समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य : विनोद कुमार शुक्ल की कविताएं
'विनोद कुमार शुक्ल हिंदी कविता के वृहत्तर परिदृश्य में अपनी विशिष्ट भाषिक बनावट और संवेदनात्मक गहराई के लिए जाने जाते हैं।' ये विशिष्ट विशेषताएं कविताएं ही बताएं, 'सब कुछ होना बचा रहेगा' काव्य संग्रह से कुछ कविताएं
1.
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे / विनोद कुमार शुक्ल
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
+++
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।--
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।
2.
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य / विनोद कुमार शुक्ल
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य
इस तरह डूब रहा था
कि पश्चिम की दिशा भी उसके साथ
डूब रही थी।
समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है सूर्य
एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह
जो निकलने की कोशिश करता है
पर सतह के तेल से
पँख लिथडे़ होने के कारण
निकल नहीं पाता है।
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय को देखने
न पर्यटकों की भीड़ थी
न पर्यटक आत्माओं की।
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय के
दिन भर के बाद
न निकल पाने वाला सूर्य डूब जाता है
3.
दूर से अपना घर देखना चाहिए / विनोद कुमार शुक्ल
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए.
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ।
0
मैं अदना आदमी / विनोद कुमार शुक्ल
मैं अदना आदमी
सबसे ऊँचे पहाड़ के बारे में चिंतित हुआ
इस चिंता में मैं बाहर ही बाहर रहा आया
एक दिन इस बाहर को कोई खटखटाता है
जैसे आकाश धरती को खटखटाता है
हवा को खटखटाता है
जंगल के वृक्षों
एक-एक पत्तियों को खटखटाता है
देखो तो आकाश के नीचे
खुले में है
साथ में कोई नहीं है
दूर तक कोई नहीं
पर कोई इस खुले को खटखटाता है।
कौन आना चाहता है?
मैं कहता हूँ
अंदर आ जाइये
सब खुला है
मैंने देखा मुझे
हिमालय दिख रहा है।
0
उनके कविता संग्रह 'कविता से लंबी कविता' में शामिल कविता 'रायुपर बिलासपुर संभाग' से अंश..
नाँदगाँव मेरा घर
रायपुर बिलासपुर सम्भाग
हाय ! महाकौशल , छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष
इसी में नाँदगाँव मेरा घर
कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ
इतना जिन्दा हूँ
सोचकर ख़ुश हो गया कि
पहुँचूँगा बार-बार
आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर
खूब घूमता जहाँ था
फ़लाँगता छुटपन
बचपन भर
फ़लाँगता उतने वर्ष
उतने वर्ष तक
उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे
छोटे-छोटे क़दम रखते
ज़िन्दगी की इतनी दूरी तक पैदल
कि दूर उतना है नाँदगाँव कितना अपना ।
+++
बिना जाते हुए प्लेटफ़ार्म पर खड़े-खड़े
जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के
छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन
इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा
उधर से मुसरा बाँकल
तब लगता है मैं कहीं नहीं
बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से
निहारेते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े
लिए हाथों में एक झोला
एक छोटी पेटी का अपना वज़न।
०
कुछ प्रतिनिधि कविताएं -
अ.
अब कभी मिलना नहीं होगा, ऐसा था (बिछुड़ना)
अब कभी मिलना नहीं होगा
ऐसा था
और हम मिल गए
दो बार ऐसा हुआ
पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद
जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु
पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।
थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था
पहले हम एक ही घर में रहते थे।
०
इ.
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
०
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह (1960)
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर
चला गया विचार की तरह।
रबड़ की चप्पल पहनकर मैं पिछड़ गया।
जाड़े में उतरे हुए कपड़े का
सुबह छः बजे का वक़्त
सुबह छः बजे की तरह।
पेड़ के नीचे आदमी था।
कुहरे में आदमी के धब्बे के अंदर वह आदमी था।
पेड़ का धब्बा बिलकुल पेड़ की तरह था।`
दाहिने रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा,
रद्दी नस्ल के घोड़े की तरह था।
घोड़ा भूखा था तो
उसके लिए कुहरा हवा में घास की तरह उगा था।
और कई मकान, कई पेड़, कई सड़कें इत्यादि कोई घोड़ा नहीं था।
अकेला एक घोड़ा था। मैं घोड़ा नहीं था।
लेकिन हाँफते हुए, मेरी साँस हुबहू कुहरे की नस्ल की थी।
यदि एक ही जगह पेड़ के नीचे खड़ा हुआ वह मालिक आदमी था
तो उसके लिए
मैं दौड़ता हुआ, जूते पहिने हुए था जिसमें घोड़े की तरह नाल ठुकी थी।
०
उनके विशिष्ट वाक्य:-
1. बत्तखों का यह झुंड/बत्तख जैसा था।/इसके पास बत्तख की चोंच और पंख थे
2. भीड़ भीड़ जैसी थी',
3. 'नीला नीला जैसा है
०
1.
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे / विनोद कुमार शुक्ल
जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
+++
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आयेंगे मेरे घर
खेत खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम से लगे हैं
मैं फुरसत से नहीं
उनसे एक जरूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा।--
इसे मैं अकेली आखिरी इच्छा की तरह
सबसे पहली इच्छा रखना चाहूँगा।
2.
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य / विनोद कुमार शुक्ल
समुद्र में जहाँ डूब रहा था सूर्य
इस तरह डूब रहा था
कि पश्चिम की दिशा भी उसके साथ
डूब रही थी।
समुद्र में जहाँ उदित हो रहा है सूर्य
एक ऐसे समुद्री पक्षी की तरह
जो निकलने की कोशिश करता है
पर सतह के तेल से
पँख लिथडे़ होने के कारण
निकल नहीं पाता है।
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय को देखने
न पर्यटकों की भीड़ थी
न पर्यटक आत्माओं की।
इस न निकल पाने वाले सूर्योदय के
दिन भर के बाद
न निकल पाने वाला सूर्य डूब जाता है
3.
