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दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल - १

 १ जनवरी जन्मदिन पर विशेष संस्मरण

दीवार में एक खिड़की : विनोद कुमार शुक्ल 

 एक जनवरी का आना तारीख और सन से भरे कैलेंडर का बदलना ही है। रात के बारह बजे के बाद तारीख के बदलने के अतिरिक्त और बदलता क्या है? बदलने की कुछ अप्रिय यादों को धक्का देकर दूर धकेलने का अभ्यास लोगों ने कर लिया है। अब तो मनोचिकित्सकों के परामर्श के अनुसार बेहतर और स्वस्थ अनुभव करने के लिए अच्छा सोचो या सोचने का बहाना करो या वह भी नहीं कर सकते तो केवल आइने में ख़ुद को देखकर मुस्कुराने का अभ्यास करो। इस मुस्कान को असाधारण बनाने का अभ्यास करो। इससे बाहर कुछ हो न हो, तुम्हारे अंदर कुछ अच्छा घटेगा। मन चंगा होगा और 'मन चंगा तो कठौती में गंगा...' 

इक्कीसवीं सदी का सन 2025 सिर्फ़ साल का बदलना नहीं है। यह वर्ष इस सदी का रजत जयंती वर्ष है। अर्थात् अब जो भी होगा, रजत जयंती का स्मारक होगा। हम सब की उपस्थिति रजत जयंती है। साल भर अब जो भी अकस्मात आएगा वह रजत जयंती आगंतुक होगा। 

पर इस बार कुछ नया हो गया। 

सुबह सुबह इस चाव में थे कि नए साल की बधाइयां दोस्तों और प्रियजनों को देंगे। ज़रा चाय पीकर गए साल के टॉक्सिन को दबाकर तरो ताज़ा हो लें। लेकिन चाय की पहली घूंट भी गले के नीचे नहीं उतरी थी कि ख़बर आई कि विनोद कुमार शुक्ल का जन्मदिन है। साल की शुरुआत में ही जैसे सालों के बीच की दीवार में एक खिड़की निकल आयी। खिड़की थी पहले से पर बंद रहती थी। आज अचानक खुल गयी। 
यानी आज विनोदकुमार शुक्ल का जन्म दिन है  विनोद कुमार शुक्ल आधुनिक हिंदी के उन लेखकाें में से हैं जिन्होंने अपनी अलग और नई शैली आविष्कृत की। उनकी शैली में जादुई यथार्थवाद अनुभूत किया जा सकता है।  
         उनके जादुई दृष्टि ने रचनाओं के चीतलों को नई शैली के मयूरपंखी शीर्षक  दिए। उदाहरणार्थ : उनकी कविताओं का पहला संग्रह 1971 में प्रकाशित हुआ जिसका शीर्षक उन्होंने दिया-'लभभग जय हिंद'      

          दर असल, उन दिनों राजनांदगांव और शेष छत्तीसगढ़ अंचल में जय हिंद एक मुहावरा था, जिसका अर्थ था 'मर गया'। सैनिकों और राजनयिकों के मरने पर '...सत्य है' के स्थान पर 'जय हिंद' सुना था सबने। 

       1979 में उनका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ जिसका उन्होंने दिया - 'नौकर की कमीज' ।

       'वह आदमी चला गया नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह'  यह उनके दूसरे कविता संग्रह का शीर्षक है, जो 1981 में प्रकाशित हुआ।

        विनोद कुमार शुक्ल 1994 से 1996 तक आगरा में निराला सृजनपीठ में अतिथि साहित्यकार थे, जिस दौरान उन्होंने दो उपन्यास 'खिलेगा तो देखेंगे' और  'दीवार में एक खिड़की रहती थी' लिखे। 

       1988 में 'पेड़ पर कमरा' उनकी लघु कहानियों का  संग्रह और 1992 में कविताओं का एक और संग्रह, 'सब कुछ होना बचा रहेगा' प्रकाश में आए। 

     इक्कीसवीं सदी ने जब दरवाज़ा खोला तो उन्होंने पहले दशक में अपने कविता संग्रह 'आकाश धरती को खटखटाता है' (2006) के साथ प्रवेश किया और दूसरे दशक के आरंभ में नया कविता संग्रह 'कभी के बाद अभी' (2012) दिया।

     इसी के बीच 2011 में उन्होंने एक उपन्यास  'हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़' लिखा।  


क्रमशः १

   

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