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माटी के पुतले 3

स्थापना और विसर्जन

पूरे देश में मूर्तियां स्थापित हो गई हैं। हम उन मूर्तियों को स्थापित होते देख सकते हैं , जिन्हें हममें से कुछ लोग बनाते हंै और बहुत से लोग स्थापित करते हैं। क्यों बनती हैं मूर्तियां , कैसे बनती हैं मूर्तियां और क्यों और किसके लिए स्थापित होती हैं मूर्तियां ? कौन मूर्तियां बनाता है ? किसके इशारे पर बनाता है और कौन स्थापित करता है इन्हें ? इन सवालों के बारे में सोचने की ना तो हमें जरूरत हैं और ना तो कोई सोचता है। मूर्तियां स्थापित हो जाएं , उन्हें प्रतिष्ठित कर दिया जाए, एक लोक आयोजन हो ,नगर और अपने सहज पहुंच में पड़नेवाले स्थानों पर अगर हम जाना चाहें तो जाकर देखकर आनंदित हो लें या श्रद्धावनत होलें। सामाजिक मनुष्य से इतनी ही अपेक्षा की जाती है और इतनी ही उसकी आवश्यकता होती है। स्थापना और प्रतिष्ठा का सुख जिन्हें मिलता है , वे उसका आनंद सप्रयास ले लेते हैं।

मैंने मूर्तियों के निर्माण का आनंद लिया। यह आनंद हमारे हाथ में होता हैं। हम ही निश्चित करते हैं कि किस चीज़ का हमें आनंद लेना है। थोपी गई भयंकर और भयानक ‘सुन्दर’ वस्तु का आनंद लेना किसी के वश की बात नहीं हैं। चाहे फिर वह अमूर्त सुन्दर वस्तु हो या मूर्त। जीवित या जड़।
मैंने जड़ मूर्ति के निर्माण को नजदीक से देखा। यह मेरे लिए सरल भी था और संभव भी।जीवित वस्तुओं के निर्माण के बारे में मैं केवल सोच सकता हूं। सोच कर लोग ज्यादा आनंदित होते हैं पर देखकर आनंदित होना सरल तो है पर कठिन भी। यह भी हमारी सोच पर निर्भर है। यदि बहुत सुन्दर की कल्पना के साथ देख रहे हैं तो दुखी हो सकते हैं क्योकि सब कुछ बहुत सुन्दर नहीं होता। ‘जो भी है ,देखते हैं कैसा है ’ इस भाव से देखते हैं तो हमारे आनंदित होने की संभावना है। मैं इसी भाव से बैठा रहा और जिज्ञासा मेरा पूरा साथ देती रही।

मैंने और मेरी जिज्ञासा ने देखा कि कैसे लकड़ी का ढांचा खड़ा किया जाता है। कैसे कीलें ठोंकी जाती हैं और कैसे सुतलियां बांधी जाती है। कैसे घास और पैरे से पेशियां गढ़ी जाती हैं। कैसे मिट्टी के ढेलों को मांस की तरह चढ़ाया जाता है। फिर महीन बुनी हुई पटसन यानी सन की फट्टि यों के टुकड़ों को निथरी हुई मिट्टी के गाढे घोल मेें लपेटकर त्वचा की रचना की जाती है और रगड़रगड़कर उसे चिकना बनाया जाता है।

फिर सांचे में ढाले गए सिर या मुखाकृति रखी जाती है। उसे मूर्ति के साथ मिट्टी से जोड़ दिया जाता है। फिर लेप। और फिर रंगकारी। और फिर श्रृंगार। ग्राहक बीच बीच में आकर देख जाते हैं कि कैसी बनी और कहां तक बनी ? बड़ी मूर्तियां आर्डर और एडवांस की ताकत से ही बनती हैं। ओर फिर गंतव्य की ओर मूर्तियां एक अनाज के बोरे की तरह उठकर चली जाती हैं। मूर्तिकार अपनी मेहनत का मुआवजा ले लेता है और प्रशंसा का बोनस भी।


