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जंगल जीवेषणा

 बाघ-द्वीप की जंगल जीवेषणा
                          सिंहावलोकन 

           जंगल जीवेषणा का अर्थ है "जंगल में जीने की कला, जीवन यापन का उद्यम,  जंगल के वातावरण के अनुकूल जीवन शैली,  जंगल के हिंसक और आक्रामक पशुओं से निपटने का कौशल, जंगल की दुर्गमताओं और दुरूहताओं का ज्ञान आदि। भोजन, पानी, आश्रय, आवागमन, समूह निर्माण और सहजीविता की रीति नीति।

      यह बातें उन पर लागू होती है जो जंगल को ही अपना घर बनाकर उसमें रहते हैं लेकिन जंगल के जीवन के अध्येताओं और पर्यटकों के लिए इनकी जीवन शैली और मानसिकता को पढ़ना और उसके अनुकूल अपनी अध्ययन सामग्री जुटाना या आनंद बटोरना  जंगल जीवेषणा के अतिरिक्त बिंदु हैं। 

       पर्यटकों के लिए सामान्य तौर पर बनी हुई राजकीय वन विभागीय व्यवस्था के अंतर्गत जंगल के सौंदर्य, वन्य प्राणियों को देखना ही ध्येय है। वन्य प्राणियों के अतिरिक्त वनवासी भी पर्यटन का लक्ष्य होना चाहिए था लेकिन आधुनिक काल में वनवासियों को जंगल से निकालकर सामान्य जन-जीवन की समानांतर-धारा में जोड़ने का  लगातार प्रयास हो रहा है। उनके पुनर्वास के प्रयास हो रहे हैं, जंगल को वे समझते हैं इसलिए उन्हें पर्यटन से यथासंभव जोड़ा जा रहा है। उन्हें उनके मूल जीवन से पृथक कर बेहतर नागरिक जीवन देने के उपक्रम किए जा रहे हैं। राजकीय सेवा और वाणिज्य व्यवसाय के अवसर उन्हें उपलब्ध कराए जा रहे हैं। इसकी समीक्षा की जा सकती है।

      दूसरी ओर संस्कृति के संरक्षण के कतिपय उपाय भी हो रहे हैं। आदिवासी संस्कृति, रहन सहन, भाषा बोली, खान पान, व्यवहार वेशभूषा, उनके लोकगीत लोकसंगीत, उनकी बांस काष्ठ मिट्टी आभूषण की कला को यथावत जीवित रखने के लिए भी ज़ोर  दिया जा रहा है। उनके वानस्पतिक ज्ञान, वन वैद्यकीय, उनकी जड़ और वनस्पति चिकित्सा, 

कंद मूल भोग, उनकी वनोपज, वन उत्पाद, वन कृषि और उनका स्वास्थ्यानुकूल उपयोग के नागरिकीकरण के भी उद्योग किए जा रहे हैं। वे सामान्य अध्ययन के विषय भी हैं और उनकी बस्ती का भी सामान्य ज्ञान विषयक केंद्र होने चाहिए। यह भी समीक्षा का विषय है।

पर्यटन में ज्यादा से ज्यादा वन्य जीवों की चहल ही दिखाई देती है और सामान्यतः भ्रमणर्थियों का उद्देश्य भी यहीं तक सीमित होता है। वनजीवों के विषय में विस्तार से जानकारी घंटे दो घंटे में क्या और कितनी मि सकती है? गाइड (मार्गदर्शक) के रूप में जो प्रशिक्षित वनवासी या शहरी उपलब्ध होते हैं वे केवल अकस्मात दिखाई देनेवाले जीवों के नाम और प्रकार ही बता सकते हैं। वन्यजीवों के जीवन यापन, भोजन, उनकी सहजीविता, उनके पारस्परिक संबंध और लगाव, उनके समग्र व्यवहार की जानकारी उपलब्ध करना और कराना एक अलग स्तर के सत्र की मांग है। इसकी भी कार्ययोजना बनानी चाहिए ताकि जिज्ञासु उसका लाभ ले सकें। वनपर्यटन और व्यवसायिक निजी विश्राम गृहों  (रिजॉर्ट) में इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। कहीं कहीं वन्यप्राणियों पर छोटी छोटी फिल्में दिखाई जाती है किंतु उसके व्यावहारिक और जीवनोपयोगी अध्ययन की प्रस्तुतियां नहीं ही है। 

