रस काव्य की आत्मा है। छंद उसका शरीर है और अलंकार उसके आभूषण हैं। काव्यांग विश्लेषण और व्याख्यान में इसी दृष्टांत को वर्षों से परोसा जाता रहा है। व्यंजनों के रसास्वादन के लिए। उसे स्वादिष्ट बनाने के लिए।
रस आत्मा की भांति दिखाई न देने वाला मनोभाव है। शरीर की भांति छंद के नाटे लम्बे, मोटे दुबले होने का प्रत्यक्ष हो जाता है। कुरूप और सुरूप होने का बोध भी होता है। नई लहर ने कविता आंदोलन के साथ यद्यपि कायाकल्प कर लिया है और बिल्कुल छरहरी होकर लुभाने की मुद्रा में स्थान स्थान पर खड़ी मिल जाती है। अलंकार भी रूप के अनुकूल उसने बदल लिये हैं। बिल्कुल त्यागे नहीं हैं। गद्य तक में भी अलंकरण के आधुनिक स्पर्श दिखाई दे जाते हैं। छंद की तरह अलंकार भी दिखाई देनेवाले स्थूल रूप हैं। दिखाई देने वाले के स्थान पर दिखाए जाने लायक शब्द रख देने से भी उसके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
हमारी प्रगति में बंधन मुक्त होने की लालसा दिखाई देती है। यह और बात है कि बंध हम फिर भी जाते हैं। यहां रूसो का कथन उदाहरण बन सकता है कि हम पैदा तो स्वतंत्र हुए हैं लेकिन सामाजिक होने से सर्वत्र जंजीरों में बंधे हुए हैं। हमारे अनुशासन को या सामाजिक अनुबंधों को समझाने के लिए आनुबंधिक समाज की परिकल्पना करनेवाले रूसो ने प्रतीकों की सहायता ली। इससे रूखे विचार की गंडेरियों में रस भर गया। आनंद आ गया। दिखाई नहीं दिया क्योंकि काव्य का रस दिखाई नहीं देता। वह चुपचाप हमारी सूखी आत्मा में रिस जाता है और वह जीवंत हो उठती है। इसलिये इसे काव्य की आत्मा कहा गया है।
जिस काव्यशास्त्री ने आत्मा कहा है वह आत्मा नामक वस्तु पर भरोसा रखता रहा होगा। प्राण भी कह सकता था। रस काव्य का प्राण है। रस हटा तो शरीर सूखे बांस की तरह नीरस हो जाता है। वह गन्ना नहीं हो सकता। घास का गन्ना होना उसकी रसात्मक क्षमता ही है। पर जो आत्मा नहीं मानते उनके लिए प्राण शब्द प्रतिनियुक्त किया जा सकता है। प्राण हैं तो हम हैं और हम हैं तो आत्मा के बिना हमारे होने का अर्थ ही क्या है? ऐसा कहनेवाले भी मिल सकते हैं। आत्मा और प्राण दोनों रसात्मक शब्द हैं। अस्तित्व दोनों का नहीं है लेकिन शरीर के अस्तित्व के लिए दोनों का अनिवार्य माननेवाालों की कमी नहीं है। आत्मा और प्राण दोनों में कौन अधिक आवश्यक है? प्राण प्रतीकात्मक है और आत्मा नैतिक-भाव है। प्रतीक और भाव दोनों स्थायी नहीं है। इसलिए रस प्रतीक और भाव दोनों नहीं है। फिर आत्मा और प्राण कहने का तात्पर्य क्या हो सकता है।
रस आत्मा है अगर यह कहते हैं तो वह क्या है जो रस ग्रहण करता हैं? शरीर रस ग्रहण नहीं करता। मन और प्राण नामक दो मायावी अभिकर्ता भी इसे ग्रहण नहीं करते। काव्य रूपी शरीर में वह कौन है जो रस रूपी आत्मा को ग्रहण करता है? क्या रस ग्रहण करने योग्य पदार्थ है? क्या रस और आत्मा का अर्थ एक ही है? रस का क्या स्वभाव है और आत्मा के क्या आचरण हैं, यह विचार करना जरूरी है तभी दोनों में अंतर्संबंध स्थापित किये जा सकते हैं।
रस का संबंध हमारी अंतर्वृत्ति से है। रस वृत्तियों को जाग्रत करता है। वृत्तियों की संख्या हज़ारों में आंकी गई है। अलग अलग उत्पादों से अलग अलग रस मिलता है। रस भी हज़ार हो सकते हैं। रस अगर आत्मा है तो रस की तरह आत्मा भी हज़ार होनी चाहिए। इस आत्मा से यह रस मिला, उस आत्मा से वह रस। पर जैसा कि भारतीय संस्कृति का विश्वास है कि आत्मा एक है, जो अलग अलग देहों में संचरण या विचरण करता है। देह आत्मा के वस्त्राभरण हंै। आत्मा वस्त्र बदलता है, यह भारतीय विचार-धारा है। आत्मा को वस्त्र में रस मिलता है। अलग अलग वस्त्रों में अलग अलग रस। इस तरह भी आत्मा का रस होना सभंव नहीं है। आत्मा जो, जैसा कि कहा जाता है, देह में स्थित है, वह रस ग्रहण करता/करती है, रस नहीं होती। देह से रस का आस्वाद नहीं हो सकता। रस सूक्ष्म है तो उसे ग्रहण करने वाला भी सूक्ष्म होना चाहिए। आत्मा जो सूक्ष्म है और स्थायी रूप से देह के भीतर रहता है, जैसा कि आत्मावादी कहते हैं, तो वह रस के आयात का सुख भोग सकता है।