आजकल कलाकार का काम उद्योग की तरह हो गया है। मिट्टी की खरीद से लेकर अन्य कच्चे माल को एकत्र कर उसको उपयोग के लायक बनाना। फिर ढांचा बनाकर उसे समुचित रूपाकार देना उसके हाथ में हैं। रंग और उसका संयोजन उसकी कल्पना और कौशल की कला है। किन्तु जिन मूर्तियों को विशिष्ट श्रंगार देना है उसके लिए पश्चिम बंगाल पटसन, कार्क , प्लास्टिक और कागज आदि से बनी सामग्रियां शेष भारत में भेजता है। इससे कलाकार का काम हल्का भी हो जाता है और तेज भी। कम समय में अधिक का उद्पादन और विपणन इससे संभव हो जाता है। समय जो है सो प्रतिस्पद्र्धा का है। जो चूका वह फिसला , पिछड़ा ,पददलित हुआ। इसलिए समय जैसा चाहे कलाकार वैसा रच दे, यही रचना का नियम है। दुनिया इसी की कद्र करती है। हमें बदले में दुनिया की कद्र करनी चाहिए। कलाकार का क्या है , उसके साथ उसका स्वाभिमान है। कला लोगों की हो जाती है, कलाकार पृष्ठभूमि में चला जाता है। जब कोई नहीं होता तो वह अपनी कल्पना और स्वाभिमान के साथ फिर नये सृजन में जुट जाता है। हर व्यक्ति कलाकार नहीं ोता पर कला की प्रशंसा वह कर सकता है। यही सरल है। कलाकार पैदा होते हैं। प्रशंसक भी पैदा ही होते हैं। कला बहुमूल्य होती है। प्रशंसक अपनी प्रशंसा की कीमत लगाते हैं और उसी के अनुकूल आयोजन इत्यादि करते हैं। संगठन खड़ा करते हैं। स्थापित और विस्थापित करते हैं।
कबीर कहते हैं-
माटी के हम पूतरे मानुस राखा नाम।
चार दिवस के पाहुने बड़ बड़ रूंधहिं धाम ।
और यह भी कहते हैं-
माटी एक भेस धरि नाना सबमें एक समाना
कह कबीर भिस्त छिटकाना दोजग ही मन माना ।
कहते हैं कि एक ही मिट्टी के हम बने हैं। बस अलग अलग रूप ले लिया हैं। नाक नक्श बदले होने से क्या होता है। रा-मटेरियल एक ही है। इस बदले हुए रूप के कारण बहिश्त (भिस्त) और दोजख (दोजग) तुमने अलग अलग खड़े कर लिए। एक जायेगा बहिश्त और दूसरा जलेगा दोजख की आग में । दूसरा कौन ? वही जिसे एक गरियाते हुए काफिर कहता है। यह कबीर कह रहे हैं।
बहादुर शाह ज़फ़र इसी का अनुवाद करते हैं -
उम्रेदराज़ मांगकर लाए थे चार दिन
दो आरजू़ में कट गए दो इंतज़ार में।
यानी मनुष्य चार दिन का गणित है। दुर्गोत्सव या गणेशोत्सव भले ही वह दस दस दिन का मनाए ,यह उसकी उम्र बढ़ाने की कोशिश हो सकती है, मगर मध्यकाल और आधुूनिक काल के पास चार दिन का ही हिसाब है। हम इसी सूत्र से स्थापना और विसर्जन करते हैं। विसर्जन के बारे कबीर पूछते हैं, अपनी साखी में कि -
माटी मे माटी मिली , मिली पौन में पौन
हौं तौं बूझौं पंडिता दो में मूआ कौन।
कबीर पूछते हंै कि भाई यह जो चार दिन का आयोजन है और यह जो स्थापना का तांडव है उसके बाद तो अनिवार्यतः विसर्जन है। विसर्जन में क्या होगा कि मिट्टी जाकर मिट्टी में मिल जायेगी और पवन पवन में मिल जायेगा। पांचों तत्त (तत्व) ...जल, छिति ,पावक ,गगन ,समीरा .. ये पांचों भी मिल जायेगें अपने अपने संस्रोतों में। तो मरा कौन ?
कबीर ने केवल दो के उदाहरण से पूछा कि मिट्टी और हवा में कौन मर गया ? मरता तो केवल रूप या फार्म है। जीते जी बस इसकी नाटकीयता के दर्शन का सुख हमें मिलता है। यही हमारे बस में हैं बाकी सब बेकार की बातें हैं। बस! अब चेतो और बेकार की बातें छोड़ो। यह कबीर कह रहे हैं।
-13.10.10

Comments

सुन्दर जीवन दर्शन। धन्यवाद।
आज केवल इतना कहना चाहता हूं कि पहली बार इस ब्लॉग पर आया और अफ़सोस हुआ कि इतने दिनों इस ब्लॉग पर नज़र क्यों नहीं गई।
KK Yadav said…
यह शरीर भी तो मिटटी में ही मिल जाना है...काफी अच्छा लिखते हैं आप..बधाई.