दूर से अपना घर देखना चाहिए / विनोद कुमार शुक्ल
दूर से अपना घर देखना चाहिए
मजबूरी में न लौट सकने वाली दूरी से अपना घर
कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में
सात समुन्दर पार चले जाना चाहिए.
जाते जाते पलटकर देखना चाहिये
दूसरे देश से अपना देश
अन्तरिक्ष से अपनी पृथ्वी
तब घर में बच्चे क्या करते होंगे की याद
पृथ्वी में बच्चे क्या करते होंगे की होगी
घर में अन्न जल होगा की नहीं की चिंता
पृथ्वी में अन्न जल की चिंता होगी
पृथ्वी में कोई भूखा
घर में भूखा जैसा होगा
और पृथ्वी की तरफ लौटना
घर की तरफ लौटने जैसा.
घर का हिसाब किताब इतना गड़बड़ है
कि थोड़ी दूर पैदल जाकर घर की तरफ लौटता हूँ
जैसे पृथ्वी की तरफ।
0
मैं अदना आदमी / विनोद कुमार शुक्ल
मैं अदना आदमी
सबसे ऊँचे पहाड़ के बारे में चिंतित हुआ
इस चिंता में मैं बाहर ही बाहर रहा आया
एक दिन इस बाहर को कोई खटखटाता है
जैसे आकाश धरती को खटखटाता है
हवा को खटखटाता है
जंगल के वृक्षों
एक-एक पत्तियों को खटखटाता है
देखो तो आकाश के नीचे
खुले में है
साथ में कोई नहीं है
दूर तक कोई नहीं
पर कोई इस खुले को खटखटाता है।
कौन आना चाहता है?
मैं कहता हूँ
अंदर आ जाइये
सब खुला है
मैंने देखा मुझे
हिमालय दिख रहा है।
0
उनके कविता संग्रह 'कविता से लंबी कविता' में शामिल कविता 'रायुपर बिलासपुर संभाग' से अंश..
नाँदगाँव मेरा घर
रायपुर बिलासपुर सम्भाग
हाय ! महाकौशल , छत्तीसगढ़ या भारतवर्ष
इसी में नाँदगाँव मेरा घर
कितना कम पहुँचता हूँ जहाँ
इतना जिन्दा हूँ
सोचकर ख़ुश हो गया कि
पहुँचूँगा बार-बार
आख़िरी बार बहुत बूढ़ा होकर
खूब घूमता जहाँ था
फ़लाँगता छुटपन
बचपन भर
फ़लाँगता उतने वर्ष
उतने वर्ष तक
उम्र के इस हिस्से पर धीरे-धीरे
छोटे-छोटे क़दम रखते
ज़िन्दगी की इतनी दूरी तक पैदल
कि दूर उतना है नाँदगाँव कितना अपना ।
+++
बिना जाते हुए प्लेटफ़ार्म पर खड़े-खड़े
जब याद आते हैं नाँदगाँव पहुँचने के
छोटे-छोटे से देहाती स्टेशन
इधर से रसमड़ा, मुड़ीपार, परमालकसा
उधर से मुसरा बाँकल
तब लगता है मैं कहीं नहीं
बस निकाल दिया गया दूर कहीं बाहर सीमा से
निहारेते नक़्शे को नक़्शे के बाहर खड़े-खड़े
लिए हाथों में एक झोला
एक छोटी पेटी का अपना वज़न।
०
कुछ प्रतिनिधि कविताएं -
अ.
अब कभी मिलना नहीं होगा, ऐसा था (बिछुड़ना)
अब कभी मिलना नहीं होगा
ऐसा था
और हम मिल गए
दो बार ऐसा हुआ
पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद
जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु
पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।
थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था
पहले हम एक ही घर में रहते थे।
०
इ.
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
०
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर चला गया विचार की तरह (1960)
वह आदमी नया गरम कोट पहिनकर
चला गया विचार की तरह।
रबड़ की चप्पल पहनकर मैं पिछड़ गया।
जाड़े में उतरे हुए कपड़े का
सुबह छः बजे का वक़्त
सुबह छः बजे की तरह।
पेड़ के नीचे आदमी था।
कुहरे में आदमी के धब्बे के अंदर वह आदमी था।
पेड़ का धब्बा बिलकुल पेड़ की तरह था।`
दाहिने रद्दी नस्ल के घोड़े का धब्बा,
रद्दी नस्ल के घोड़े की तरह था।
घोड़ा भूखा था तो
उसके लिए कुहरा हवा में घास की तरह उगा था।
और कई मकान, कई पेड़, कई सड़कें इत्यादि कोई घोड़ा नहीं था।
अकेला एक घोड़ा था। मैं घोड़ा नहीं था।
लेकिन हाँफते हुए, मेरी साँस हुबहू कुहरे की नस्ल की थी।
यदि एक ही जगह पेड़ के नीचे खड़ा हुआ वह मालिक आदमी था
तो उसके लिए
मैं दौड़ता हुआ, जूते पहिने हुए था जिसमें घोड़े की तरह नाल ठुकी थी।
०
उनके विशिष्ट वाक्य:-
1. बत्तखों का यह झुंड/बत्तख जैसा था।/इसके पास बत्तख की चोंच और पंख थे
2. भीड़ भीड़ जैसी थी',
3. 'नीला नीला जैसा है
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