रस आंतरिक भी सकता है। लेकिन जिस रस को काव्यात्मा कहा जा रहा है वह बाहर से आयातित है। काव्य के माध्यम से एक विशेषीकृत रस का संप्रेषित किया जा रहा है। जिस जिस आत्मतत्व के द्वारा वह ग्रहण किया जा रहा है, वहां वहां आनंद का उत्पन्न कर रहा है। रस आनंद रूप है या रस आनंद है। आत्मा आनंदरूप नहीं है। वह रस की तरह किसी अन्य को तृप्त नहीं कर सकती। वह तृप्त हो सकती है। रस आत्मा की प्यालियां भर सकता है। दोनों अलग अलग अस्तित्व हैं। इसलिए रस काव्य की आत्मा नहीं है। रस काव्य का उत्पाद है और जैसा कि होता है हर उत्पाद का अलग अलग प्रयोजन होता है, रस का भी प्रयोजन होता है। काव्य में रस होना स्वाभाविक है। बिना रस के काव्य नहीं हो सकता। काव्य रस के साथ ही जन्म लेता है। रस काव्य का स्वभाव है। रस ही काव्य के जन्म का कारण भी है। रस काव्य की प्रेरणा भी है। रस ही काव्य को उन स्थानों की सैर कराता है जहां उस रस के ग्राहक होते है। इसलिए रस व्यवसन भी होता जाता हैं। श्रृंगाररस, वीररस, वीभत्सरस, रौद्ररस, करुणरस, भक्तिरस, शान्त रस, हास्यरस, अद्भुतरस, वात्सल्य रस अपनी-अपनी अधिकता के कारण व्यसन की श्रेणी में आते ही रहे है।
आज हम उस रस की चर्चा करेंगे जिसकी प्रायः उपेक्षा हो गई है। वह रस है ‘विष-रस’। यह रस कबीर के ‘रामरस’ से भिन्न है। कबीर के ‘रामरस’ की विशेषता है कि उसे पीते ही खुमारी आ जाती है। पिवत रामरस लगी खुमारी’। सोम-रस’ की जाति का कोई रस वह होगा।
कबीर के युग के संत रविराय या रैदास की शिष्या मीरां के अनुसार, ‘विष का प्याला भेज्यो राणाजी पीवत मीरां हांसी रे।’ विष का प्याला पीकर मीरां का हंसना बताता है कि विष में हंसाने का गुण होता है।
कबीर के बाद की भक्त परम्परा के कवि तुलसी ने मीरां को भेजे गए प्याले की धातु का वर्णन किया है। मेवाण के राणा की सामथ्र्य के अनुसार यह विष का प्याला सोने का था। तुलसी ने अयोध्या के राजकुमार लक्ष्मण के बहाने से बताया कि ’विष रस भरे कनक घट जैसे।’ तुलसी कहते हैं कि विष रस कनक यानी सोने के घट अथवा पात्र यानी प्याली में भरा हुआ है।
यह हमारी मानवीय वृत्तियों का सर्वाधिक शक्तिशाली रस है। अज्ञेय जैसे आधुनिक प्रयोगवादी ने भी इसका स्वाद चखा था और उल्लेख किया था। दुनिया में विष उत्पादन के लिए जाने जानेवाले सांप से सीधे ही वे प्रश्न करते हैं-‘सापं तुम शहरों में नहीं रहे, फिर यह डसना कहां से सीखा और विष कहां से पाया। अज्ञेय के अनुसार शहरों में विष बहुतायत से मिलता है और डसने की विद्या भी। जिन्हें शहरों में रहने का सौभाग्य मिला है उन्हें सरलता से डसना भी आ गया है और विषवमन करना भी।
सांप का विष अगर सीधे सांप से प्राप्त होता है तो मृत्यु हो जाती है और डाक्टर उसे प्रोसेस करके इन्जेक्शन से देते हैं तो जीवन मिलता है। विष मृत्यु का प्रतीक है तो जीवन का भी। वैसे मृत्यु को कबीर और मीरां का संत-दर्शन दूसरा जीवन कहता है। इस प्रकार मृत्यु ही जीवन है और जीवन ही मृत्यु है। यही बात थी जिससे सोने के प्याले में राणा के द्वारा भेजे गए प्याले का देखकर मीरां हंस पड़ी।
