नीर भरी दुख की बदली : महादेवी वर्मा
साहित्य के कंचनजंगा और कैलाश पर अपने नाम का ध्वज लहराने का सपना देखनेवाली नई पीढ़ी के लिए भारतेंदु युग, द्विवेदी युग या छायावादी युग साहित्यिक सफ़र के पड़ाव यानी थकान मिटाने के केंद्र हो सकते हैं, किंतु शायद प्रेरक-चषक न हों कि जिनका एक घूंट भरकर उत्साह और ऊर्जा मिल जाए। साहित्यिक पीढी की एक और बिरादरी, जो पढ़ने या लिखने अथवा लिखने और पढ़ने के कई युग बिताकर, कुछ उपलब्धियों के पदक और स्मृतिचिन्हों को बाजमौकों में चमकाकर अथवा झाड़-पोंछकर अपने अतीत से जुड़कर ताज़ा हवा का झोंका लेते रहते हैं, उनके लिए साहित्य के आधुनिक काल की हस्तियां अभी भी पुरानी पड़ गईं आयुर्वेदिक औषधियों की भांति कीमती और फायदेमंद हो सकती है। इनके अलावा तात्कालिक लाभ, ठहाके और तालियों के बीच राष्ट्रीयकरण के कोलाज में कृत्रिम साहित्य का फ्लेवर डालकर चटखारे लेनेवाली इलेक्ट्रॉनिक्स पीढी के लिए दस साल पुरानी प्रतिभा और ट्रेंड भी एंटीक हो जाता है, दकियानूस और बकवास हो जाता है। वे उनका नाम लेना भी पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं।
ऐसा ही एक नाम है महादेवी वर्मा। महादेवी वर्मा (26 मार्च 1907 — 11 सितम्बर 1987) हिन्दी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तम्भों में से एक मानी जाती हैं। उन्हें छायावाद की मीरा के नाम से भी जाना जाता है। कारण उनकी कविता और गद्य साहित्य में करुणा, पीड़ा, आंसू, अदृश्य प्रिय से मिलने की तड़प आदि वे सब प्रवृतियां पाई जाती हैं जो मीरां में थी। अंतर इतना है कि 'मीरां के प्रिय' मूर्तियों में अभिव्यक्त थे और 'महादेवी के प्रिय' रहस्य के धुएं में डूबे लगभग निराकार थे।
अपने युग के निराले कवि निराला और सुकुमार कवि पंत की लाडली बहन महादेवी को इतिहासज्ञ-दार्शनिक कवि प्रसाद का भी अग्रजवत आशीर्वाद प्राप्त था। लेकिन उनका इस भ्रातृत्व के प्रसाद के बावजूद भी सब कुछ अपना था, अलग था और गहराई तक रिस जानेवाला था।
हम जैसे अनेक सफेद पड़ चुके सदाबहार विद्यार्थियों में कई ऐसे हैं, जिनके अंदर वे अपने गीतों के माध्यम से रिस गईं थी। उनके जो गीत, आज भी गीली रेत को हाथ लगाते ही भलभलाकर झरना बनकर बहने लगते हैं, वे हमने अपने तरुण विद्यार्थीकाल में पढ़े थे। मैं नीर भरी दुख की बदली, चिर सजग आँखें उनींदी, बीन भी हूं मैं तुम्हारी रागिनी भी, जो तुम आ जाते एक बार, कौन तुम मेरे हृदय में, पंथ होने दो अपरिचित, यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो, शलभ! मैं शापमय वर हूं..आदि अनेक गीत उनके अंदर की कोमल, अबल, ममतालु स्त्री के सौंदर्यबोध की तरह सत्तर अस्सी के दशक के संतप्त मानसों में जलप्लावन में डूबे घरों की तरह घुस गया। वह पीढ़ी जिसे महादेवी के गीतों की थपकन मिली वह पंत की तरह सुकुमार हो गया लेकिन जिस पीढ़ी ने बाद के मुक्तिबोध को चखा, वह पीढ़ी पुरुषोचित कठोरता से भर गई। कोमल पीढ़ी उनके लिए अस्पृश्य हो गई और बाद के दिनों में महादेवी जैसे पर्दानशीन होती चली गईं।
महादेवी के गीतों की तरह ही उनके संस्मरण, उनकी कहानियां, उनके निबंध भी मक्खन बिलोकर आए मुलायम हाथोंकी भांति ही पीढ़ी की भावनाओं को थपथपाते रहे। गिलहरी पर लिखा उनका संस्मरण 'गिल्लू' जिसे मैने शायद नई कहानियां, नवनीत अथवा कादम्बिनी में पढ़ा था, मुझे अंदर तक हिलाकर चला गया। हमने अभी-अभी तो चींचीं चूहे से छुट्टी पाई थी, पर टॉम और जेरी या स्टुअर्ट लिटिल की तरह ये छोटे छोटे जीव हमारी मानवीयता का दामन इतनी जल्दी कैसे छोड़ सकते थे।
अपने अघोषित पालतू जीवों के अतिरिक्त अपनी गृह सहयोगियों के प्रति भी महादेवी कितनी कोमल थीं उनका संस्मरण 'बलचनमा' पढ़कर लगा।
अपने समकालीन और निकटतम साहित्यिक अग्रजों पर महादेवी के लिखे निबंध भी भावविगलित हैं। महाप्राण निराला अंक के लिए उनका लेख मुंहबोली बहन की करुणा और कोमलता का अद्भुत उदाहरण है। 'बेला' में संगृहीत एक लेख 'जो रेखाएं न कह सकेंगी' का प्रारंभिक अंश देखें -
मेरा प्रयास किसी जीवंत बवंडर को कच्चे सूत में बाँधने जैसा था या किसी उच्छल महानद को मोम के तटों में सीमित करने के समान, यह सोचने-विचारने का तब अवकाश नहीं था। पर आने वाले वर्ष निराला जी के संघर्ष के ही नहीं, मेरी परीक्षा के भी रहे हैं। मैं किस सीमा तक सफल हो सकी हूँ, यह मुझे ज्ञात नहीं, पर लौकिक दृष्टि से नि:स्व निराला हृदय की निधियों में सब से समृद्ध भाई हैं, यह स्वीकार करने में मुझे द्विविधा नहीं। उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को जो दृढ़ता और दीप्ति दी है, वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी।
मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा;
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक-से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली!
मेरा पग-पग संगीत-भरा,
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा,
नभ के नव रँग बुनते दुकूल,
छाया में मलय-बयार पली!
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार, बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नवजीवन-अंकुर बन निकली!
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
विस्तृत नभ का कोई कोना;
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
मैं नीर भरी दु:ख की बदली!
०००
@ रा.रामकुमार, २६.०३.२५, महादेवी जयंती
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