         जंगल पर बहुत फिल्में बनी हैं, साहित्य रचा गया है। लेकिन वे सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं। अनेक पुस्तकें और फिल्में नष्ट हो गई हैं। वन विभाग के पर्यटन केंद्रों या ज़िला मुख्यालयों में धरोहर के रूप में इनका संधारण संरक्षण किया जाना चाहिए था। निश्चित मूल्य लेकर उनको जिज्ञासुओं के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए था। किताबें लुप्त हो रही हैं, फिल्में अभी जीवित हैं, उनका उपयोग जंगल को समझने और समझाने के लिए हो सकता है, होना चाहिए। 

पर्यटकों को अपने अनुभव लिखकर पुस्तक या फ़िल्म के रूप में सामने लाते रहना चाहिए। इससे जंगल को आज की नज़रों से भी देखा जा सकेगा और इतिहास की नज़रों से भी। जिम कार्बेट और रुद्यार्द की पुस्तकें वास्तविकता और काल्पनिकता के बेहतरीन उदाहरण हैं। शिकारी कार्बेट ने शिकार के दृश्यों के साथ साथ जंगल के जीवन का भी जीवंत चित्रण किया है। रुद्यार्द ने जंगल का मानवीयकरण करते हुए वन्यप्राणियों के व्यवहार का बड़ा सूक्ष्म निरीक्षण किया है। कार्बेट ने शेर की हंसी का रोमांचक अनुभव किया था जो रुद्यार्द की 'जंगलबुक' के वन्यप्राणियों के व्यवहार में दिखाई देता है। बस्तर के लेखक गुलशेर खां ने 'शालवनों के द्वीप' में जंगल के जीवन संघर्ष के साथ वनकर्मियों द्वारा उनके शोषण का अच्छा चित्रण किया है। इससे भी आगे नक्सलवाद, वनोपज की अवैध तस्करी, सलवा जुडूम, विशिष्ट रक्षा अधिकारियों के आतंक के विषय में भी पुस्तकें आई हैं, फिल्में बनी हैं। ये पुस्तकें वनविभाग को अपनी आंतरिक समीक्षा के लिए उच्च स्तर से निम्न स्तर तक सभी को पढ़वाकर, तदनुसार जंगल उत्थान की कार्यवाही करनी चाहिए। वनवासियों के विस्थापन और पुनर्वास मात्र ही वन विभाग और मंत्रालय का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, वनवासियों की आदिम मर्यादा की भी रक्षा उनका लक्ष्य होना चाहिए। 

मुझे जब भी जंगल के बीच से गुज़रने का अवसर मिला, जोकि रोज़ाना या प्रायः मिलता ही रहता है, क्योंकि बालाघाट सहित हमारे आसपास के ज़िले  सिवनी, मंडला, छिंदवाड़ा डिंडोरी आदि जंगल से भरे रास्तों से गुज़रकर मिलते हैं।संपूर्ण जबलपुर संभाग के अतिरिक्त पिपरिया, पंचमढ़ी नरसिंहपुर, होशंगाबाद (नर्मदापुरम), भोपाल, आदि भी तो जंगल ज़िले हैं। हम जंगल से मुक्त कहां, ऐसी रहगुज़र में मैं जंगल को क्या बेहतर हो की नजर से देखता हूं। मैं जंगल का प्रत्यक्ष दृश्य ही नहीं, अप्रत्यक्ष दर्शी भी हूं। 

              मेरे यह यात्रावृत्त यही इतिवृत्त हैं जिनमें मात्र वंदन और रंजन ही नहीं है, अर्जन और वर्जन भी सम्मिलित है। अगर आपको ये ललित संस्मरण, जंगल यात्राएं रुच जाएं तो अच्छा। वरना 'स्वांतः सुखाय वनयात्रा' तो है ही।












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