मीरां को एक पल लगा ‘ऐ री माई मरी री!’ फिर दूसरे ही क्षण लगा मरी तो प्रियतम से मिली और प्रियतम से मिली तो जी उठी।’’ यह समझते ही मीरां खिलखिलाकर हंसने लगी-‘‘अब बताओ यार राणा! मार रहे हो कि जिला रहे हो।’’
इस प्रकार सिद्ध हुआ कि विषरस करुण रस नहीं है, हास्य रस है।
पुनश्च 1. भक्तिरस को अन्यत्र शांतरस भी (अज्ञानवश) कहा गया है। रस भी कभी शांत रहा है? रस अत्यधिक सक्रिय होता है। वह रसिक को निरंतर अनुकूलरूपेण सक्रिय करता है। रामरस या सोमरस पीकर शांत दिखनेवाले क्या रस के सक्रिय प्रभाव का उदाहरण नहीं है? रस अपने स्वभाव के अनुसार सक्रिय होकर दूसरों को शांत या उत्तेजित करता है। शांतरस जिसे कहते हो, वहां ‘शांति’ प्रतिक्रिया है रस की तीव्रतम क्रिया की। पीकर धुत्त पड़े व्यक्ति को मोटे तौर पर शांत कह सकते हो, मगर जब उसके थोड़ा बहुत होश में आते ही पता चलता है कि उसे शांति कहां? निर्वेद को स्थायी भाव कहने से उसका आशय परिणाम स्वरूप भक्ति हो जाता है इसलिए इसे यहां लेखक अपने मतानुसार ‘भक्तिरस’ कह रहा है।)
दि. 5.5.14,
Comments
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कितने श्रम और मनोयोग से लिखते हैं आप आदरणीय डॉ.आर.रामकुमार जी
सादर प्रणाम !
आपके आलेख जानकारीवर्द्धक होने के साथ-साथ रोचक भी होते हैं ।
प्रस्तुत आलेख भी ऐसा ही है।
‘विष-रस’ पर जानना नया अनुभव है।
यद्यपि मेरा मानना है कि विष का प्याला भेज्यो राणाजी पीवत मीरां हांसी रे में मीरां का हंसना वितृष्णा , उपहास और किंचित घृणाजनित भाव के कारण है । विष में हंसाने का गुण वाली बात आपने विनोद में कही है तो मैं पहचानने में अयोग्य सिद्ध हुआ हूं ।
:)
आपके संपूर्ण लेखन के लिए हृदय से साधुवाद !
आप जैसे गुणी के ब्लॉग पर आ'कर अच्छा लगा ।
पहले भी आता रहा हूं , आगे भी आना तय है...
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
ब्लॉग पर टिप्पणी हेतु आभार…
इतनी आत्मीय टिप्पणी के लिए धन्यवाद।
आप लम्बे समय से मेरे लेखन से वाकिफ हैं। मेरे सुरतराल से परिचित हैं। विनोद मेरा लेखकीय स्वभाव है।
आपका यह कथन सही है कि ‘यद्यपि मेरा मानना है कि विष का प्याला भेज्यो राणाजी पीवत मीरां हांसी रे में मीरां का हंसना वितृष्णा, उपहास और किंचित घृणाजनित भाव के कारण है।’
मेरे लेख के अंतिम पैरा के अनुसार ‘‘ विष मृत्यु का प्रतीक है तो जीवन का भी। वैसे मृत्यु को कबीर और मीरां का संत-दर्शन दूसरा जीवन कहता है। इस प्रकार मृत्यु ही जीवन है और जीवन ही मृत्यु है। यही बात थी जिससे सोने के प्याले में राणा के द्वारा भेजे गए प्याले का देखकर मीरां हंस पड़ी।
मीरां को एक पल लगा ‘ऐ री माई मरी री!’ फिर दूसरे ही क्षण लगा मरी तो प्रियतम से मिली और प्रियतम से मिली तो जी उठी।’’ यह समझते ही मीरां खिलखिलाकर हंसने लगी-‘‘अब बताओ यार राणा! मार रहे हो कि जिला रहे हो।’’
इस प्रकार सिद्ध हुआ कि विषरस करुण रस नहीं है, हास्य रस है।
इसमें भाव यही है कि मीरा को विष से भय नही लगा। संत थी वह। जीवन और मृत्यु से ऊपर। राग द्वेष, हास उपहास, घृणा वितृष्णा सभी से ऊपर। उनकी हंसी में आनंद था। एक रहस्य मय आनंद जिसे कोई पहुंचा हुआ संत ही पा सकता है।
मेरे कुछ मित्र प्राध्यापक भी चैंके थे। पर मैं हंसने लगा तो वे समझ गए कि बात घुमाकर कही जा रही है और कहां जा रही है।
आप भी समझ गए ‘विष में हंसाने का गुण वाली बात आपने विनोद में कही है’
आते रहें । आपके जैसे निर्मल हृदय बंधुओं की टिप्पणी मनोबल देती है।
एक बार फिर धन्यवाद।
आपका भी आभर कि आपने टिप्पणी देकर मेरा मनोबल बढ़ाया।
नयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया (नई ऑडियो रिकार्डिंग)
बहुत बहुत धन्यवाद प्रोत्साहन के लिए