________________
'शब्द-सृजन की ओर' पर आज निराला जी की पुण्यतिथि पर स्मरण.
इन त्योंहारों को आदर्श जीवन दर्शन से जोड़कर प्रस्तुत किया आपने..... बहुत सुंदर

परवाज़ पर ...
-------------------------------------क्यूँकि मैं एक पिता हूँ...!
Sunder Abhivyakti rochakta or rachnatmakta ka samanvay....!

Dhanyabaad
बहुत बेहतरीन ढंग से जीवन दर्शन और कबीर दास जी की बात सामने रखी है. आपका बात कहने का तरीका एकदम अलग है और लाजवाब भी. आज टी वी में देखा की फरीदाबाद में एक जगह कागज की दुर्गा की प्रतिमा बनाई है जो इको फ्रेंडली है और बनाने में ९ महीने लगे .तो तुरंत आपकी पोस्ट याद आ गयी की अभी एक पोस्ट पर कमेन्ट बाकी है सो आ गयी
आभार
अच्छी प्रस्तुति...
विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएं.
sandhyagupta said…
देर से आने के लिए क्षमा चाहती हूँ.अंतराल में काफी कुछ पोस्ट किया है आपने.एक एक कर पढ़ रही हूँ.दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
Parul kanani said…
main abhi tak yahin hoon..well done!
RAJWANT RAJ said…
kisi klakar ko apni bat khne ke liye bat ki nhi blki sadhn our ehsaas ki jroorat hoti hai. vo bhut hi shj trike se apni bhavnao ko abhivykt kr lene me smrth ho jata hai .
ye mitti, kagaz, rang , lkeere our unke peechhe se jhakti bhavnaye in sbhi ko meri jindgi ke kai lmho ne jiya hai isliye mai aapki bat ko bhut achchhe se smjh pa rhi hu .
aapki post bhut achchhi our gyanvrdhk hai .aasha hai aage bhi jivnopyogi bhut kuchh janne ko milega .
sadr dhnywaad .
ZEAL said…
.

अद्भुत जीवन दर्शन---आभार।

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Archana writes said…
bahut hi khubsurat darshan prastut kiya hai aapne...sath hi kabir ji k doho ne sundarta bada di...thanks archana..
माटी कहे कुम्हार को तू क्या रौंदेगा मोहे
इक दिन ऐसा होयेगा मैं रौंदूंगी तोहे

सही सवाल उठाये हैं आपने .....
रामकुमार जी हर दुर्गा पूजा के अवसरपर मेरे दिल में भी यही ख्याल आता है ....
महीनों लगाकर इतनी मेहनत से बनाई गयी मूर्ति सिर्फ तीन दिन के लिए होती है चौथे दिन हजारों की संपत्ति भी इसी मूर्ति के साथ मिटटी में बहा दी जाती है ....
क्या विसर्जन जरुरी है ...?
क्या ये नाटकीयता नहीं है
क्या ये संभव नहीं कि कम से कम साल भर उस मूर्ति को उसी स्थान पर रहने दिया जाये ...?
पता नहीं ये मानव किन किन आडम्बरों से भरा है .....
कभी कभी मुझे सिखों के ग्रन्थ साहिब को गुरु रूप में पूजना भी गलत लगता है ....
गुरु गोविन्द सिंह जी ने अंतिम समय में ये कहा था कि अब मेरे बाद कोई गुरु नहीं होगा ...इस ग्रन्थ को ही गुरु मान इस में लिखी बानी पर अम्ल करना है ...पर आज आडम्बर देखिये ....पांच बाणियों का पाठ करते वक़्त तो कईयों को उनका अर्थ भी नहीं पता होता .....कैसी विडंबना है ये .....
इन त्योंहारों को आदर्श जीवन दर्शन से जोड़कर प्रस्तुत किया आपने..... बहुत सुंदर

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