नवगीत :
चलकर पूछूं सब कैसे हैं?
संकोचों का
क्या उत्पादन,
बहुत दिनों से सोच रहा हूं,
चलकर पूंछू,
सब कैसे हैं?
आदर्शों की भूलनबेली,
उपवन में मन को छू बैठी,
डहरी भूल गए सब सपने।
हड़बड़ सुबहें झटपट भागीं,
तपती दो-पहरों से आगे,
रात गयी ना लौटे अपने।
अनजाना पथ, लोग अपरिचित,
चित्र विचित्र भविष्य तुम्हारे,
तुम्हीं बताओ,
ढब कैसे हैं?
सूरज को देखो तो लगता,
पड़ा घड़ा ख़ाली सिरहाने,
जिसमें मुझको पानी भरना।
किस-किस के हिस्से का जीना,
जीवन है बेनामी खाता,
सांसों को बेगारी करना।
'हां' कहकर 'दर-असल' हुए जो,
'जब भी वक़्त मिलेगा तब' के,
झूठे वादे,
अब कैसे हैं?
कैसी है पथरीली छाती,
जिस पर दुःख के शीशे टूटे,
छल से छलनी दिल कैसा है?
सब संतापों के छुपने को,
ख़ामोशी की खुदी बावली,
उसका निचला तल कैसा है?
भावुकता के क्षीण क्षणों में,
पथ के हर पत्थर को भी जो,
रब कहते थे,
लब कैसे हैं?
@कुमार, ०३.०७.२०२१, मध्य-रात्रि ००.१९
शब्दार्थ :
उत्पादन : प्रोडक्ट, परिणाम, उपादान, उपलब्धि,
भूलनबेली : भूलन-बेल, एक ऐसी लता जिसके छूने मात्र से, अनजाने में छुआ जाने से विस्मृति छा जाती है। यह 'लोकमान्यता' भी है और डॉ. उपगड़े जैसे वनस्पति शास्त्री ने इसकी पुष्टि तक कर दी। राजनांदगांव के राजाओं के बाग़ में यह बेल थी जिसके कारण वह बाग़ 'भूलन-बाग़' कहलाया।
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