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तेरा दिल या मेरा दिल


 पाठकीय किंवा पठनीय

               

कुछ मामलों में आचार संहिताएं काम नहीं करती। जैसे मामला ए प्रेम या फिर वारदाते भोगविलास, या फिर माले मुफ्त और दिले बेरहम। सारा कुसूर दिल का है। कवि शैलेन्द्र ने स्पष्टतः कहा है- दिल जो भी कहेगा मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है। समकालीन युग में प्रेम और श्रृंगार के स्टार-कवि के रूप में आत्म-ख्यात कुमार विश्वास ने भी उनके स्वर में स्वर मिलाकर गया है-
कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है।
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है।
मैं तुझसे दूर हूं कैसा, तू मुझसे दूर है कैसी-
ये मेरा दिल समझता है या तेरा दिल समझता है।
ये पेशे से प्रोफेसर हैं। इनकी इन पंक्तियों ने इन्हें रातों रात स्टार कवि बना दिया। मंचीय कवियों के इतिहास में यह एक क्रांतिकारी के रूप में उभरे जिसने मानदेय के सारे रिकार्ड तोड़ दिये। नीरज तक नीरस हो गए। इसके पीछे कारण मात्र दिल का है। लाखों युवाओं के दिल की बात इन्होंने कह दी। अब हंगामा तो होना ही था जैसा बिहार के प्रोफेसर के समय हुआ। उन्होंने ग़ालिब के प्रसिद्ध ‘प्रमेय’  ‘‘इश्क पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब, कि जलाए न बने और बुझाए ना बने.’’ को प्रायोगिक तौर पर सिद्ध करते हुए अपनी एक सुन्दर शिष्या के साथ बुढ़ापे में प्रेम विवाह कर लिया।
सारे सामाजिक हिन्दुस्तान में हंगामा हो गया। एक प्रोफेसर को यह शोभा नहीं देता। यानी ऐसे मामले शोभा तो देते हैं मगर एक प्रोफेसर को नहीं। प्रोफेसर तो समाज को मार्ग दिखानवाली मोमबत्ती है। किसी ने यह भी कहा है कि शिक्षक वह मोमबत्ती है जो दोनों सिरे से जलती है। उसे जल जलकर मिट जाना चाहिए। बुझकर बचने का उपाय उसके लिए निन्दा का कारण बनता है।
कुमार विश्वास ने हंगामे के बाद भी उनके दर्द पर मरहम बनकर एक और मुक्तक कहा।उनका आशय यह था कि शिक्षक भी इंसान है सिर्फ राजनेता नहीं।
राजनीति में ऐसा है कि कवि जगनिक के अनुसार ‘जेहि कि बेटी सुन्दर देखी तेहि पर जाय धरी तरवार।’
ताजा उदाहरण देख लीजिए। एक राजा राजनीतिक ने सत्तर के आसपास पहुंचे अपने विधुर दिल के कहने पर उम्र के चैथे दशक को छूती हुई जर्नलिस्ट से प्रेम कर लिया। चलता है। उनके दल के ही एक हेण्डसम मंत्री ने जीवित और सुन्दर पत्नी के होते हुए एक सुन्दर पाकिस्तानी जर्नलिस्ट से संबंध बनाकर अपने दिल की सुनी। दिल की सुनना चाहिए यही तो हमारे बुजुर्ग कहते हैं। एक जर्नलिस्ट की पिछले दिनों दिल्ली में हत्या हुई जिसका संबंध एक राजनीतिक से था। भंवरी बाई नामक एक नर्स की लाश तक नहीं मिली क्योंकि वह कुर्सी के लिए खतरा थी।
दिल के मामले में इन दिनों राजनीति सबसे आगे है। जिधर भी दृष्टि उठाइये राजनीति में आपको प्रेम संबंधों की बहार दिखेगी। केन्द्र का वर्तमान भी इन्हीं सुवर्ण पथों से होकर आया है। कहीं कहीं तो यह वंश-परंपरा के रूप में है। राजा महाराजाओं में यही चलता था। अकबर जोधा सीरियल और फिल्म देखिए। प्रेम ने दो देशों की दूरियां कम की हैं। इतिहास गवाह है और वर्तमान उसका अनुसरण कर रहा है। अंग्रेजी कहावत है कि रोम रातोरात नहीं बनता। भारत भी रातों रात नहीं बना। पिछले सड़सठ साल लगे हैं उसे बनने में। प्रेम से बनने में। ब्रिटिश से भारत होने के लिए प्रेम ही काम आया।
राजा ने तो प्रेम के लिए मध्यप्रदेश से केवल उत्तरप्रदेश तक की यात्रा की है। भोपाल से दिल्ली जाने पर बीच में उत्तर प्रदेश पड़ता है। शरीर के मध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के बीच में दिल पड़ता है। अब कोई क्या करे?
आचार संहिता चल रही है और संबंधित लोग कह रहे हैं कि यह व्यक्तिगत मामला है इस पर नहीं बोलना चाहिए। ‘जनप्रतिनिधि व्यक्तिगत होता है’ यह अब पता चल रहा है। रायबरेली में तो एक परिवार बोल रहा है कि वे जनता की आवाज हैं, उनका कुछ भी व्यक्तिगत नहीं। राजनीति भी बहुत जटिल चीज है भाई। कौन मगज मारी करे। करने दो जिसका जो दिल कहे। वैसे भी प्रेम की कोई आचार संहिता नहीं होती। कहते भी हैं ‘एवरी थिंग इज फेअर, इन वार एण्ड लव।’
शनि, प्रातः, 3.5.14

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