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मानवता के अन्तिम दिन का गीत

मानवता भाड़ में जा चुकी है। उसकी पुण्य-तिथि पर टूटे-फूटे शब्दों में एक श्रद्धांजलि : 
*
मानवता के अन्तिम दिन का गीत :
*
मन बैरागी 
किसी ठौर पर 
कब ठहरा है!!
*
सूकर-सोच, सुलभ-साधन, सम्मोहक-सपना!!
भाता नहीं, भुलावों के, भट्टों का तपना!!
नहीं चाहता छद्म, छलों के तमगे लेकर,
कानी दुनिया की कैंड़ी आंखों में बसना!!
कैसा परिचय,
लिपा-पुता ही,
जब चहरा है!!
*
प्रेम-घृणा की सबकी अपनी-अपनी सिगड़ी!!
तिया-पांच में शान्ति-ध्वजा ही होती थिगड़ी!!
बात बनाकर बना रहे हम लाख बहाने,
बननेवाली इससे हर इक बात ही बिगड़ी!!
हर बातूनी,
जब सुनना हो,
तब बहरा है!!
*
टेढ़े-मेढ़े रस्तों के हर मोड़ अनोखे!!
जो पर्वत झरने छलकाये, पानी सोखे!!
ऋतु-चक्रों के सब चरित्र बदले बदले हैं,
अब बसन्त या मानसून हैं केवल धोखे!!
मरूद्यान भी 
मृगतृष्णा है, 
सब सहरा है!!
*
जागो! भोर-गढों के भोलों, आंखें खोलो!!
यही आखिरी सुबह बची, इसकी जय बोलो!!
इससे पहले काल-पात्र मिट्टी का टूटे,
शुभ संकल्प शेष जितने हों, इसमें घोलो!!
संकट का 
छोटा गड्ढा भी
अब गहरा है!!
*
@कुमार,
5.5.18,
शनिवार,



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