पितृ दिवस के अवसर पर एक पैतृक गीत :
***
अनबोली दुनिया में खुशबू भरने को,
संवादों के फूल खिलाने आया हूं।
मैं, मेरे, अपने, परिजन खुश रहें, खिलें,
सुमन सुमन भावी भावन भर लाया हूं।
बनावटों की बाट-बाट बगवानी थी।
स्वार्थ सनी हर ललक, खुशी,अगवानी थी।
नहीं सिकोड़ी नाक न माथे सिकन पड़ी,
मेरे लिए खेल उनकी नादानी थी।
संबंधों की मुझे लगन, उनको क्रीड़ा।
तोड़ी नहीं, सदा जोड़ी है मन-वीणा।
खिंचे तार पर कटी किन्तु उंगली फेरी,
झंकारों पर झूमा, नाचा, गाया हूं।
बदल नहीं सकते जब दुनियावालों को।
दिखा नहीं सकते अंदरूनी छालों को।
मगरमच्छ हैं जहां, हमे भी रहना है,
छोड़ नहीं सकते हम चलचर, तालों को।
पीकर विष, हंसकर अस्तित्व बचाना है।
जान बूझकर चोट-चोट मुस्काना है।
'तुम तुम हो, मैं मैं हूं' ऐसा सोच सदा,
इस कांटों से भरे सफर में आया हूँ।
नीड़ है मेरा, चूजे मेरे, मैं उनका।
उनकी खातिर जोड़ा है तिनका-तिनका।
बाजों से, गिद्धों से बचा-बचा लाया,
कभी न अंतर किया रात का या दिन का।
उनको इस जंगल में जीना सिखलाऊं।
कैसे लड़ें भेड़ियों से गुर बतलाऊं।
सिर, पर, पैर मिले हैं मुझको इसीलिए,
धरती नापी है, अम्बर पर छाया हूं।
इस दुनिया से अलग कहां दुनिया बनती।
धुन प्रमाद की, अहंकार के गढ़ बुनती।
'तोड़ो, काटो, अलगाओ, बांटे जाओ,'
विष जो बांटें उनकी यहां खूब छनती।
संन्यासी भी लौट गांव में आते हैं।
'छोड़ो झंझट दुनिया को समझाते हैं।
मैं विरोध न करूं, करूँ मन की, चुप सुन सबकी,
मन ही मन मैं दुनिया से भर पाया हूँ।
***
@ कुमार,
13-14.8.2013,
'
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अनबोली दुनिया में खुशबू भरने को,
संवादों के फूल खिलाने आया हूं।
मैं, मेरे, अपने, परिजन खुश रहें, खिलें,
सुमन सुमन भावी भावन भर लाया हूं।
बनावटों की बाट-बाट बगवानी थी।
स्वार्थ सनी हर ललक, खुशी,अगवानी थी।
नहीं सिकोड़ी नाक न माथे सिकन पड़ी,
मेरे लिए खेल उनकी नादानी थी।
संबंधों की मुझे लगन, उनको क्रीड़ा।
तोड़ी नहीं, सदा जोड़ी है मन-वीणा।
खिंचे तार पर कटी किन्तु उंगली फेरी,
झंकारों पर झूमा, नाचा, गाया हूं।
बदल नहीं सकते जब दुनियावालों को।
दिखा नहीं सकते अंदरूनी छालों को।
मगरमच्छ हैं जहां, हमे भी रहना है,
छोड़ नहीं सकते हम चलचर, तालों को।
पीकर विष, हंसकर अस्तित्व बचाना है।
जान बूझकर चोट-चोट मुस्काना है।
'तुम तुम हो, मैं मैं हूं' ऐसा सोच सदा,
इस कांटों से भरे सफर में आया हूँ।
नीड़ है मेरा, चूजे मेरे, मैं उनका।
उनकी खातिर जोड़ा है तिनका-तिनका।
बाजों से, गिद्धों से बचा-बचा लाया,
कभी न अंतर किया रात का या दिन का।
उनको इस जंगल में जीना सिखलाऊं।
कैसे लड़ें भेड़ियों से गुर बतलाऊं।
सिर, पर, पैर मिले हैं मुझको इसीलिए,
धरती नापी है, अम्बर पर छाया हूं।
इस दुनिया से अलग कहां दुनिया बनती।
धुन प्रमाद की, अहंकार के गढ़ बुनती।
'तोड़ो, काटो, अलगाओ, बांटे जाओ,'
विष जो बांटें उनकी यहां खूब छनती।
संन्यासी भी लौट गांव में आते हैं।
'छोड़ो झंझट दुनिया को समझाते हैं।
मैं विरोध न करूं, करूँ मन की, चुप सुन सबकी,
मन ही मन मैं दुनिया से भर पाया हूँ।
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@ कुमार,
13-14.8.2013,
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