपनापे की तरह
भावुक रस्साकसी से विरक्त
अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्ते की तरह
तुलित, संतुलित और सतत संचरित।
2. दो
नींद, सपने और मैं-
अचेत की अचिंतित गहराइयों में डूबे
किसी अज्ञात पहेली को सुलझा रहे थे
एक तरह से ढाक के तीन पत्ते होकर
एक दूसरे को बहला-फुसला रहे थे
तभी...कहीं दूर...
चर्च का घड़ियाल बजा....
टिंग टांग .. टिंग टांग...
सगुन-असगुन की आशंकाओं से हड़बड़ाई
वाताहत लड़खड़ाती हुई पत्नी ने
मुझे, सपने और नींद को लांघकर
खोला था दरवाजा...
और ठीक उसी के साथ
खुल गईं थीं मेरी
बिना सिटकनीवाली पलकें।
दरवाज़े पर अस्मिता थी
सूर्य और भुविन के साथ
तीन स्वर गूंजे
'हैप्पी बर्थ डे आंटी!'
खिलखिलाती आंखों और
मुस्कुराते होंठों ने ही
जैसे हाथ बनकर थाम रखा था
मीठे अहसासात का लज़ीज़ केक
कितनी अद्भुत थी आत्मीयता की वह घड़ी
रात के बारह बजे थे
सितारे अभी भी जगे थे
आधी रात के बाद
जन्म लेती एक नवजात तारीख बनकर
वो जो थे, सिर्फ पड़ोसी नहीं थे
अनुभूतियों के अनिरुद्ध रिश्तों में बंधे
वे हमारे अपनों में ही कहीं थे
पंचमी का चांद जब
अपनी यात्रा के आखरी सोपान पर था
हमारा उत्साह पूरे उफान पर था
उस अप्रत्याशित ज्वार में हमने
चौंकानेवाले विस्मित अभिभूत क्षणों को
दिल खोलकर जिया
कुछ गुदाज़ गुदगुदाते गदगद पलों को
एक दूसरे की भरी हुई आंखों से पिया।
3. तीन
जैसे आजकल वांछित अवांछित मौसम
अकस्मात आते हैं
जैसे कुछ अनानुमानित चक्रवात
चकमा दे जाते हैं
कहीं होने की खबर करते हैं
कहीं पहुंच जाते हैं
जैसे कभी कभी ऋतुएं
आंख मिचौनियों में बौराती हैं
जैसे कभी कभी
अचानक गड़गड़ाते हैं बादल
और नटखट बदलियां बरस जाती हैं
ऐसे ही आशु आशंकित विलंब से
अतीत के साथ
वर्तमान को मुंह पर लपेटे
दरवाज़े पर खड़ा था
सुबह के बाद और
दोपहर के पहले
मध्यमार्ग की तरह।
दरअसल
आता तो है हर साल जनम दिन
पर इस बार कुछ नई रीत के साथ आया है
वो जो सम्भव ही था और निश्चित था
आज कुछ कल्पनातीत के साथ आया है।
'जन्म दिन मुबारक तुम्हें
कितने वर्ष की हो गयी हो तुम?
त्रेपन की शायद!'
मैं सोच रहा हूं और उसी बीच
दस वर्षीय सारंग पूछ रहा है-
'दादी जी, आप मेरे दादाजी से
बड़ी हैं या छोटी?'
हम सब एक ठहाके के बाद
चुपचाप हैं
यह एक ऐसा सवाल है
जिसके कई पैमाने हैं
कई-कई परिमाप हैं।
@डॉ. रा. रामकुमार,
२७.०६.२०२०,
आषाढ़ शुक्ल पंचमी,
शनिवार,
Comments